भले ही दुनियाभर में जीवन स्तर सुधारने का दावा किया जाता रहा हो पर सच यही है कि आम आदमी की एक भी समस्या का पूरा हल खोजने और इसे समाप्त करने में हम नाकाम रहे हैं। सूखा, भूख, असमानता, शिक्षा, महामारियां, प्रदूषण जैसी किसी भी समस्या का हल पूरी दुनिया में नहीं है, पर दूसरी तरफ समस्याओं की सूचि बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि ऐसी ही एक समस्या है, जिससे लड़ने का दावा दशकों से सरकारें करती रही हैं – पर इन दावों के बीच यह समस्या लगातार विकराल होती जा रही है। हाल में ही नासा के पूर्व वैज्ञानिक जेम्स हैनसन ने दावा किया है कि यह वर्ष, यानि 2024, पिछले वर्ष से भी अधिक गर्म रहेगा और इसी वर्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पृथ्वी पार कर जायेगी।
वर्ष 2015 के जलवायु परिवर्तन रोकने से संबंधित पेरिस समझौते के तहत तमाम देशों ने इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक काल (वर्ष 1850 से 1900 के बीच) के तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे नहीं बढ़ने देने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया था। इसके बाद से हरेक वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के अधिवेशन में यही संकल्प दुहराया जाता है, और दूसरी तरफ इस शताब्दी के अंत में आने वाले स्थिति पर हम वर्ष 2024 में ही पहुँच गए हैं। जेम्स हैनसन ने ही 1980 के दशक में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की समस्या को वैज्ञानिकों से आगे बढ़ाते हुए देश के शासकों, राजनीतिज्ञों और मीडिया तक पहुंचाया था। इनके अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ाते उत्सर्जन और एलनीनो के संयुक्त प्रभाव से इस वर्ष मई के महीने तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका होगा और संभव है कि वर्ष 2030 तक यह वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाए। दुनिया में कार्बन का उत्सर्जन हरेक वर्ष एक नया रिकॉर्ड स्थापित करता है, जिससे औसत तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है।
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यूरोपियन यूनियन के कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विसेस ने हाल में ही ऐलान किया है कि वर्ष 2023 मानव इतिहास का सबसे गर्म वर्ष रहा है, पिछले एक लाख वर्षों के दौरान इतना गर्म समय नहीं देखा गया है। वर्ष 2023 में पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है, यह तापमान वृद्धि इससे पहले के सबसे गर्म वर्ष, 2016, की तुलना में 0.17 डिग्री सेल्सियस अधिक है। वर्ष 2023 में तमाम युद्धों, गृहयुद्धों, प्रजातंत्र के अंत, मानवाधिकार हनन जैसे विषयों पर दुनिया ने खूब चर्चा की, पर शायद ही किसी को पता हो कि वर्ष 2023 के हरेक दिन दुनिया का कोई ना कोई क्षेत्र मानव-जनित तापमान वृद्धि से उत्पन्न प्रभावों की चपेट में रहा है। कहीं बाढ़, कहीं चक्रवात, कहीं सूखा, कहीं जंगलों की आग, कहीं अत्यधिक तापमान, कहीं कम तापमान की समस्या रही है। वर्ष 2023 के हरेक दिन पृथ्वी का औसत तापमान वर्ष 1850 से 1900 तक के औसत तापमान की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा है। इनमें से आधे से अधिक दिनों तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रही, जबकि कम से कम 2 दिन ऐसे भी थे जब तापमान वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस को पार कर गयी थी।
दुनिया के अधिकतर वैज्ञानिकों ने कहा है कि दुनिया की सरकारों ने पूरी मानव जाति के साथ दगा किया है और तमाम चेतावनियों के बाद भी पृथ्वी को एक ऐसा ग्रह बना रहे हैं जहां जीवन असंभव हो जाएगा। टेक्सास स्थित ए एंड एम यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक एंड्रू देस्स्लेर ने दुनिया की सरकारों पर ताना कसते हुए कहा है कि वर्ष 2023 अभी सबसे गर्म वर्ष है, वर्ष 2024 इससे भी अधिक गर्म रहने का अनुमान है और इसके बाद के वर्ष इससे भी अधिक गर्म होंगें – कुछ वर्ष बाद आंकड़ों में वर्ष 2023 सबसे ठंढा वर्ष हो जाएगा और दुनियाभर की सरकारें इसे उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करेंगी।
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तापमान वृद्धि और ग्रीनहाउस गैसों के लगातार बढ़ाते उत्सर्जन के बीच इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने दावा किया है कि वर्ष 2023 में नवीनीकृत उर्जा संसाधनों में रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गयी है। यह वृद्धि वर्ष 2022 की तुलना में 50 प्रतिशत यानि 510 गीगावाट बिजली उत्पादन के समतुल्य है। इसमें से तीन-चौथाई वृद्धि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में दर्ज की गयी है। नवीनीकृत ऊर्जा क्षेत्र, विशेषकर सौर ऊर्जा का क्षेत्र अधिकतर देशों में सरकारी सब्सिडी द्वारा पनप रहा है और इसमें अधिकतर पूंजीपति अरबपतियों का योगदान है। जाहिर है सरकारी सब्सिडी तक इन पूंजीपतियों के लिए ये अत्यधिक मुनाफे का सौदा है, पर मुनाफ़ा कम होते ही ये पूंजीपति भी इस क्षेत्र से बाहर निकल जायेंगे। दूसरी तरफ, दुबई के कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज अधिवेशन में सभी देशों ने वर्ष 2030 तक नवीनीकृत उर्जा क्षेत्र को तीनगुना तक बढ़ाने का संकल्प लिया था – पर वर्ष 2023 के रिकॉर्ड वृद्धि की दर से भी इस स्तर तक पहुँचना असंभव है।
नवीनीकृत उर्जा क्षेत्र के विस्तार का असर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर या फिर जीवाश्म ईंधन उद्योग पर कहीं भी नजर आता है। यह क्षेत्र पहले से अधिक फलफूल रहा है और इस क्षेत्र को सरकारी रियायतें भी खूब मिल रहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट, ग्लोबल स्टॉकटेक, के अनुसार तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित रखने के लिए जितने कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती की जरूरत है, वर्ष 2030 तक उसकी तुलना में वायुमंडल में इस गैस का उत्सर्जन 22 अरब टन अधिक होगा। जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के लिए दुनियाभर की सरकारों को त्वरित प्रभावी कार्यवाही करनी होगी, पर पूरी दुनिया इस समस्या के प्रति उदासीन और लापरवाह है। रिपोर्ट के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के लक्ष्य को पाना है तो सबसे पहले जीवाश्म ईंधनों का मोह त्यागना होगा और इनका उपयोग शीघ्र बंद करना पड़ेगा। पर, तमाम चेतावनियों के बाद भी जीवाश्म ईंधनों का केवल उपयोग ही नहीं बढ़ता जा रहा है बल्कि इस उद्योग को सरकारों से मिलने वाली सब्सिडी या रियायतें भी बढ़ती जा रही हैं।
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इन्टरनेशनल मोनेटरी फण्ड, आईएमऍफ़, की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन उद्योग को 7 खरब डॉलर की सब्सिडी दी गयी, यानि हरेक मिनट 1.3 करोड़ डॉलर की सब्सिडी। यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 7 प्रतिशत है और वैश्विक स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में खर्च की जाने वाली राशि से लगभग दुगुनी अधिक है। जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण से जितना नुकसान पूरी दुनिया को उठाना पड़ता है, उसमें से 80 प्रतिशत नुकसान इसी सब्सिडी की देन है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर जितनी सब्सिडी जीवाश्म ईंधन और कृषि क्षेत्र में दी जाती है उसमें से 12 ख़रब डॉलर राशि प्रतिवर्ष ऐसे कार्यों में खर्च की जाती है जिनसे तापमान वृद्धि और पर्यावरण विनाश को बढ़ावा मिलता है।
हम आज जिस चरम पूंजीवाद के दौर से गुजर रहे हैं, उसमें जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किसी गंभीर पहल की उम्मीद करना व्यर्थ है। पूंजीवाद पहले समस्याएं पैदा करता है और फिर उन्हीं समस्याओं से मुनाफ़ा कमाता है। तापमान वृद्धि में साल-दर-साल तेजी आ रही है, पर पूंजीवादी व्यवस्था ने इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर उर्जा और पवन ऊर्जा का एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। पूंजीवादी व्यवस्था ही अब प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देशों में सत्ता का निर्धारण करती है, इसीलिए दुनिया की तमाम सरकारें जलवायु परिवर्तन को रोकने की चर्चा करने के नाम पर हरेक वर्ष बस पिकनिक मनाती हैं, और फिर ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में निर्बाध गति से झोंकती हैं।
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