सुना है कि भारत की सरकारी बिरादरी पूरी दुनिया को दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से लाभान्वित कराने जा रही है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे का कहना है कि वे महान चिन्तक और द्रष्टा थे, लेकिन आज तक जानबूझ कर भारत को और संसार को उनके बारे में अंधेरे में रखा गया। अब जब पूरी तरह से भारतीय शासन स्थापित हो गया है, देश और विश्व को वैचारिक अंधेरे से दार्शनिक उजाले में लाया जाए।
यह दिलचस्प है कि पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को अगर कोई व्यक्ति मिला है जिसे वह विचारवान कह सकें तो वे दीनदयाल उपाध्याय ही हैं। संघ और भारतीय जनता पार्टी में बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर और सरदार वल्लभ भाई पटेल को अपना नेता बनाने की जो बदहवासी है, उससे साफ़ है कि खुद उनके अपने दायरे में विचार का टोटा पड़ा हुआ है। इतिहास में भी वेद, पुराण और राम, राणाप्रताप और शिवाजी के बाद उनके पास नाम नहीं हैं। लेकिन इनमें से तो किसी का व्यक्तित्व निर्मित करने में संघ की तो कोई भूमिका नहीं है। फिर उससे यह पूछा जा सकता है कि अगर वह भारतीय संस्कृति का इतना ही बड़ा अलंबरदार है तो क्यों नहीं इतने वर्षों में उसने एक भी विचारक पैदा किया!
संघ और बीजेपी के लोग यह भी रोना रहते हैं कि कांग्रेस और वामपंथियों के कारण उनके असली भारतीय या राष्ट्रवादी विचारक सामने नहीं आ पाए। शायद उनका यह ख्याल है कि दार्शनिक या विचारकों को जब तक राज्याश्रय न मिले, उन्हें कोई जान नहीं सकता! फिर क्या श्री ऑरोबिंदो किसी सरकारी सहारे से दार्शनिक बने? या क्या सर्वपल्ली राधाकृष्णन या रामचंद्र गांधी या हाल में दयाकृष्ण? इनमें से कोई भी वामपंथी नहीं कहा जा सकता लेकिन दर्शन के संसार की जो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी है उसमें इनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। ये ऐसे विचारक माने जाते हैं, जिनसे बहस भी की जा सके! यह सौभाग्य संघ के एकमात्र विचारक दीनदयाल उपाध्याय को क्यों नहीं मिला? क्या उनके खिलाफ कोई वैचारिक साजिश थी जो उन्हें उनका उचित प्राप्य नहीं मिला? और अब जब उनकी या उनके शिष्यों की सरकार है तो उसके सहारे वे विचार के आकाश में सूर्य की जगह पर टांग दिए जा सकेंगे?
यह भी दिलचस्प है कि संघ लोगों को यह याद नहीं दिलाता कि उसके अस्तित्व का तर्क हेडगेवार और गोलवलकर जैसे गुरुओं के लेखन में छिपा हुआ है और सारे स्वयंसेवकों की दीक्षा इन्हीं के विचारों में होती है। इनकी किताबों के उद्धरण अब संघ के लोग सार्वजनिक करने में शर्माते हैं क्योंकि वे इतने साफ़ तौर पर मुस्लिम या ईसाई और दलित या स्त्री विरोधी हैं! वे खुलेआम हिटलर के तरीकों के हामी भी हैं। उपाध्यायजी ने एक सुंदर पर्दा संघ को दिया “एकात्म मानववाद” का। इसके पीछे गोलवलकर या हेडगेवार के मानव विरोधी विचारों पर अमल किया जाता है! आश्चर्य नहीं कि “एकात्म मानववाद” की माला जपने वाले यह नारा भी आराम से लगा सकते हैं “मुसलमानों का एक स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान!” वे मानववादी भजन गाते हुए बाबरी मस्जिद भी ढहा सकते हैं!
“एकात्म मानववाद” सुनने में कितना ही भला लगे उसकी असलियत कुछ और है! क्या दीनदयाल उपाध्याय अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज़ भी बन सकते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति भारत का प्रतिनिधि हो सकता है जो यहां की एक बड़ी आबादी यानी मुसलमानों को एक पेचीदा या जटिल समस्या मानता हो? वे कहते हैं, “विगत 1200 साल से इस समस्या से हम जूझ रहे हैं।” यहां हम कौन हैं? हम क्या हिंदू हैं या संघ हैं? क्या हिंदुओं के लिए मुसलमान कोई समस्या थे? राजाओं की आपसी लड़ाइयों का किस्सा छोड़ दें तो क्या हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच निरंतर संघर्ष का कोई इतिहास है? मुसलमान पहले समस्या बने अंग्रेजों के लिए, जिन्होंने 1857 के ग़दर के बाद उन्हें सबक सिखाने के लिए दिल्ली तक में उनके प्रवेश पर पाबंदियां लगा दी थीं और बड़ी तादाद में उन्हें पेड़ों से टांग कर फांसी दे दी थी। अंग्रेज़ों के बाद मुसलमान हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए समस्या बन गए। संघ की उम्र अभी कुल जमा सौ साल की भी नहीं हुई, तो उपाध्यायजी फिर किस आधार पर 1200 साल की बात कर रहे हैं! इन सौ सालों में भी सारे हिन्दुओं ने कभी संघ को अपना संगठन नहीं माना, फिर वह किस बुनियाद पर उनकी तरफ से बोलने का दावा कर रहा है?
दीनदयाल उपाध्याय को भारत का सांस्कृतिक स्वर इसलिए भी नहीं माना जा सकता कि वे भारत के संविधान के ही विरोधी थे और उसे आमूलचूल बदलना चाहते थे। उनके मुताबिक़ ‘‘संविधान को रैडिकल तरीके से बदलना होगा, क्योंकि वह भारत की एकता और अविभाजनीयता के खिलाफ पड़ता है। यहां भारत माता, हमारी पवित्र मातृभूमि, जो यहां के लोगों के दिलों में बसी है, के विचार का कोई स्वीकार नहीं है।’’
पिछले चार पांच वर्षों में भारतीय जनता पार्टी और संघ का अंबेडकर प्रेम भी कुलांचे मार रहा है। प्रधानमंत्री का तो यहां तक कहना है कि अगर बाबा साहब नहीं होते तो वे प्रधानमंत्री न बन पाते! और मान लीजिए वे प्रधानमंत्री न बन पाते तो बाबा साहेब का क्या होता? फिर वे महान रहते या नहीं? आज़ाद भारत को बाबा साहेब का सबसे बड़ा योगदान नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि संविधान है। उस संविधान को उपाध्यायजी पूरी तरह बदल देना चाहते थे। बाबा साहब का सबसे बड़ा सपना था जाति का उन्मूलन। यह इसलिए कि उनका दर्शन मानवीय समानता का था और जाति व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ है। उपाध्यायजी क्या सोचते थे इसके बारे में? सुभाष गाताड़े ने इस संबंध में उन्हें उद्धृत किया है और इसे ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है, “हालांकि आधुनिक दुनिया में समानता के नारे उठते हैं, समानता की अवधारणा को सोच समझ कर स्वीकारने की जरूरत है। हमारा वास्तविक अनुभव यही बताता है कि व्यावहारिक और भौतिक नज़रिये से देखें तो कोई भी दो लोग समान नहीं होते। बहुत सारी उग्रता से बचा जा सकता है अगर हम हिंदू चिंतकों द्वारा प्रस्तुत किए गए समानता के विचार पर गंभीरता से गौर करें। सबसे पहला और बुनियादी प्रस्थान बिंदु यही है कि भले ही लोगों के अलग-अलग गुण होते हैं और उन्हें उनके गुणों के हिसाब से अलग- अलग काम आवंटित होते हैं, मगर सभी काम समान रूप से सम्मानजनक होते हैं। इसे ही स्वधर्म कहते हैं और इसमें एक स्पष्ट गारंटी रहती है कि स्वधर्म का पालन ईश्वर की पूजा के समकक्ष होता है। इसलिए स्वधर्म की पूर्ति के लिए संपन्न किए गए किसी भी कर्तव्य में, उच्च और नीच और सम्मानित तथा असम्मानित का प्रश्न उठता ही नहीं है। अगर कर्तव्य को बिना स्वार्थ के पूरा किया जाए, तो करनेवाले पर कोई दोष नहीं आता।”
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उपाध्यायजी के अनुसार मैला सर पर उठाने का काम भी सम्मानजनक है क्योंकि वह जो कर रहा है उसे उसके गुणों के कारण मिला है और उसका स्वधर्म है! वह भगवान की पूजा के बराबर है! इस उद्धरण में उपाध्यायजी जो धोखा कर रहे हैं, वह छिपता भी नहीं! दो लोगों का अलग होना और उनके बीच गैरबराबरी दो अलग चीज़ें हैं। विविधता, भिन्नता और असमानता में घालमेल करके मूर्खों को ही भ्रमित किया जा सकता है, दलितों को तो कतई नहीं जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अपने कन्धों पर आज तक ढोते आ रहे हैं!
दीनदयाल उपाध्याय के विचार दलित और मुसलमान विरोधी तो हैं ही, वे संविधान के भी विरोधी हैं। अभी तक भारत उसी संविधान के अनुसार चल रहा है जो 26 जनवरी,1950 को स्वीकार किया गया था। उसे ख़त्म कर देने की इच्छा रखनेवाले को भारतीय संस्कृति का स्वर कहकर भारत के करदाताओं के पैसे से दुनिया भर में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। इसका सभी इन्साफपसंदों को और सभी सभ्य लोगों को विरोध करना ही चाहिए। वे एक विभाजनकारी राजनीति के प्रचारक हैं, उन्हें दार्शनिक कहकर दर्शन शब्द का अपमान किया जा रहा है, यह भारत के दार्शनिकों की बिरादरी को भी कहना चाहिए अगर उन्हें अपने पेशे की इज्जत की ज़रा भी फ़िक्र है।
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