2022 में देश भर में ईसाइयों के साथ अत्याचार या उत्पीड़न की लगभग 600 घटनाएं हुईं।फिर भी, कहीं भी इस तरह की क्रूरता के खिलाफ ईसाइयों द्वारा शारीरिक तौर पर बदला लेने की कोई एक घटना नहीं हुई।
सबसे बड़ी क्रूरता उनलोगों ने ओडिशा के कंधमाल में झेली थी जब 2008 में एक विवादास्पद धार्मिक व्यक्ति की हत्या के बाद हजारों चर्च नष्ट या क्षतिग्रस्त कर दिए गए थे और हजारों श्रद्धालुओं को उनके गांवों से बाहर भगा दिया गया था। तब भी बिना बदला लिए उन्होंने शांति से सब कुछ सहा, भले ही बाद में साफ प्रमाणों के आधार पर कोर्ट से दोषियों को सजा मिली।
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सवाल यह है कि बिना किसी तुक या कारण अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा कैसे बढ़ सकती है? फासिस्ट तत्व बराबर ही अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए काल्पनिक शत्रु चाहते हैं, जैसा कि जर्मनी में हुआ जहां उन्होंने बिल्कुल ठीक विरोधी के तौर पर यहूदियों को पा लिया हालांकि वे इतने नगण्य थे कि बदला लेने की बात तो छोड़िए, विरोध भी क्या करते।
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यह मानना मुश्किल है कि ईसाई-विरोधी हिंसा तात्कालिक है गुजरात में 2002 और 1984 में देश भर में हुए विभिन्न सांप्रदायिक दंगों के अध्ययन दिखाते हैं कि हिंसा किसी भी बात पर भड़क सकती है लेकिन सरकार के पास इसे खत्म कर देने की शक्ति होती है; उकसावे के बिना और सत्ता में शामिल लोगों समेत बाहरी स्रोतों के समर्थन के बिना कोई भी दंगा कुछ घंटे से अधिक नहीं चल सकता। किसी अन्य किस्म का विचार पुलिस, अर्धसैनिक बलों या सशस्त्र बलों की क्षमता को कमतर आंकना है।
यह इस आशंका को मजबूत करता है कि हिंसा लोगों को उत्तेजित और इकट्ठा करने के लक्ष्य से राजनीतिक तौर पर प्रेरित होती है। ईसाइयों को कठघरे में रखने के लिए यह निराधार दावा किया जाता है कि वे पूरी तरह धर्मांतरण समर्थक हैं जिनके हाथों हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। साक्ष्यों के आलोक में इस दावे से अधिक गलत कुछ नहीं हो सकता- जनगणना रिपोर्टों ने इसकी पुष्टि की है कि ईसाई सबसे कम विकास दरों में से एक रहे हैं। उनकी कुल आबादी 3 प्रतिशत से कम है, तब जबकि ईसा के जन्म के 52 साल बाद केरल में कोडुंगलूर में सेंट थॉमस के आगमन के बाद से वे हिन्दुओं का धर्मांतरण करते माने जाते हैं। इस बीच, देश पर ब्रिटिश शासन रहा जो उसी ईसाई धर्म का पालन करते थे। ईसाई आधुनिक चिकित्सा और आधुनिक शिक्षा देश के चारों कोनों में ले जाने, सबसे अधिक संख्या में अस्पताल और स्कूल बनाने में अग्रणी रहे। संघ के कई नेताओं ने ऐसे स्कूलों में शिक्षा पाई।
इन सबने ईसाइयों को जनसांख्यिकी तौर पर मजबूत नहीं बनाया। यह भी पहली बार नहीं है कि उनलोगों पर धर्मांतरण के आरोप लगाए जा रहे। जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, मध्य प्रदेश और उड़ीसा दो ऐसे राज्य थे जिन्होंने ऐसे कानून बनाए जिन्हें उत्साहपूर्वक धर्म स्वतंत्रता कानून कहा जाता है। आज लगभग एक दर्जन राज्यों में इस किस्म के कानून प्रभावी हैं। फिर भी, यह तथ्य बना हुआ है कि कोई एक भी ईसाई जबरन धर्मांतरण के लिए सजायाफ्ता नहीं है। लेकिन इसने हरियाणा, उत्तराखंड और कर्नाटक-जैसे राज्यों को ईसाइयों को एक किनारे कर देने की दिशा में वर्तमान कानून को मजबूत करने से नहीं रोका है।
ईसाईयत में सामूहिक धर्मांतरण के दावे बराबर इस तरह किए जाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश तक यह कहने को बाध्य हो जाते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में है। कर्नाटक में संबंधित कानून ने सामूहिक धर्मांतरण दो या दो से अधिक लोगों के धर्मांतरण को कहा। इस तरह, कोई पति और पत्नी धर्मांतरित होते हैं, तो यह कड़े दंड वाले सामूहिक धर्मांतरण के दायरे में आएगा। धर्मांतरण के लिए लालच या प्रलोभन देना अपराध है। प्रलोभन क्या है? ईसाई किसी गैरईसाई लड़के या लड़की को अच्छे स्कूल में पढ़ाता है, यह प्रलोभन है। अगर किसी बच्चे को सरकारी स्कूल में शिक्षा दी जाती है, तो वह प्रलोभन नहीं है। अधिकारी चाहते हैं कि दलितों को अच्छी शिक्षा नहीं मिले।
भारत लोकतांत्रिक देश है। यह किसी को संसदीय चुनाव में बीजेपी, विधानसभा चुनाव में कांग्रेस या किसी क्षेत्रीय पार्टी और नगर निकाय चुनाव में किसी निर्दलीय या क्षेत्रीय पार्टी प्रत्याशी को वोट देने की सुविधा देता है। वह अपनी इच्छा से किसी पार्टी में शामिल हो सकता है या किसी को छोड़ सकता है। उसे किसी से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति 33 कोटि देवी-देवताओं में आस्था रखता है और इस देवकुल में एक और ईसाईयत या इस्लाम में सम्मानित व्यक्ति को शामिल कर लेता है, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालता है। कर्नाटक और उत्तराखंड-जैसे राज्य में उसे धर्मांतरण की अपनी इच्छा को लेकर जिला न्यायाधीश के समक्ष शपथ पत्र दायर करना होगा। सिर्फ तब ही वह धर्मांतरण कर सकता है। वह धर्म स्वतंत्रता कानूनों के अंतर्गत किसी नए ईश्वर की पूजा नहीं कर सकता। यह कानून कई राज्यों में लागू है।
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सच्चाई यह है कि कोई व्यक्ति प्रलोभन के जरिये धर्मांतरित नहीं किया जा सकता। अगर यह संभव होता तो अडानियों और अंबानियों समेत एक प्रतिशत आबादी सभी ईसाइयों और मुसलमानों को हिन्दू बनने के प्रलोभन में अपने धन के बड़े हिस्से का उपयोग कर सकते थे। तब वे जानेंगे कि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के बिना धर्मांतरित नहीं हो सकता।
यह हम ऐसे देख सकते हैं। सैमुअल इवान्स स्टोक्स अमेरिकी थे और वह मिशनरी के तौर पर भारत आए। उन्होंने ही हिमाचल प्रदेश को सेब उपहार में दिए और यहां इसकी बागबानी शुरू हुई। उन्होंने हिन्दू धर्म अपना लिया और अपना नाम सत्यानंद स्टोक्स रख लिया। संगीतकार ए आर रहमान ने हिन्दू के तौर पर जन्म लिया और मुसलमान बन गए। ऐसा नहीं है कि किसी ने उन्हें ऐसा करने के लिए धन दिया। संविधान ने किसी धर्म को न सिर्फ मानने बल्कि उसे फैलाने का अधिकार दिया हुआ है। हां, कानून किसी को किसी दूसरे को धर्मांतरित करने की अनुमति भी देता है। यह नहीं समझा जा रहा कि धर्मांतरण कई दफा धर्म फैलाने के काम की पराकाष्ठा है।
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अब सवाल यह कि संघ परिवार धर्मांतरण को लेकर परेशान क्यों है? ऐतिहासिक तौर पर, भारत में धर्मांतरित होने वाले व्यक्ति वंचित वर्ग या निचली जातियों के होते रहे हैं। वे जातिवाद से दबे-कुचले रहे हैं। उन्हें आधुनिक शिक्षा पाने से वंचित रखा जाता था। यहां तक कि उन्हें सार्वजनिक सड़कों के उपयोग की भी अनुमति नहीं थी। केरल में वायकोम में इसके लिए आंदोलन तक हुए। यही वह वर्ग है जिसे संघ परिवार अपने आधिपत्य में रखना चाहता है।
सशक्तीकरण यह है जब कोई व्यक्ति महसूस करता है कि सभी बराबर के नागरिक हैं जो अपनी क्षमता के बल पर किसी भी स्थिति तक पहुंच सकते हैं। वह नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों, विशेषाधिकारों और कर्तव्यों को जानता/जानती है। इस किस्म का व्यक्ति कभी वोट बैंक नहीं बन सकता क्योंकि वह जानता है कि उसे क्या चुनना है।
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लेकिन संघ परिवार निचली जातियों के शिक्षित और सशक्त होने से डरा हुआ है। धर्मांंतरण से संघर्ष के नाम पर निरक्षर और यकीन रखने वाले कैडरों को अपने घरों या चर्चों या अस्थायी चर्चों में सामूहिक तौर पर प्रार्थना करने वाले ईसाइयों पर हमले करने को उकसाया जाता है। चूंकि उन्हें संघर्ष करने से अधिक कष्ट सहने की शिक्षा दी गई है, इसलिए ईसाइयों को आतंकित करना आसान है।
यह सोचना मूर्खतापूर्ण ही है कि ईसाई-विरोधी हमले जल्द ही खत्म हो जाएंगे क्योंकि इनका स्पष्ट उद्देश्य है। और वह उद्देश्य वोटरों को सांप्रदायिक आधार पर एकत्र करना है ताकि छत्तीसगढ़ और कर्नाटक-जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों में वे सत्ता में आ जाएं और 2024 लोकसभा चुनावों में बीजेपी फिर सत्ता में आ जाए। ऐसे में यह छोटा-सा आश्चर्य ही है कि ईसाइयों का छोटा-सा समुदाय संघ परिवार का पंचिंग बैग बना रहे!
(एजे फिलिप वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
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