विचार

अपना उद्देश्य भूल चुका है जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, यह आयोजन अब हो चुका है व्यर्थ!

जलवायु से संबंधित नीतियों पर आधारित विशेषज्ञों के एक प्रभावी दल ने हाल में ही कहा है कि कॉप सम्मेलन अब अपनी गरिमा खो चुके हैं और अपना उद्देश्य भूल चुके हैं, यह आयोजन अब व्यर्थ हो चुका है और इससे कोई उम्मेद करना ही बेमानी है।

जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य फोटो: सोशल मीडिया

अनेक अफ्रीकी देशों ने आवाज बुलंद की है कि कम से कम जलवायु परिवर्तन के मामलों में भारत और चीन जैसे देशों को विकासशील देशों की सूची से बाहर कर देना चाहिए। चीन विश्व की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था और भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, फिर भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए आर्थिक सहायता पाने में यही देश दुनिया के सबसे गरीब देशों के साथ खड़े रहते हैं। चीन ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जबकि भारत इस सूची में चौथे स्थान पर है। दोनों देश दुनिया में तापमान वृद्धि के प्रमुख जिम्मेदार हैं, पर इसके कारण पड़ने वाले प्रभावों के लिए आर्थिक सहायता पाने में भी अग्रणी देश बन जाते हैं।

 अफ्रीकी देशों और प्रशांत महासागर के देशों के अनेक प्रतिनिधियों ने कहा है कि देशों की अर्थव्यवस्था का वर्गीकरण 1992 में किया गए था, जब संयुक्त राष्ट्र कन्वेन्शन ऑन क्लाइमिट चेंज पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह वर्गीकरण आज भी चल रहा है जबकि इसके बाद की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। इस वर्गीकरण के आधार पर भारत और चीन जैसे देशों को भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की बाध्यता नहीं है, इन्हें गरीब देशों की आर्थिक सहायता के लिए भी बाध्यता नहीं है और ये देश गरीब देशों से आर्थिक सहायता के लिए प्रतिस्पर्धा भी करते हैं।

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दिल्ली के वायु प्रदूषण नियंत्रण की तरह ही तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर वार्षिक नाटक का मंचन हरेक वर्ष पूरी तन्मयता से किया जाता है। दिल्ली के वायु प्रदूषण नियंत्रण में नाटक के पात्र न्यायालय, केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, पीएमओ के साथ ही केंद्र और राज्य सरकार के 10 से अधिक मंत्रालय और विभाग है, सभी काम करते हैं और प्रदूषण लगातार बढ़ता जाता है। इस नाटक के सभी पात्र बारी-बारी से पड़ोसी राज्यों के किसानों को और हवा की गति को प्रदूषण का जिम्मेदार बताते हैं। यही नाटक हरेक वर्ष आयोजित किया जाता है।

 ठीक इसी तरह जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने का अंतरराष्ट्रीय वार्षिक नाटक संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आयोजित किया जाता है, जिसे कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, यानि कॉप, कहा जाता है। इस वर्ष इस कॉप के 29 वें संस्करण का आयोजन अज़रबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित किया जा रहा है। इसमें लगभग सभी देश के राष्ट्राध्यक्ष या फिर उच्चस्तरीय प्रतिनिधि शामिल होते हैं। जलवायु परिवर्तन रोकने और इसके प्रभावों से निपटने की तमाम घोषणाएं की जाती हैं, मीडिया और वैज्ञानिक समुदाय में इन घोषणाओं की तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं। अगले साल आते-आते दुनिया पहले से अधिक गरम हो चुकी होती है, चरम प्राकृतिक आपदाएं नया रिकार्ड बनाती हैं, पहले से अधिक क्षेत्र जंगलों की आग की चपेट में आ चुके होते हैं, ग्लेशियर पिघलते जाते हैं फिर भी कॉप सम्मेलनों में वही उत्साह और उमंग से नई-पुरानी घोषणाएं की जाती हैं।

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जलवायु से संबंधित नीतियों पर आधारित विशेषज्ञों के एक प्रभावी दल ने हाल में ही कहा है कि कॉप सम्मेलन अब अपनी गरिमा खो चुके हैं और अपना उद्देश्य भूल चुके हैं, यह आयोजन अब व्यर्थ हो चुका है और इससे कोई उम्मीद करना ही बेईमानी है। इस दल में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून, आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री, संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के पूर्व मुखिया के साथ ही अनेक वैज्ञानिक और शिक्षाविद शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र को भेजे गए पत्र में इस दल ने कहा है कि कॉप का सबसे बाद मजाक तो इसका आयोजन स्थल ही रहता है। इसका आयोजन लगातार उन देशों में किया जा रहा है जो देश तापमान वृद्धि रोकने के लिए जरा भी प्रतिबद्धता नहीं दिखाते हैं और इसे एक मजाक की तरह समझते हैं। एक तरफ लगातार वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि जीवाश्म इंधनों के उत्पादन और उपयोग को जल्दी से जल्दी रोकने की जरूरत है, तो दूसरी तरफ पता नहीं किस मजबूरी में कॉप का आयोजन ऐसे देशों में कराया जा रहा है जो पट्रोलियम उत्पादन को लगातार सार्वजनिक तौर पर बढ़ाते जा रहे हैं। इस वर्ष इसका आयोजन अज़रबैजान में किया जा रहा है, पिछले वर्ष इसका आयोजन संयुक्त अरब अमीरात में किया गया था – दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आधार ही पेट्रोलियम उत्पाद हैं, दिनों देश इसका उत्पादन लगातार बढ़ रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर जीवाश्म इंधनों की कमी या बंद किए जाने की घोषणाओं का मुखर विरोध करते हैं।

 जीवाश्म ईंधन से जुड़ी कंपनियों के प्रतिनिधियों को तो ऐसे आयोजनों से प्रतिबंधित कर देना चाहिए जिससे वे सदस्यों को या फिर निर्णयों को प्रभावित नहीं कर सकें। पर, स्थिति इसके ठीक विपरीत है, जीवाश्म इंधनों से जुड़े प्रतिनिधियों की संख्या वैज्ञानिकों, जनजातीय समुदायों और सबसे अधिक प्रभावित देशों के प्रतिनिधियों की सम्मिलित संख्या से भी अधिक रहती है। संयुक्त अरब अमीरात में भी ऐसी ही स्थिति थी, और वर्तमान कॉप-29 में भी वैज्ञानिकों, जनजातीय समुदायों और तापमान वृद्धि से सर्वाधिक प्रभावित देशों के प्रतिनिधियों की कुल संख्या, 1033, की तुलना में जीवाश्म ईंधन उत्पादक प्रतिनिधियों की संख्या 1773 है।

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संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित कॉप-28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जबेर आयोजन के समय भी नेशनल आयल कंपनी, अडनोक, के मुखिया थे। अज़रबैजान में आयोजन समिति के एक सदस्य कॉप-29 के उद्घाटन समारोह के दौरान कैमरे के सामने जीवाश्म इंधनों की डील में व्यस्त दिखे। अज़रबैजान के राष्ट्रपति ने कॉप-29 के उद्घाटन के दौरान जीवाश्म इंधनों को ईश्वर का उपहार करार दिया। कॉप अधिवेशनों में विकासशील और गरीब देशों को अधिक समय देने की मांग भी लगातार की जाती रही है, पर ये सभी अधिवेशन अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों पर ही केंद्रित रहते हैं। यही देश तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं और यही देश इसे रोकने का पाठ भी पढ़ाते हैं।

 अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोरे ने कहा है कि दुनिया को यह पता है कि तापमान वृद्धि को किसी भी स्थिति में 1.5 डिग्री सेल्सियस पर नहीं रोक जा सकता है, फिर भी सारी घोषणाएं और वार्ता इसी आधार पर की जा रही हैं, जाहिर है सारी कवायद ही व्यर्थ है।

 वार्षिक नाटक चलता रहेगा, पूंजीवाद पनपता रहेगा और लोग मरते रहेंगे।  

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