हाल में ही चर्चित टीवी शो, कौन बनेगा करोड़पति में हॉट सीट पर उत्तर प्रदेश के किसी गाँव का एक युवा किसान बैठा था। कार्यक्रम के दौरान उसने अपने परिवार के आर्थिक हालात का वर्णन भी किया था। वह युवा किसान शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी रोजगार नहीं मिलने के कारण खेती में अपने पिता का सहयोग करता है। उसके पिता के पास दो बीघा खुद की कृषि भूमि है और इसके अतिरिक्त आसपास के कुछ खेतों में बंटाई पर भी खेती करते हैं। इन सबके बाद भी उस परिवार की खेती से जुड़ी कुल वार्षिक आय महज 45,000 रुपये के लगभग है, यानी हरेक महीने की आमदनी पूरे परिवार की 4000 रुपये से भी कम है। यह केवल एक खेती से जुड़े परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि देश के करोड़ों किसानों की है।
दूसरी तरफ हमारे प्रधानमंत्री जी हमेशा किसानों की आय बढ़ाने की और उनके जीवन स्तर को सुधारने की बात करते हैं। हमारी वित्त मंत्री भी हरेक बजट पेश करने के बाद बड़े गर्व से ऐलान करती हैं कि इससे किसानों, महिलाओं और युवाओं का जीवनस्तर बेहतर होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से भी किसानों के जीवन स्तर में सुधार के दावे किए थे। हरेक बार जब लोक सभा के चुनावों के नतीजे आते हैं, तब यही बताया जाता है कि सबसे अधिक सांसद खेती से जुड़े हैं, पर दिक्कत यह है कि किसानों के जीवन स्तर और खेती से जुड़ी समस्याओं के बारे में कोई नहीं जानता है। मोदी सरकार ने किसानों की परेशानियों को कम करने के नाम पर जितनी भी योजनाएं बनाई हैं उनसे बाजार को फायदा हो रहा है, ग्राहकों को फायदा हो रहा है, कृषि उत्पाद से जुड़े व्यवसायियों को फायदा हो रहा है और कृषि आधारित उद्योगों को फायदा हो रहा है– बस केवल किसानों को ही कोई फायदा नहीं हो रहा है, छोटे और सीमान्त किसानों को तो घाटा हो रहा है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की भागीदारी कम हो रही है, कुल रोजगार में कृषि क्षेत्र की भागीदारी भी कम हो रही है।
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किसानों के बारे में मोदी सरकार की सक्रियता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2016 में बड़े तामझाम से वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दुगना करने का झांसा दिया गया था, और अब वर्ष 2030 तक ग्रामीण आबादी की आमदनी को महज 50 प्रतिशत तक बढ़ाने के दावे किए जा रहे हैं। मोदी सरकार किसानों की स्थिति सुधारने के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि व्यवसाय का विस्तार कर रही है और गाँव का औद्योगीकरण कर रही है। सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि देश के 5 प्रतिशत से अधिक किसानों की कृषि आमदनी शून्य है, 71 प्रतिशत किसानों की कृषि आमदनी 5000 रुपये से कम है और केवल 13 प्रतिशत किसानों की मासिक कृषि आमदनी 10000 रुपये या इससे अधिक है।
कम होती आमदनी और खेती में लागत मूल्य में बढ़ोतरी के कारण किसान कर्ज के बोझ से दबते जा रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में कम और विषम विकल्प के कारण अधिकतर किसानों ने साहूकारों या निजी संस्थाओं से कर्ज लिया है। वर्ष 2003 में 48.6 प्रतिशत किसान कर्ज की चपेट में थे, जबकि वर्ष 2019 में इनकी संख्या बढ़कर 50.2 प्रतिशत तक पहुँच गई। कर्ज में बढ़ोतरी और घटते मुनाफे के कारण किसान हमेशा मानसिक तनाव में रहते हैं और इनमें आत्महत्या की दर बढ़ती जा रही है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2022 में कुल 11290 किसानों या कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की– लगभग हरेक घंटे में एक आत्महत्या। यह संख्या वर्ष 2021 की तुलना में 3.7 प्रतिशत और वर्ष 2020 की तुलना में 5.7 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 2022 में किसानों से अधिक कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की, कुल आत्महत्या के मामलों में कृषि मजदूरों की संख्या 53 प्रतिशत थी।
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वर्ष 2021 में अलीगढ में प्रधानमंत्री ने कहा था कि उन्हें छोटे किसानों की बड़ी फिक्र है और इन किसानों के लिए उन्होंने अनेक कदम उठाये हैं। इस मामले में अपने आप को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के समकक्ष खड़ा कर लिया। मोदी जी ने कहा था देश के 10 में से 8 किसान के पास 2 हेक्टेयर से छोटा खेत है और इन किसानों के लिए उन्होंने लगातार काम किया है। इसके ठीक बाद एक सरकारी रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि किसानों की खेती से दैनिक आय मनरेगा के मजदूरों से भी कई गुना कम है। यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि ग्रामीण परिवेश में अबतक मनरेगा के मजदूरों को आर्थिक तौर पर सबसे निचले दर्जे का माना जाता था। पर हमारे बडबोले प्रधानमंत्री के राज में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खेती करने वाले किसान पहुँच गए हैं। वर्ष 2021 में भारत सरकार के नेशनल स्टैटिस्टिकल आर्गेनाईजेशन द्वारा जुलाई 2018 से जून 2019 तक किसानों का विस्तृत अध्ययन कर सिचुएशन असेसमेंट रिपोर्ट को प्रकाशित किया गया था, इसके अनुसार खेती से जुड़े किसानों की कृषि उत्पादन के सन्दर्भ में आय महज 27 रुपये प्रतिदिन है, जबकि मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों को 180 रुपये रोज मिलते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की 42.5 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर करती है, पर अब यह आबादी खेती से नहीं बल्कि मजदूरी कर या फिर नौकरी कर अपना पेट भर रही है। हमारे देश में किसान उसे माना जाता है जो अपने खेत में प्रतिवर्ष 4000 रुपये तक की फसल उगाता है, या फिर फल और सब्जी बेचता है, या मवेशियों से संबंधित कारोबार करता है। यह परिभाषा ही साबित करती है कि समाज में इससे नीचे के आर्थिक पायदान पर और कोई नहीं होगा। रिपोर्ट के अनुसार देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल 9.31 करोड़ परिवार खेतिहर के तौर पर परिभाषित हैं, इनमें से महज 38 प्रतिशत की आय कृषि उत्पादन पर आधारित है जबकि इससे अधिक संख्या में यानि 40 प्रतिशत की आय का साधन रोजगार या नौकरी है। जाहिर है, खेती एक ऐसा पेशा है जिसमें आय है ही नहीं। इससे जुड़ने वाले लोग भी यह पेशा छोड़ते जा रहे हैं और जब मनरेगा में भी काम नहीं मिलता तभी खेतों की तरफ कदम बढ़ाते हैं। वर्ष 2020 में जब लॉकडाउन के कारण शहरों से श्रमिकों और कामगारों का पलायन अपने गाँव की तरफ हो गया था तब पहली बार खेतों में काम करने वालों की संख्या बढ़ी थी। कृषि उत्पादन से अपना गुजारा करने वालों की संख्या वर्ष 2012-2013 में 48 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 तक घट कर 38 प्रतिशत ही रह गई।
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इन आंकड़ों में भी अर्ध्यसत्य जाहिर होता है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012-2013 की तुलना में वर्ष 2019 तक किसानों की आय में 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है, पर इस आकलन में मुद्रास्फीति की दर को गायब कर दिया गया है। मुद्रास्फीति की दर का आकलन करने के बाद आय में वृद्धि महज 21 प्रतिशत ही रह जाती है। इस सरकार के दौर में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था किस तरह पिछड़ रही है, इसका उदाहरण है – वर्ष 2012-2013 से वर्ष 2019 के बीच कृषि क्षेत्र में महज 16 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी पर इसी अवधि में देश का सकल घरेलू उत्पाद 52 प्रतिशत बढ़ गया। किसानों द्वारा लिए गए कर्ज में 16.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी।
समाज में भी किसानों की चर्चा उनकी आत्महत्याओं या फिर आंदोलन के समय ही उठती है। दरअसल उपभोक्ता और पूंजीवादी बाजार ने किसानों और समाज के बीच गहरी खाई पैदा कर दी है। एक दौर था जब अनाज दुकानों में बोरियों में रखा जाता था और इसे खरीदने वाले अनाज के साथ ही किसानों के बारे में भी सोचते थे। आज का दौर अनाज का नहीं है, बल्कि पैकेटबंद सामानों का है। इन पैकेटबंद सामानों को हम वैसे ही खरीदते हैं, जिस तरह किसी औद्योगिक उत्पाद को खरीदते हैं और इनके उपभोग के समय ध्यान उद्योगों का रहता है, ना कि खेतों का। हरित क्रान्ति के बाद से भले ही कुपोषण की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही हो, पर्यावरण का संकट गहरा होता जा रहा हो, भूजल लगातार और गहराई में जा रहा हो, पर अनाज से संबंधित उत्पादों की कमी ख़त्म हो गई है। पहले जो अकाल का डर था वह मस्तिष्क से ओझल हो चुका है और इसके साथ ही किसान भी समाज के हाशिए पर पहुँच गए।
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सरकारें भी पिछले कुछ वर्षों से किसानों की समस्याओं के प्रति उदासीन हो चुकी हैं। आज के दौर में हालत यह है कि खेती को भी पूंजीवाद के चश्में से देखा जा रहा है, और एक उद्योग की तरह चलाने की कोशिश की जा रही है। खेती से जुड़ी सबसे बड़ी हकीकत यह है कि बहुत बड़े पैमाने पर किए जाने श्रम में कुछ भी निश्चित नहीं है। इसमें किसान का श्रम और पूंजी ही बस निश्चित होती है, आजकल बिजली और पानी भी अधिकतर जगहों पर उपलब्ध है– इतने के बाद भी एक बुरे मौसम की मार सबकुछ ख़त्म कर देती है। खेती एक ऐसा काम है जहां सारे श्रम, पूंजी और रखवाली के बाद भी उपज या पूंजीवादी शब्दावली में उत्पाद की कोई गारंटी नहीं है। फिर भी करोड़ों किसानों का जीवट ही है जो उन्हें खेती करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यदि सबकुछ ठीक रहा और अनुमान के मुताबिक़ उपज भी रही तब भी लागत मूल्य भी बाजार से वापस होगा भी या नहीं, इसका पता नहीं होता।
जाहिर है खेती अब एक ऐसी गतिविधि बन गयी है जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आर्थिक बोझ बन गयी है, अब यह कोई आय का साधन नहीं रह गई है। दुगुनी आय का सपना दिखा कर सरकार ने उनको भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया है जिनकी मेहनत से हमारी थाली में खाना सजता है।
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