अब अंतरधार्मिक विवाह केवल समाजशास्त्रियों या परिवारों के लिए महत्त्व का विषय नहीं, राज्य सरकारों ने भी इसमें सीधी दखलंदाजी का मन बना लिया है। उत्तर प्रदेश सरकार इस बारे में अध्यादेश ले आई और दो दिनों के अंदर ही एक मामला दर्ज भी कर लिया गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जैसे ही लव जिहाद के खिलाफ बिगुल फूंका, इसकी गूंज विंध्य के उस पार तक सुनाई दी जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने यह कहा कि उनके राज्य में लव जिहाद के नाम पर होने वाले धर्मांतरण पर रोक लगाई जाएगी।
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‘लव जिहाद’ के नए विभाजनकारी प्रयोग की यात्रा दरअसल 2016 में शुरू हुई जब केरल की एक हिंदू लड़की, अकिला अशोकन ने अपने मुस्लिम प्रेमी से विवाह करने के लिए इस्लाम धर्म अपना लिया और हिजाब पहनना शुरू कर दिया। इस्लाम अपनाने के बाद उसका नाम हदिया हो गया। हदिया के घर वाले इस विवाह के सख्त खिलाफ थे और उसके पिता अशोकन इस मामले को अदालत में ले गए कि उनकी वयस्क बेटी को इस्लामवादियों की नापाक साजिश के तहत गुमराह किया गया। उनके वकील ने दावा किया कि मुस्लिम लड़के जान- बूझकर हिंदू नाम रखकरअपनी पहचान छिपाकर हिंदू लड़कियों को फांस रहे हैं ताकि उनका धर्मांतरण करके मुसलमानों का तादाद बढ़ाई जा सके। यह अदालती लड़ाई दो साल तक चली और इस दौरान भाजपा ने पिता की तरफदारी करते हुए इसे हिंदुओं के खिलाफ ‘लव जिहाद’ करार दिया। कहा कि मौलवियों और उनके समर्थकों के समूह चोरी-छिपे यह सब कर रहे हैं। तब केंद्र में भाजपा की सरकार से पुरजोर तरीके से यह बात उठी कि हदिया को उसके मां-बाप को सौंपा जाए और उसे वापस हिंदू धर्म में शामिल किया जाए। हालांकि हदिया ने मजबूती से अपना पक्ष रखा और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इस्लामी कानून के तहत की गई हदिया की शादी पूरी तरह वैध थी।
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अदालती फैसले से इस प्रकरण का तो पटाक्षेप हो गया लेकिन शब्द ‘लव जिहाद’ चल निकला। इससे पहले तक ऐसे विवाह को कट्टर हिंदुत्व के झंडाबरदार मुस्लिम युवकों द्वारा हिंदू लड़कियों को फांसे जाने की घटना के तौर पर बताते थे लेकिन अब वे इसे आपराधिक साजिश करार देने लगे जिसके लिए दुनिया भर के मुस्लिम संगठन पैसे मुहैया कराते हैं ताकि हिंदू लड़कियों का धर्मांतरण करके इस्लाम न मानने वालों में जेहाद का संदेश फैलाया जा सके। यहां तक कि फिल्मों और विज्ञापनों में भी मुस्लिम पुरुष के साथ हिंदू महिला की जोड़ी पर भगवा ब्रिगेड हंगामा खड़ा करने लगा। फिल्म पद्मावती की बात हो या फिर तनिश्क के विज्ञापन की जिसमें एक मुस्लिम सास अपनी हिंदू बहू की गोद भराई कर रही होती है, संकीर्ण हिंदूवादियों की भीड़ सड़कों पर उतरआती है, टीवी कैमरों के सामने लाठी-डंडे और यहां तक कि तलवारें तक लहराती है। सड़कों पर उतरे लोग गला फाड़कर हिंदू भावनाओं को कथित तौर पर जान-बूझकर आहत किए जाने के खिलाफ नारे लगाते हैं। आसपास खड़े तमाशबीनों की पिटाई करते हैं और आपत्तिजनक दृश्य दिखाने के लिए सिनेमा हॉल-शोरूम को जबरन बंद कराते हैं, उन्हें माफी मांगने को मजबूर करते हैं।
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अभी यह सब चल ही रहा था कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने एक तारांकित सवाल के जवाब में संसद को जानकारी दी कि एनआईए ने दो अंतरधार्मिक विवाहों की जांच की और उसे इनमें किसी भी तरह की धोखाधड़ी या जबरन धर्मांतरण का कोई सबूत नहीं मिला। उन्होंने साफ किया कि शब्द “लव जिहाद” मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित नहीं है। विभिन्न अन्य उच्च न्यायालयों ने भी हदिया के विवाह पर केरल उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा है जिसमें संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रावधानों का हवाला दिया गया है जो नागरिकों को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के दायरे में रहते हुए अपनी मर्जी के धर्म को मानने और उसके मुताबिक आचरण की आजादी देता है।
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दुनिया भर में महिलाओं को यौनाचार की वस्तु के तौर पर देखा जाता है और यह महिलाओं के साथ इस प्रवृत्ति का वैसा ही रिश्ता है जैसा मछली का जल से। लव जिहाद की अवधारणा उसी अजीब और कड़वी मनोवृत्ति को स्थापित करती है जो महिलाओं की यौनचारिता को यौन रिश्तों की पुरुष प्रधान व्यवस्था में ही कैद रखना चाहती हैं। रिश्तेदारों, न्यायविदों या शासकों के रूप में पुरुष विवाह और परस्पर रिश्तों की पूरी पटकथा लिखता है जो अंततःअन्य पुरुषों की ही तरफदारी करती है। पुरुष के इस्तेमाल की यौन-वस्तु होने का भाव जब लड़की की सामाजिक छवि की बुनियाद हो जाता है तो पुरुष प्रभुत्व वाली व्यवस्था के लिए लड़की के यौनाचार को नियंत्रित करना बेहद अहम हो जाता है ताकि उसकी प्रजनन क्षमता को उसी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था में सीमित रखा जा सके जिसकी वह हिस्सा होती है। हर संस्कृति में ऐसा ही होता है और इसी का नतीजा है कि हर समाज में अंतरधार्मिक विवाहों से लेकर बलात्कार, अनाचार और विवाहेत्तर संबंधों जैसे सभी तरह के यौनाचार में पुरुष की तुलना में महिला के लिए कहीं सख्त सजा का प्रावधान है। इस तरह से परिभाषित यौनचारिता की बुनियाद इस बात पर टिकी होती है कि उनकी स्थापित पुरुष प्रभुत्व वाली व्यवस्था किसी आचरण की इजाजत देती है या नहीं।
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अंतरधार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून की मांग करने वाले पुरुष मानते हैं कि महिलाओं का अपने शरीर का नियंत्रण पाना उनकी सत्ता के लिए गंभीर खतरा है। उनके लिए महिलाएं उनकी जागीर हैं और ऐसी मशीन जिनका इस्तेमाल खास तौर पर पुरुष-परिभाषित विशिष्ट समुदायों के भीतर ज्यादा से ज्यादा नस्लीय रूप से ‘शुद्ध’ लड़कों और जितना संभव हो कम लड़कियों को जन्म देने के लिए किया जा सके। ऐसी प्रतिगामी सोच महिलाओं को समुदाय की बेड़ियों को तोड़ने से रोकती है क्योंकि उसके मुताबिक ऐसा करना कुल के लिए घातक होता है।
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जहां तक कानूनी व्यवस्था का सवाल है, महिलाओं का अनुभव तो यही कहता है कि यह पुरुषों की ओर झुका हुआ है। इसकी वाजिब वजह भी है। इस व्यवस्था को मुख्यतः पुरुषों ने बनाया, उन्होंने ही इसे परिभाषित किया और वही इससे जुड़े विवादों पर फैसला सुनाते हैं। न्याय मिलने में देरी होती है, सुनवाई ऐसे खिंचती है जैसे कभी खत्म ही न होने वाली हो, अदालत के बाहर मामले को निपटा लेने का भारी दबाव बनाया जाता है। महिला और उसके बच्चे के लिए मुआवजा-गुजारे का पैसा वगैरह अटका रहता है और इस दौरान उसे कलंक की तरह देखा जाता है। इसके बावजूद कि अलग-अलग धर्मों के दो वयस्कों के बीच रजामंदी से विवाह को पूर्ण कानूनी वैधता प्राप्त है, हदिया को अपने विवाह को मान्य घोषित करने वाला फैसला पाने में दो साल लग गए।
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हाल के समय में दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जिस तरह अंतरधार्मिक विवाह पर रोक लगाने के कानून बनाने के बयान दिए हैं, उससे साफ है कि एक उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत खुद को जितना भी तटस्थ, उन्नत, उदार और लिंग-भेद से मुक्त बता दे लेकिन महिलाओं पर पुरुष नियंत्रण को बदलने को वह हरगिज तैयार नहीं।
इसलिए अंतरधार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध की मांग दरअसल हमारे मिश्रित समाज पर पुरुषवादी सत्ता की निगरानी का परिचायक है जिसमें बताया जाता है कि बहुसंख्यक समुदाय की संरचना इतनी भेद्य है कि इसकी महिलाओं से दोस्ती और फिर विवाह करने की मंशा के साथ अल्पसंख्यक समुदाय का कोई पुरुष उसमें घुसपैठ कर सकता है। कानून के लिहाज से भारतीय महिलाओं के लिए लैंगिक समानता को सार्थक बनाने के लिए हदिया मामले के साथ शुरू हुए टकराव के इस दौर में कानूनी रोक की मांग के पीछे के वास्तविक मुद्दों की पहचान करनी चाहिए और फिर उनका सभी समुदायों की महिलाओं के दृष्टिकोण के जरिये प्रतिकार करना चाहिए।
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