कोई सरकार सशक्त हो और यह तय हो कि वह लंबे समय तक चलेगी तो मीडिया की अनदेखी की जा सकती है, उसका कुशलता पूर्वक उपयोग इस्तेमाल किया जा सकता है और उसे वश में भी किया जा सकता है। लेकिन सत्ता से बाहर रहने वाले विपक्ष के लिए मीडिया को ‘खरीदने’ की क्षमता नहीं होती है। लेकिन उसकी आवाज सुनी जाए, इसके लिए मीडिया की मदद जरूरी होती है। मजबूत मीडिया विपक्ष को मजबूत बनाता है। इसके उलट, कमजोर मीडिया के कारण विपक्ष भी कमजोर होता है।
नरेंद्र मोदी को लोकसभा में अभी जिस तरह का बहुमत हासिल है, राजीव गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार के पास तब उससे ज्यादा बहुमत था। लेकिन वह ऐसे प्रतिकूल मीडिया के दौर से गुजरी जिसने सरकार की चूक और भ्रष्टाचार को उभारा। मीडिया के साथ न ‘खेल पाने’ की कीमत सरकार को चुकानी पड़ी।
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2020 में यह सब सोचा भी नहीं जा सकता। मीडिया, अधिकांशतः न केवल टीवी बल्कि अखबारों, पोर्टलों और कॉलम लिखने वालों को भी लगता है कि नरेंद्र मोदी का होना भारतीयों के लिए सबसे अच्छी बात है। और इसीलिए, सरकार की उपेक्षा, अपमान और गैरमित्रतापूर्ण कार्रवाई के बावजूद मीडिया घरानों ने सरकार की प्रशंसा और, ज्यादा खास बात यह है कि, विपक्ष को बौना साबित करने में एक से बढ़कर एक कोरस गाने की कला सीख ली है। सरकार पर वे दांत गड़ा तो सकते नहीं, तो सरकार की तरफ से थोड़ा-सा टहोका और आंख के इशारे पाते ही विपक्ष पर नियमित तौर पर हमला करते रहते हैं।
आश्चर्यजनक नहीं है कि इस प्रक्रिया में मीडिया घरानों ने अपने को ही कमजोर बना लिया है। जमीन, छूटों, संरक्षण और विज्ञापनों के जरिये मदद के लिए वे सब दिन सरकार पर निर्भर थे। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था डूबती गई, यह निर्भरता बढ़ती गई और मीडिया घरानों को पैसे जुटाने के प्रयास में स्पॉन्सरों को आकर्षित करने के लिए इवेन्ट्स, लीडरशिप समिट, कॉन्क्लेव आयोजित करने पर बाध्य होना पड़ा। लेकिन आत्मसमर्पण कर देने के लिए सरकार का ब्लैकमेल अब पूरा है- इन खास लोगों को आमंत्रित करो, इन खास लागों को कतई न बुलाओ, इन विषयों पर विचार-विमर्श करो, अन्यथा हम से मतलब नहीं। परिणाम स्वरूप, इन लोगों ने सरकार पर प्रभाव खो दिया है और सरकार को अब मध्यवर्गी, उत्कृष्टया स्वतंत्र मीडिया की जरूरत नहीं रह गई है। कमजोर मीडिया घरानों ने निरपवाद तौर पर विपक्ष को और कमजोर बना दिया है।
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जब भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा में सिर्फ दो सदस्य थे, तब भी उसे मीडिया कवरेज में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होती थी। पार्टी की प्रेस ब्रीफिंग में अच्छे-खासी संख्या में लोग होते थे; लाल कृष्ण आडवाणी की शिला पूजन और रथ यात्रा के भावनात्मक कार्यक्रम-जैसे पार्टी के अस्वाभाविक और काफी हद तक बेतुके अभियानों को गंभीरता से लिया गया और मीडिया में उन्हें जरूरतसे ज्यादा कवरेज दी गई। कभी-कभी सनसनीखेज और बेतुके हो जाने वाले (अब स्वर्गीय) अशोक सिंघल की डींगें सम्मान पूर्वक छपती थीं। अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के भाषणों की कवरेज प्रमुखता से होती थी। लोकसभा में महज दो सदस्य होने की वजह से उनका मजाक नहीं उड़ाया गया।
भाजपा का मीडिया मैनेजमेंट निश्चित तौर पर दृष्टांत-योग्य था। उन्होंने पत्रकारों, मालिकों के साथ- साथ डेस्क पर काम करने वाले उन लोगों को भी तैयार किया जिनका पार्टी के साथ सीधा रिश्ता नहीं था। उन्होंने पत्रकारों की हर तरह से मदद की, उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए वाहनों, रहने और खाने- पीने आदि की व्यवस्था की। पार्टी के प्रति सहानुभूति रखने वाले युवकों-युवतियों को नौकरी पाने में मदद की गई। भले ही वे खुद ‘बिल्कुल शाकाहारी’ और शराब की एक बूंद न छूते हों, पत्रकारों के लिए वे सब सुविधाएं जुटाते थे। अखबारों के संपादकों को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सदस्यों को संबोधित करने और उनके द्वारा आयोजित कोचिंग क्लासेज के लिए आमंत्रित किया जाता था।
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तब भी, आश्चर्यजनक ढंग से, 2014 में भाजपा सरकार के शुरुआती फैसलों में से एक मीडिया के प्रति अमित्रतापूर्ण लगा। इसने निर्णय किया कि विदेश यात्राओं के दौरान प्रधानमंत्री के साथ पत्रकार नहीं जाएंगे। वरिष्ठ संपादकों और विदेशी संवाददताओं तथा भाषायी एवं क्षेत्रीय मीडिया के बहुत ध्यान से चुने गए प्रतिनिधि प्रधानमंत्री के साथ विशेष विमान में जाते थे। वह परंपरा त्याग दी गई। स्वाभाविक तौर पर, प्रधानमंत्री के विमान में वरिष्ठ अधिकारियों और प्रधानमंत्री द्वारा की जाने वाली पारंपरिक प्रेस ब्रीफिंग रुक गई। लेकिन अपने प्रति निष्ठावान पत्रकारों को न्यूयार्क जाने और मेडिसन स्क्वैयर गार्डेन कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जरूरी सुविधाओं की सावधानी से मदद की गई। ब्रीफिंग बंद हो गई लेकिन कवरेज खत्म नहीं हुआ।
लगभग उसी समय पत्रकारों के मंत्रालयों में प्रवेश पर रोक लगा दी गई और दिल्ली में एक पत्रकार को तेल और प्राकृतिक गैस मंत्रालय से दस्तावेज हासिल करने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। यह पत्रकार तेल और पेट्रोलियम पर वर्षों से पेड पोर्टल चला रहा था और यह कोई आश्चर्य नहीं था जब पुलिस ने उसके कार्यालय में अधिसूचनाओं आदि की कॉपी पाईं। एक ऐसे पत्रकार को भी गिरफ्तार किया गया, हिरासत में रखा गया और धमकाया गया जिसने आरटीआई द्वारा पूछे गए सवालों के इन उत्तरों पर भरोसा किया कि आयुष मंत्रालय मुस्लिम योग शिक्षकों को नहीं रख रहा है। यह भी साफ हो गया कि प्रधानमंत्री और अन्य केंद्रीय मंत्री प्रेस कान्फ्रेंस को संबोधित नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करते भी हैं, तो वे सवालों, कम-से-कम असुविधाजनक सवालों, को नहीं लेंगे। यह स्पष्ट संकेत था कि सरकार एकतरफा संवाद को ही प्राथमिकता देगी।
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जैसा कि सब जानते हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले छह साल के दौरान कभी एक बार भी न तो कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की है या न अलिखित सवाल का सामना किया है। राजधानी दिल्ली में यह ‘अफवाह’ गर्म है कि प्रधानमंत्री के साथ पहले से तैयार इंटरव्यू भी सतर्कता के साथ सोच-समझकर आयोजित किए जाते हैं। खैर। देश अब गुफा में प्रधानमंत्री के ध्यान लगाने से लेकर उत्सवों पर अपनी मां से मिलने जाने के लगभग हर दौरे के लाइव टीवी कवरेज का आदी हो गया है। उनके चुनाव अभियानों, रोड-शो, सार्वजनिक भाषणों, योगासनों आदि को लाइव दिखाया जाता है। उनके हस्ताक्षर-युक्त लेख संपादकीय पन्नों पर छप चुके हैं। नमो ऐप, ई-गवर्नमेंट साइट और मासिक मन की बात कार्यक्रमों के बाद उन्हें लोगों को संबोधित करने के लिए मुख्यधारा की मीडिया की जरूरत भी नहीं रह गई है। हां, मीडिया हाउसों को उनकी जरूरत है।
दरअसल, 2014 के बाद मीडिया के सरकार के साथ संबंधों की नीति ही बदल गई है। निजी उद्योग मीडिया घरानों को सरपरस्ती देने में सब दिन चुन- बीछ करते रहे हैं जबकि सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) अधिक न्यायोचित प्रक्रिया अपनाते रहे हैं- छोटे अखबारों, भाषायी प्रेस, क्षेत्रीय टीवी चैनल और इसी तरह से क्रम में विज्ञापन का बंटवारा। सरकार गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस आदिपर अपनी जेब खोलती थी और सुनिश्चित करती थी कि पूरे देश में सभी को कुछ-न-कुछ हिस्सा मिल जाए। लेकिन 2014 के बाद सबसे प्रमुख योग्यता सरकार के प्रति बिना शक वफादारी हो गई। सरकारी विज्ञापन देने में अब वितरण वाली नीति नहीं अपनाई जाती। यह पूरी तरह उस ओर मोड़ दी जाने लगी है जिसे हम ‘गोदी मीडिया’ के नाम से जानते हैं।
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यह नीति सरकार के लिए खूबसूरती के साथ काम करती लगती है। प्रतिकूल प्रचार नगण्य है। सरकार को लेकर कठिन सवाल शायद ही पूछे जाते हैं। सरकार के पक्ष में ‘मूडऑफ द नेशन’ सर्वेक्षण लाने के लिए एक फोन कॉल ही काफी है। छह साल के बाद अब फोन कॉल भी जरूरी नहीं रह गया है। आयकर और प्रवर्तन निदेशालय सवालों के जवाब देने के लिए मीडिया प्रबंधकों और मालिकों को बराबर बुलाते रहते हैं। आत्मसमर्पण पूरी तरह है।
चूंकि स्वतंत्र मीडिया का अब अस्तित्व नहीं रह गया है, सरकार का राजनीतिक प्रतिरोध कमजोर हो गया है। विपक्ष क्या कहता है, उसके क्या सवाल हैं या वह क्या कर रहा है, इसका कोई मतलब नहीं है। मीडिया अब ट्रेनिंग ले चुका है। उसे नहीं कहा जाए तो भी वह या तो विपक्ष की अनदेखी करेगा या उनका माखौल उड़ाएगा। विडंबना यह है कि विपक्ष के लिए तो घंटी बज ही रही है, यह मीडिया के लिए भी बज रही है।
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