सन् 1975 में आपातकाल लागू होने के 43 वर्ष पूरे होने के अवसर पर बीजेपी ने आपातकाल के विरोध में कई बातें कहीं। अखबारों में आधे पृष्ठ के विज्ञापन जारी किए गए और मोदी ने कहा कि आपातकाल लागू करने का उद्धेश्य एक परिवार की सत्ता बचाना था। यह दावा भी किया गया कि बीजेपी का पितृ संगठन आरएसएस और उसके पूर्व अवतार जनसंघ ने पूरी हिम्मत और ताकत से आपातकाल के विरूद्ध संघर्ष किया था।
आश्चर्यजनक रूप से भारतीय राजनीति के कई अन्य किरदारों, जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, असंतुष्ट कांग्रेसजन और कई तरह के समाजवादी शामिल थे, ने अपनी भूमिका के बारे में तनिक भी शोर नहीं मचाया। यह इस तथ्य के बावजूद कि इन सबने भी आपातकाल के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। हालांकि कांग्रेस ने कभी खुलकर आपातकाल लगाने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना नहीं की, लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि सन् 1978 में यवतमाल में अपने एक भाषण में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों पर खेद व्यक्त किया था। अरुण जेटली के अतिरिक्त, कई अन्य बीजेपी नेताओं और अन्य पार्टियों के पदाधिकारियों ने भी इमरजेंसी के दौरान किए गए अत्याचारों की तुलना, हिटलर की फासीवादी सरकार द्वारा किए गए जुल्मों से की।
यह सही है कि आपातकाल के दौरान प्रजातांत्रिक अधिकारों का गला घोंटा गया। बस केवल यह ही आपातकाल और हिटलर की सरकार के बीच समान था। हिटलर की सरकार भावनाएं भड़काकर, सड़कों पर लड़ने वाले गुंडों की फौज से यहूदियों - जो कि नस्लीय अल्पसंख्यक थे - के विरूद्ध हिंसा करती थी। इसके अतिरिक्त, हिटलर की सरकार ने बड़े औद्योगिक घरानों के हितों की रक्षा की और श्रमिक वर्ग के अधिकारों को कुचला। उसने जर्मनी के सुनहरे अतीत का मिथक गढ़ा और अतिराष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया। उसकी विदेश नीति दादागिरी पर आधारित थी, जिसके कारण जर्मनी के अपने पड़ोसी देशों से संबंध बहुत खट्टे हो गए थे। आईंस्टाइन जैसे व्यक्ति जर्मनी छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। हिटलर की नीति का केन्द्रीय और मुख्य तत्व था अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना। आपातकाल के दौरान जो ज्यादतियां हुईं, उनके निशाने पर अल्पसंख्यक नहीं थे। यह सही है कि इस दौरान फुटपाथ पर व्यापार करने वालों को बहुत जुल्म झेलने पड़े और गरीबों की बस्तियां उजाड़ दी गईं। इससे मुसलमानों सहित सभी गरीब तबके प्रभावित हुए, परंतु आपातकाल किसी भी स्थिति में एक वर्ग विशेष के विरूद्ध ज्यादतियों के लिए याद नहीं किया जा सकता।
हम यह कैसे कह सकते हैं कि आपातकाल को तानाशाही तो कहा जा सकता है परंतु फासीवाद नहीं? फासीवाद के मूल में है भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जुनून पैदा करना और आम लोगों को इस बात के लिए प्रेरित करना कि वे किसी वर्ग विशेष को निशाना बनाएं। यहां हमें यह याद रखना होगा कि इंदिरा गांधी ने स्वयं आपातकाल हटाया था और चुनाव करवाए थे जिनमें वे और उनकी पार्टी बुरी तरह पराजित हुए। जर्मनी की फासीवादी सरकार ने जर्मनी को ही नष्ट कर दिया।
आपातकाल के बारे में तो बहुत कुछ कहा जा रहा है परंतु इस दौरान आरएसएस की क्या भूमिका थी? यह कहना कि आपातकाल के विरोध में संघ ने केन्द्रीय भूमिका निभाई थी, सफेद झूठ होगा। टीवी राजेश्वर, जो अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, उत्तरप्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रहे, ने अपनी पुस्तक ‘इंडियाः द क्रूशियल इयर्स (हार्पर कोलिन्स) में लिखा है, ‘‘न केवल वे (आरएसएस) उसके (आपातकाल) समर्थक थे, बल्कि वे श्रीमती गांधी के अतिरिक्त संजय गांधी से भी संपर्क स्थापित करने के बहुत इच्छुक थे।” करन थापर को दिए गए अपने एक साक्षात्कार में राजेश्वर ने बताया, ‘‘देवरस ने चुपचाप प्रधानमंत्री निवास में अपने संपर्क बनाए और देश में अनुशासन और व्यवस्था लागू करने में आपातकाल की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की। देवरस, श्रीमती गांधी और संजय से मिलने के बहुत इच्छुक थे, परंतु श्रीमती गांधी ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया‘‘। तथ्य यह है बीजेपी ने अपने गठन के बाद उन लोगों, जिन्होनें आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, का खुले दिल से स्वागत किया। आपातकाल के दौरान एक लोकप्रिय नारा था ‘‘आपातकाल के तीन दलालः संजय, विद्या, बंसीलाल”। बाद में बीजेपी ने विद्याचरण शुक्ल को चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया और बंसीलाल के साथ मिलकर हरियाणा में सरकार बनाई। संजय गांधी की पत्नि मेनका को बीजेपी में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया और मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया। उन्होंने कभी भी आपातकाल के दौरान हुए जुल्मों की निंदा नहीं की।
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सच यह है कि देश में जितना दमन आज हो रहा है उतना आपातकाल के दौरान भी नहीं हुआ था। कई लोग वर्तमान स्थिति को अघोषित आपातकाल बता रहे हैं। नयनतारा सहगल, जो कि आपातकाल की कड़ी आलोचक थीं, ने बिल्कुल सही कहा है, ‘‘...आज देश में अघोषित आपातकाल लागू है, इस बारे में कोई संदेह नहीं है। हम देख रहे हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर तीखे हमले हो रहे हैं।” देश में कई लोगों को मात्र इसलिए अपनी जान गंवानी पड़ रही है क्योंकि वे आरएसएस की विचारधारा से सहमत नहीं हैं। हर ऐसे व्यक्ति, जो संघ की सोच का विरोधी है, को राष्ट्रविरोधी करार दिया जा रहा है। ‘‘गौरी लंकेश जैसे लेखकों की हत्या कर दी जाती है और उन लोगों के साथ न्याय नहीं हो रहा है जिन्होंने वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण अपनी आजीविका का साधन खो दिया है। देश में आज जो स्थिति है वह एक भयावह दुःस्वप्न से कम नहीं है।” आज हम देख रहे हैं कि सत्ताधारी दल और उसके गुर्गे, नागरिक स्वतंत्रताओं और प्रजातांत्रिक अधिकारों के लिए खतरा बन गए हैं। उन्हें अति कट्टरवादी (फ्रिन्ज एलीमेंटस) कहकर नजरअंदाज करने की बात कही जा रही है जबकि सच यह है कि वे सत्ताधारी दल के वैचारिक आका द्वारा किए गए कार्यविभाजन के अंतर्गत यह सब कर रहे हैं। वे भारतीय संविधान के विरूद्ध हैं और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा और पवित्र गाय, गौ-मांस, लवजिहाद व घर वापसी के नाम पर खून-खराबा आज आम हो गया है। और यह सब केवल अपने शासन को मजबूत करने के लिए नहीं किया जा रहा है। इसका असली और छिपा हुआ उद्धेश्य है धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना। इस तरह के अपराधों और ज्यादतियों के विरूद्ध शीर्ष नेतृत्व चुप्पी साधे हुए है और संघ और उससे जुड़ी संस्थाओं के मैदानी गिरोह मनमानी कर रहे हैं।
हमें आपातकाल के दौरान की तानाशाही, जिसमें राज्य तंत्र का इस्तेमाल प्रजातांत्रिक अधिकारों को कुचलने के लिए किया गया था, और फासीवादी शासन, जो संकीर्ण राष्ट्रवाद से प्रेरित हो अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है, के बीच विभेद करना होगा। दोनों ही प्रजातंत्र के लिए खतरा होते हैं परंतु फासीवाद में धर्म या नस्ल के आधार पर समाज के एक तबके को नागरिक अधिकारों से तक वंचित कर दिया जाता है।
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