विचार

संस्थानों की गिरावट ऐसी विडंबना बन गई है जो असहनीय और विनाशकारी हो सकती है

किसानों को न तो सुना गया, न उनसे बात की गई। यह समझने की कोशिश भी नहीं की गई कि जमीन उनकी रोजी-रोजगार ही नहीं बल्कि उनकी पहचान भी है। लेकिन अफसोस, ऐसी जगह ही कहां थी जहां उनकी, जनाकांक्षा की बात हो पाती। यह सोचने वाली बात है कि यह हमारे संसद का नुकसान है या जनता का।

फोटो : Getty Images
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कोविड-19 की महामारी बड़ी कठोर रही। बिना किसी तैयारी और अनिश्चितता से भरे माहौल में इसके कारण हफ्तों तक कर्फ्यू-जैसा लॉकडाउन लगाया गया। इससे आई आर्थिक, भावनात्मक और शारीरिक मुसीबतों की दिल दहला देने वाली खबरों के बाद तमाम आशंकाओं के बीच धीरे-धीरे हमारे आसपास की दुनिया को खोला गया। अमूमन रोज ही कहीं-न-कहीं से किसी-न-किसी के दूसरी दुनिया में चले जाने का शोर धीरे-धीरे करीब आता गया और फिर एक समय ऐसा आया जब लगा कि मौत दरवाजे दस्तक दे रही है। जितनी जल्दी हमने नए तरीके से जीना सीखा, उतनी ही जल्दी पुराने ढर्रे पर लौट आए और सड़कों, शादियों और अंतिम संस्कार में उमड़ने लगे। जैसे कभी डराने वाले आंकड़े अब मायने ही नहीं रखते।

कोविड-19 चीन के साथ सीमा/वास्तविक नियंत्रण रेखा पर न तो खतरनाक झड़प को रोका जा सका और न ही जम्मू-कश्मीर में समय-समय पर आतंकवादियों के साथ होने वाली मुठभेड़ को। बिहार विधानसभा चुनाव के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश वगैरह के उपचुनाव भी नहीं रुके। बेशक अर्थव्यवस्था अस्थिर बनी हुई है और नौकरियां घट गई हैं, बड़े व्यापारिक घराने समृद्ध हैं और आंदोलनकारी किसानों की मानें, तो बड़े कारोबारियों की झोली में आगे भी काफी-कुछ आने वाला है। हम घर से दूर क्रिकेट खेलने लगे हैं। बॉलीवुड के सेट फिर सजने लगे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि अकेला संस्थान जो अपनी गति और जीवंतता खो चुका है, वह है संसद। राज्य विधान सभाएं तो छोटे सत्र और लंबे अवकाश की आदी रही हैं, अब संसद भी इसका अनुभव कर रही है। लोगों को यह लग रहा है कि लोकतंत्र ठहर-सा गया है। विडंबना है कि हम आज प्रतिनिधियों और सरकारों को चुन तो रहे हैं लेकिन नहीं जानते कि वे कैसे काम करते हैं और हमारे हितों की रक्षा के काम कर भी रहे हैं या नहीं।

बहस और चर्चा सहभागी लोकतंत्र के मूल हैं। संसद सत्र को नहीं होने देने या इसकी अवधि को कम करने और बहुमत का दुरुपयोग करते हुए किसी कानून को विचार के लिए स्थायी समितियों के पास भेजने की प्रक्रिया का पालन नहीं करने का दूरगामी असर हर वर्ग पर पड़ रहा है। इसकी वजह से उपजा असंतोष हमें सड़कों पर भी देखने को मिलता है और विभाजनकारी ताकतें इसका फायदा उठाकर सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाती हैं। ऐसे में संसद, यानी लोकतंत्र के मंदिर के प्रति लोगों का भरोसा घटता जाता है और संसद बस मूक गवाह बनकर रह जाती है।

संसद को छोड़कर लगभग सभी संवैधानिक संस्थाएं लोकतंत्र को बचाए रखने का काम कर रही हैं। शुरुआती हिचक के बाद न्यायालय ने भी आभासी व्यवस्था को कम-से-कम इस हद तक तो स्वीकार कर ही लिया है कि इससे जुड़े सभी नहीं तो काफी लोग अब इसे सामान्य मानने लगे हैं। लेकिन अयोध्या में भव्य राम मंदिर और रफी मार्ग पर लोकतंत्र के मंदिर की आधारशिला रखने के लिए आभासी को छोड़ भौतिक तरीके को अपनाने वाली सरकार मौजूदा संसद के राजनीतिक स्वास्थ्य को लेकर लापरवाह है।

पिछले सत्र के दौरान संक्रमण के कुछ मामलों की खबरें जरूर आईं लेकिन कामकाज भी हुआ। महज इस वजह से कि हम सांसदों को खतरे में डाले बिना सदन के संचालन के तरीके निकालना नहीं चाहते, संसद को ठप नहीं कर सकते। वह वाकई बड़ा दुखद दिन होगा जब हमें संसद और इसे आवाज तथा जीवन देने वाले सांसदों में से एक को चुनना पड़े।

युद्ध या बाहरी आपातकाल की तरह ही महामारी संकट से निपटने का काम भी सरकार का ही है। दुनिया में हर जगह हर पार्टी के चुने प्रतिनिधियों ने सरकार का हाथ मजबूत किया है। संकट से मुकाबले के लिए यही अपरिहार्य संस्थागत प्रतिक्रिया है जिसे थाली पीटने और मोमबत्ती जलाने से बदला नहीं जा सकता। इसके अलावा तमाम ऐसे मुद्दे थे जिन पर संसद में बहस होनी चाहिए थी; जैसे, राहत के क्या उपाय हों और कैसे पूरी व्यवस्था को काठ मार गया कि प्रवासियों को बिना भोजन-पानी सैकड़ों मील की दूरी पैदल नापने के लिए मजबूर होना पड़ा। महामारी और आपात स्थिति की बेदी पर जवाबदेही और लोगों को समझाने-बुझाने की निहायत जरूरी कोशिशों को कुर्बान कर दिया गया।

अब जबकि आपातकाल में हेबियस कॉर्पस को निलंबित करने के जबलपुर के एडीएम के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है, देश में न्यायिक मत यही है कि सामाजिक विरोध के आधार पर अधिकारों को मनमाने तरीके से हाशिये पर नहीं डाला जा सकता। इसी तरह महामारी की आड़ लेकर मतदाता-नागरिक के इस अधिकार का भी हनन नहीं किया जा सकता कि उसकी आवाज संसद में सुनाई दे।

हैरानी है कि सरकार को संसद में गिनती के विपक्षी सदस्यों का सामना करने में भी मुश्किल हो रही है। दरअसल, सरकार अपनी संसदीय जवाबदेही से पीछा छुड़ाने के लिए महामारी का इस्तेमाल कर रही है। जिस तरह कोरोना वायरस के संक्रमण से मुक्त हो चुके व्यक्ति को बाद में भी जटिलताओं को झेलना पड़ता है और उसके तमाम अंग प्रभावित हो जाते हैं, वैसे ही संसदीय प्रक्रिया का पालन नहीं करने से भी इस संस्था के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर पड़ेगा। उसकी कीमत भी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव से कहीं ज्यादा होगी और हो सकता है, हम एक दशक पीछे चले जाएं।

लोकतंत्र किसी देश पर शासन का आसान नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ तरीका है। यह महज इसलिए सबसे अच्छा नहीं कि दूसरों के विचारों को कुचलने के मानवीय स्वभाव, या यूं कहें अहंकार, पर अंकुश लगाता है बल्कि इसलिए कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अंतर्निहित मुश्किलें सुनिश्चित करती हैं कि सर्वश्रेष्ठ ही निकलकर आए। प्लेटो और अरस्तू जैसे महान दार्शनिकों से लेकर आज अमर्त्य सेन-जैसे प्रबुद्ध लोगों ने हमें विचार-विमर्श, बहस, मंथन, तर्क की कीमत बताई है। बेशक ब्रिटेन और अमेरिका का लोकतंत्र हमसे पुराना है लेकिन हमें उनसे सीखने की जरूरत नहीं क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल यानी ज्ञान पाने का बौद्धिक तरीका भारत की आत्मा में गहरे पैठा है।

संसद सत्र के नहीं होने का एक असर यह भी रहा कि हम पाकिस्तान पर 1971 की जीत और बांग्लादेश के जन्म की यादों को भी हर साल की तरह जी नहीं पाए। हम अपने सैनिकों के प्रति दिल की गहराइयों से कृतज्ञ हैं जिन्होंने इंदिरा गांधी के दूरदर्शी नेतृत्व में जनरल मानेक शा की योजनाओं को बड़े ही साहसके साथ अंजाम दिया। हमने युद्ध स्मारक पर शहीदों को सलाम जरूर किया लेकिन इस मौके पर संसद में किसी कार्यक्रम की बात ही अलग होती। यहां इंदिरा गांधी को उनकी सूझबूझ-बहादुरी के लिए याद किया जाता। भारत के पड़ोस के राजनीतिक भूगोल को बदल देने वाले उनके ऐतिहासिक फैसले की 50वीं सालगिरह को संसद के इतिहास में एक अक्षम्य दृष्टिहीनता के लिए याद किया जाएगा।

ऐसे नुकसान का अहसास सर्दियों में गिरते पारे के बीच किसानों के विरोध की दुखदायी तस्वीर से बढ़ जाता है। उनकी हाड़तोड़ मेहनत हमारा पेट भरती है लेकिन हम उनकी तकलीफ सुनने को तैयार नहीं। उनकी चिंता अपने रोजी- रोजगार के लिए ही नहीं बल्कि जमीन के साथ उनके खास जुड़ाव के लिए भी है। यह जमीन उनकी पहचान और उससां स्कृतिक जुड़ाव को दिखाती है जो ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ जैसे गीतों में प्रतिध्वनित होता है। आधुनिकीकरण अपरिहार्य है जैसे वह समाज और जीवन के हर अंग के लिए है। लेकिन यह स्वीकार्य गति और तरीके से होना चाहिए। दिक्कत यह है कि न तो उन्हें सुना गया, न उनसे बात की गई। ऐसी जगह ही कहां थी जहां जनाकांक्षा की बात हो पाती। यह सोचने वाली बात है कि यह हमारे संसद का नुकसान है या जनता का। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी चार दशक बाद 1977 के आंतरिक आपातकाल लगाए जाने की संवैधानिकता को जांचने-परखने लगता है।

समकालीन भारत में संस्थानों की गिरावटएक ऐसी विडंबना बन गई है जो असहनीय और विनाशकारी हो सकती है। संसद ने हमें पहले भी मुश्किल समय से निकलने की राह दिखाई है और आगे भी ऐसा ही करेगी। लेकिन इससे पहले हमें समवेत स्वर में यह कहना होगा कि, ‘डॉक्टर, पहले अपना इलाज तो करो।’

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