इस वाले लॉकडाउन के अब सात दिन बचे हैं। मेरे खयाल से अब लॉकडाउन और कोरोना से होने वाले लाभ-हानि का आंशिक विवेचन का समय आ चुका है। गरीबों पर लॉकडाउन में क्या बीती, मजदूरों-किसानों, पटरी पर सामान बेचने वालों, छोटे व्यापारियों, सड़क के रास्ते हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचने का हौसला रखने वालों के साथ क्या बीती, ये सब मामूली बातें हैं। ये इस आकलन में नहीं आतीं!
मोदीजी का कहना है, 'न्यू इंडिया' बनाना है, तो इनकी तरफ से मुंह-आंख सब मोड़ना है, योग करके खुश रहना है! आंखें मूंदकर उनके पीछे-पीछे चलना है। सवाल पूछने की गंदी आदत से छुटकारा पाना है। भक्तिभाव बढ़ाना है। मोदी-मोदी करना है। ये वोटर हैं और अगला चुनाव अगर होना है तो अभी वह बहुत दूर है। हां बड़े-बड़े पूंजीपतियों, मॉल वालों, फिल्म वालों का कितना नुकसान हुआ, यह राष्ट्रीय चिंता और चिंतन का विषय है। यही बनाएंगे- 'एमडीएच वाला असली न्यू इंडिया'। ये वोटर तो हिंदुत्व के खिलौने हैं। जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, इनसे खेल लेंगे, बेच देंगे, तोड़ देंगे!
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हां, इस देश के प्रधानमंत्री के लाभ-नुकसान पर विचार करना आवश्यक है। इस बार तो हम उन्हें हुए नुकसान का आकलन भी सम्यक रूप से नहीं कर पाएंगे, तो उन्हें हुए लाभ की बात क्या करें! सबसे पहले दिन में 18-18 घंटे काम करने की उनकी क्षमता का इस बीच सदुपयोग नहीं हो सका है और न अभी इसकी संभावना है। इसका हमें भारी खेद होना चाहिए। सच्चे 'देशभक्त' की यह सबसे बड़ी पहचान है और मैं देशभक्त हूं, इसलिए मुझे केवल खेद नहीं हुआ बल्कि गहरा सदमा भी लगा।इस सदमे को मैंं झेल कैसे गया, यह मैं ही जानता हूं। मोदी मंत्र ने ही इसे सहनीय बनाया है!
उनका और देश का दुर्भाग्य कि इस बीच सौ से भी अधिक दिनों से वह विदेश यात्रा पर नहीं जा सके हैं। यह अपने आप में इतना बड़ा और इतना शोचनीय रिकार्ड है कि वह स्वयं भी इस पर चकित हैं और अपने भाग्य को कोस रहे हैं। कोरोना की समस्या भारत तक सीमित होती तो चिंता की कोई बात नहीं थी, मगर यूरोप-अमेरिका की हालत खस्ता हो गई, यह अधिक दुखद है। गर्मियां आ चुकी हैं, लपक कर विदेश यात्राएं करने का मौसम आ चुका है और वह इस देश में बंदी बने बैठे हैं!
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यह मौसम, यह कोरोना, देश-भाषण यात्रा के लिए भी बेहद अनुपयुक्त है, वरना यहां स्वागत-सत्कार से कुछ भरपाई हो जाती। विधि की विडंबना देखिये कि उन्हें हमारे बीच रहना पड़ रहा है। यह कलेजा चीर देने वाली बात है। विदेश जाने की संभावना अभी दूर दूर तक नजर नहीं आ रही।यूरोप-अमेरिका मंगल ग्रह बन चुके हैं। एसी में उनकी सांसें घुट रही हैं। उधर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना के चलते एसी से भी दूर रहो। बड़ी आफत है! उनके सामने ऐसी विपत्ति कभी नहीं आई।उनकी इस विवशता को कोई संवेदनशील व्यक्ति तो देख भी नहीं सकता और मैं वह हतभाग्य हूं कि यह सब देख-सह रहा हूं। धरती फटती भी नहीं कि मैं उसमें समा जाऊं!
आप्रवासी भारतीय जो वहां मोदीजी को सुनने-देखने के लिए तरसा करते थे, अब बेचारे वहां मौत के खतरे से जूझ रहे हैं। इधर हृदय उनके पास जाने को आकुल-व्याकुल है और उधर नो एंट्री का बोर्ड लगा है! वो भी क्या दिन थे कि उन्हें सुनने के लिए बड़े-बड़े स्टेडियम भर जाते थे। आएंगे वे अच्छे दिन भी। कोरोना का सर्वनाश हो। इसने विशेषकर भारत-अमेरिका संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए एक बार वहां जाकर 'अगली बार, ट्रंप सरकार' का नारा लगाने की दिली इच्छा से उन्हें वंचित कर दिया है। एक नुकसान यह भी हुआ है कि विदेश यात्राएं करके आपसी संबंधों को हानि पहुंचाने की संभावनाओं पर भी इधर पानी फिर चुका है!
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लंबे लॉकडाउन से प्रधानमंत्री की भाषण देने की क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा होगा शायद।राष्ट्र के नाम संदेश देने और मन की बात कहने से उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। यह कहना छोटे मुंह बड़़ी बात होगी कि अधसर मिले तो मैं भी संदेश-फंदेश देने जैसे काम कर सकता हूं मगर भाषण देना- वह भी मोदीजी जैसा- असंभव है। चार-पांच महीने तक उनकी इस क्षमता का समुचित उपयोग नहीं हो पाया तो पता नहीं उनका, देश का और विदेश का क्या हो! एक डर यह है कि इतने लंबे अरसे तक भाषण न दे पाने का असर उनके फिटनेस पर भी पड़ सकता है। उम्मीद है कि वह आईने के सामने भाषण देकर इसकी क्षतिपूर्ति कर लेते होंगे!
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