गुरिल्ला या छापामार युद्ध सबसे घातक होता है, इसमें दुश्मन दिखता नहीं पर मृत्यु दर सबसे अधिक होती है। ऐसे युद्ध अधिकतर ऐसे संगठनों का हथियार है, जिन्हें दुनिया और सभी समाज आतंकवादी कहता है। पर, आश्चर्य यह है कि इसी तरह का युद्ध पूंजीवाद पूरे समाज से लड़ता है, इसका असर भी असली युद्ध से ज्यादा घातक और दीर्घकालीन होता है – पर सत्ता और जनता की नज़रों में पूंजीवाद पहले से अधिक महान बन जाता है। इसी विषय पर दो पत्रकारों – क्लेयर प्रोवोस्ट और मैट केनार्ड ने एक पुस्तक लिखी है, “साइलेंट कूप: हाउ कोर्पोरेशंस ओवरथ्रेव डेमोक्रेसी” (Silent Coup: How Corporations Overthrew Democracy by Claire Provost & Matt Kennard, published by Bloomsbury)। इसके अनुसार पिछले 40 वर्षों के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों का दखल और हिस्सा बेतहाशा बढ़ा है, और सामान्य जनता पहले से अधिक बेहाल हो गयी है।
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1980 के दशक में पूंजीवाद ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ विकास और समृद्धि के नए युग के जो सपने दिखाए थे, पूरी तरह ध्वस्त हो गए। वर्ष 1979 से 1990 तक ब्रिटेन की प्रधानमंत्री रहीं मार्गरेट थैचर ने 1970 के दशक में ही लोकप्रिय पूंजीवाद (popular capitalism) के सिद्धांत को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था, जिसके अनुसार पूंजीवाद ही सामाजिक समृद्धि, आजादी, मानवीय गरिमा और ईमानदार समाज की गारंटी है। लगभग इसी दौर में अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन भी पूंजीवाद के नए सिद्धांत गढ़ रहे थे। रोनाल्ड रीगन अमेरिका के 40वें राष्ट्रपति थे, और उनका कार्यकाल वर्ष 1981 से 1989 तक रहा। रीगन ने ही सबसे पहले नई आर्थिक समृद्धि के लिए पूंजीपतियों पर लगाए जाने वाले करों में भारी छूट की वकालत की थी। थैचर-रीगन दोनों ही अपने समय में दुनिया के सबसे प्रभावशाली नेता थे, और उनकी हरेक नीतियां दुनियाभर के देशों में मिसाल की तरह ली जाती थीं। ऐसी नीतियां यूरोप और एशिया के कुछ देशों में लोकप्रिय होने लगीं और 1980 के दशक में सामाजिक समृद्धि के एकमात्र तरीके के तौर पर पूंजीवाद को देखा जाने लगा।
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पूंजीवाद के समर्थन में तमाम देशों की सत्ता खड़ी होने लगी, और फिर वर्ष 1989 में रोनाल्ड रीगन की अगुवाई में पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए एक समझौता हुआ, जिसे वाशिंगटन समझौता (Washington Consensus, 1989) कहा जाता है। इस समझौते के साथ ही इसे इन्टरनेशनल मोनेटरी फण्ड और विश्व बैंक की नीतियों में शामिल करने की कवायद शुरू की गयी, जिससे पूरी दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था में इससे संबंधित संरचनात्मक बदलाव के लिए दबाव डाला जा सके। पूंजीवाद ने यह सुनिश्चित कर लिया कि तमाम देशों, चाहे वे समृद्ध हों या फिर गरीब, आर्थिक नीतियों में एक ही प्रकार के बदलाव लागू किए जाएं। इन नीतियों में सरकारी उपक्रमों और उद्योगों को पूंजीवादियों के हाथों में सौंपना, बाजार का उदारीकरण, कारपोरेट घरानों का विनियमन और उन्हें टैक्स में छूट के साथ ही आर्थिक मामलों में सरकार का कम दखल और पूंजीपतियों के ज्यादा दखल जैसी नीतियां शामिल थीं।
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अमीर देशों ने तो अपनी आर्थिक नीतियों में इन नीतियों को तत्काल लागू कर लिया और गरीब देशों को आर्थिक मदद या फिर लोन के नाम पर शर्तें थोपकर इन्टरनेशनल मोनेटरी फण्ड ने लागू कराया। इन नीतियों को वैश्विक स्तर पर लागू करने के बाद पूंजीवाद ने सत्ता और देशों की अर्थव्यवस्था को निगलना शुरू किया। एक समय पूरी दुनिया को आर्थिक संकट से उबारने का दावा करने वाले पूंजीवाद ने दुनिया की पूरी राजनीति और अर्थव्यवस्था को को ही अपने अधिकार में ले लिया। इस पुस्तक के अनुसार पूंजीवाद ने पूरी तरह से सोच-समझकर और एक रणनीति के तहत अपनी हरेक चाल चली, हरेक कदम पर उन्हें सफलता मिली, हरेक देश की सत्ता ने इन नीतियों में सहयोग दिया और अब पूंजीवाद की वैश्विक स्तर पर असली शासक है। इस पुस्तक में इन्हीं कदमों को खामोश विद्रोह कहा गया है, सामान्य भाषा में इसे जनता के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध भी कहा जा सकता है क्योंकि प्रहार करने वाला सामने से नहीं बल्कि छुपकर हमें मार रहा है।
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पूंजीवाद ने तो अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां और साम्राज्य खड़ा कर वैश्विक स्तर पर संसाधनों के बंटवारे, देशों की सीमाओं के संचालन, संप्रभुता, न्याय की परिभाषाओं और किसे सुरक्षित रहना है और किसे मारना है, जैसे विषयों पर भी एकाधिकार कर लिया है। पूंजीवाद को कोई दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं है, जाहिर है दुनिया भर में सरकारें मीडिया, अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार को कुचलने वाले कानूनों को बढ़ावा देने लगी हैं। पुस्तक के अनुसार दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के लिए पूंजीवाद की चार नीतियाँ – अंतरराष्ट्रीय न्याय व्यवस्था, विकास तंत्र और राहत व्यवस्था में शामिल होना; कारपोरेट घरानों को सीमाओं और संप्रभुता से आजादी; कारपोरेट घरानों को अपनी सेना और कामगारों की फ़ौज खड़ी करने की आजादी; और वैश्विक अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों की सक्रिय भागीदारी– सबसे अधिक कारगर साबित हुई है।
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कारपोरेट घरानों के विकास के साथ ही दुनियाभर से प्रजातंत्र का खात्मा होने लगा। एक तरफ प्रजातंत्र के नाम पर निरंकुश सत्ता, जिसे जनता ने नहीं बल्कि पूंजीवाद ने गद्दी पर बैठाया है तो दूसरी तरफ ऐसी सत्ता में पूंजीवाद स्वयं निरंकुश और किसी भी नियंत्रण से परे है। सत्ता और पूंजीवाद की मिलीभगत तो भारत में सबसे स्पष्ट है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी जी ने गौतम अडानी और मुकेश अंबानी की कानूनी-गैरकानूनी खूब मदद की। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी जी ने अडानी के हवाई जहाज का खूब उपयोग किया था। मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाले टीवी समाचार चैनलों ने मोदी जी के समर्थन में खूब माहौल तैयार किया और मोदी जी सत्ता पर काबिज हो गए। सत्ता पर काबिज होते ही अडानी और अंबानी की संपत्तियों में कई गुना इजाफा होने लगा। सत्ता और पूंजीवाद का घालमेल देश में ऐसा है कि पूंजीपतियों पर उंगली उठाने वाले हरेक व्यक्ति पर पूंजीपतियों की तरफ से प्रहार हो या ना हो, सत्ता की तरफ से जरूर होता है। पूंजीपतियों द्वारा की जाने वाले धांधलियों की जानकारी देने वाली रिपोर्टों के प्रकाशित होते ही पूरा मंत्रिमंडल बेशर्मी से पूंजीपतियों के समर्थन में खड़ा हो जाता है।
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कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने वर्ष 2014 के बाद से अडानी की संपत्ति में राकेट जैसे उछाल और नरेंद्र मोदी द्वारा अडानी के प्राइवेट हवाई जहाज द्वारा वर्ष 2014 के चुनावों में दौरों पर प्रश्न उठाये थे, तब तत्कालीन क़ानून बडबोले मंत्री किरण रिजीजू ने जोर देकर कहा था कि अडानी के निजी हवाई जहाज का उपयोग नरेंद्र मोदी ने मुफ्त में नहीं किया था, बल्कि इन यात्राओं के पैसे चुकाए थे। वायुयान किराए पर लिए गया, जाहिर है इसे एयर-टैक्सी जैसा इस्तेमाल किया गया। किरण रिजीजू ने यह कभी नहीं बताया कि क्या 2013-2014 में अडानी के पास एयर-टैक्सी का कोई लाइसेंस था भी या नहीं। पूंजीवाद और सत्ता के गठबंधन का यह महज एक उदाहरण है।
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प्रोवोस्ट और केनार्ड ने अपनी पुस्तक में कहा है कि निवेशक और व्यापार के बीच वैध-अवैध सांठगांठ के बीच झूलती अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व की शक्ति और अधिकारों को हड़प लिया है। बड़े कॉर्पोरेट घराने इस कदर शक्तिशाली हो चुके हैं कि उनके आर्थिक मुनाफे के लिए अनेक देशों को अपनी संप्रभुता का सौदा करना पड़ रहा है। विपदाओं और आपदाओं के नाम पर भेजी जाने वाली अन्तराष्ट्रीय सहायता पर पिछले कुछ दशकों से पूंजीपतियों का वर्चस्व है, पर इसका उदाहरण दुनिया के सामने कोविड 19 महामारी के समय आया जब इसके टीके का गरीब देशों में वितरण बिल गेट्स जैसे कुछ पूंजीपतियों के हाथों में दिया गया। गरीब देशों के लिए निर्धारित टीके इन देशों तक पहुंचने के बदले अमीर देशों के बाजारों में महंगी कीमतों पर बेचे गए। जी8 देशों के समूह ने अफ्रीका में गरीबी और कुपोषण कम करने के उद्देश्य से एक नई परियोजना शुरू की है। इस परियोजना में इन देशों के तमाम उद्योगपति शामिल हैं और इस परियोजना का हवाला देकर अपने देशों में कॉर्पोरेट घरानों पर लागू होने वाले कृषि से संबंधित करों की दर कम करने और कृषि कानूनों में संशोधन के लिए जोर दे रहे हैं। इन कदमों से अफ्रीका में पोषण और गरीबी पर कोई फर्क पड़े या ना पड़े, पर एग्री-बिज़नस से जुड़े पूंजीपतियों का मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाएगा। ऐसी घोषणाओं से जहां एक ओर पूंजीपतियों की छवि जनता के बीच मसीहा की बनती हैं तो दूसरी ओर उनका मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाता है। पूंजीवाद जनता को पूरी तरह लूटता है, पर जनता को भरोसा दिलाता है कि उसकी सांसें केवल पूंजीवाद की वजह से चल रही हैं, ऐसी कुशलता तो दुनिया के सबसे प्रभावी गुरिल्ला युद्ध विशेषज्ञों में भी नहीं होगी।
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