केरल में जिस तरह की अभूतपूर्व बाढ़ इस वर्ष आई, उस संकट से जूझने में पूरा देश केरल के साथ था। इसके अतिरिक्त देश के अनेक अन्य भाग भी बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उत्तर में हिमालय के राज्यों से दक्षिण में केरल तक के एक बड़े भाग को एक बार फिर भीषण बाढ़ और भू-स्खलनों से प्रभावित होना पड़ा है।
यह केवल हमारे देश ही नहीं, अपितु दुनिया भर की हकीकत है कि जलवायु बदलाव के इस दौर में समय-समय पर अतिवर्षा की संभावना पहले से कहीं अधिक बढ़ सकती है। कुल वर्षा का एक बड़ा हिस्सा बहुत कम समय में केंद्रित होकर भारी तबाही मचा सकता है। अतः इस स्थिति में हमें पहले से अधिक सावधानियों को अपनाना होगा।
एक बड़ी जरूरत यह है कि वन-विनाश को रोका जाए और विशेषकर प्राकृतिक वनों की रक्षा की जाए। हिमालय और पश्चिम घाट जैसे पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में तो यह और भी जरूरी है। बाढ़ नियंत्रण की किसी भी योजना को यदि दीर्घकालीन तौर पर असरदार होना है तो प्राकृतिक वनों की रक्षा और स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों को अधिक पनपने पर जोर देना होगा।
नदियों पर अनेक बांध बनाए गए हैं पर बाढ़ से रक्षा की दृष्टि से इनका उचित प्रबंधन हो, इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना शेष है। इनमें से अनेक बहुउद्देश्यीय बांध है। प्रायः देखा गया है कि बांध प्रबंधन में पनबिजली उत्पादन को अधिकतम करने पर जितना जोर दिया जाता है, उतना महत्त्व बाढ़ से रक्षा को नहीं दिया जाता है। बांध प्रबंधन की प्राथमिकताओं को सुधारना जरूरी है। इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि बांध से अधिक पानी छोड़ने से पहले समुचित चेतावनी दी जाए।
बाढ़ नियंत्रण का अधिकांश बजट बांधों (डैम) और तटबंधों (इमबैंकमैंट) पर खर्च होता है। अतः नीतिगत स्तर पर इन दोनों निर्माण कार्यों के अब तक के परिणामों और अनुभवों की सही, निष्पक्ष समझ बनाना और फिर आगे की नीतियां इस समझ के आधार पर बनाना बहुत जरूरी है। यदि इस तरह के निष्पक्ष आकलन का प्रयास नहीं किया गया तो हो सकता है कि हम पहले की गलतियों को फिर दोहराते जाएं।
नदियों के प्राकृतिक बहाव को बहुत संकुचित नहीं करना चाहिए अपितु नदियों के आसपास के फ्लडप्लेन में नदियों के विस्तार का पर्याप्त स्थान रहना चाहिए जिसे सीमेंट-कंक्रीट से मुक्त रखना चाहिए। जो आसपास के प्राकृतिक जल स्रोत और दलदली क्षेत्र हैं, उन्हें बनाए रखना चाहिए ताकि आसपास नदी का अतिरिक्त पानी समा सके और साथ-साथ भूजल में वृद्धि भी होती रहे। नदियों और पानी के निकासी के प्राकृतिक मार्गों को अवरोधों और अतिक्रमणों से मुक्त रखना चाहिए।
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विभिन्न विकास कार्यों के निर्माण के समय जल-निकासी पक्ष का पर्याप्त ध्यान रखना आवश्यक है। जिन स्थानों पर बहुत से निर्माण कार्य हो रहे हैं वहां तो यह और भी जरूरी है। जब जल्दबाजी में किए गए निर्माणों में जल-निकासी की उपेक्षा होती है तो वर्षा के समय यह बहुत महंगी पड़ती है।
बाढ़ का पानी जब आए तो यह शीघ्र ही निकल भी जाए, इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इसके लिए जल-निकासी व्यवस्था सुधारने के साथ यह जरूरी है कि तालाब, परंपरागत जल-स्रोत और दलदली क्षेत्र अपनी जगह बने रहें और इन पर अतिक्रमण न हो, ताकि बाढ़ का पानी इनमें समा सके। यदि सब सावधानियां अपनाई जाएं तो बाढ़ के विनाश को काफी कम किया जा सकता है।
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