6 दिसंबर 1992 को मैं गुजरात के वंसडा जेल में न्यायिक हिरासत में था। हम जंगल और जंगल की पैदावार पर आदिवासियों के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे थे, जो अक्सर सरकार के साथ झगड़े में तब्दील हो जाता था। जिसकी वजह से मुझे और मेरे साथियों को अक्सर फर्जी मुकदमों का सामना करना पड़ता था। मैं निश्चित तौर पर एक हफ्ते तक न्यायिक हिरासत में बंद रहा। अखबार पढ़ने की उत्सुकता के तहत मैं जेल के रात्रि गार्ड भीकूभाई से जब वह चाय पीने बाजार जाता था, अपने लिए एक अखबार खरीद कर लाने के लिए कहा करता था। और वह मुझे अखबार लाकर दे देता था। वह आदिवासी समुदाय से था। 7 दिसंबर को मैंने भीकूभाई से अखबार लाने के लिए नहीं कहा, लेकिन फिर भी वह मेरे लिए एक अखबार ले आया। इस पर मैंने कहा कि उसे देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं। इस पर उसने चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए पैसे की चिंता नहीं करने और अखबार पढ़ने के लिए कहा। मैंने जब अखबार खोला तब जाकर मुझे समझ में आया कि वह क्यों उस दिन मुझे अखबार पढ़वाना चाहता था। अखबार में बाबरी मस्जिद के विध्वंस की खबर थी। खबर पढ़कर मैं भयभीत हो गया, इसलिए नहीं कि एक मस्जिद ढहा दी गई थी बल्कि यह सोचकर कि हमारे देश में लोकतंत्र के भविष्य और राजनीति पर उसका क्या असर पड़ेगा।
मैंने अपनी सेल में बंद अन्य 8-10 आदिवासी साथियों के साथ इस खबर को साझा किया। उनलोगों को प्रतिबंध के बावजूद शरीब पीने जैसे छिटपुट अपराधों में गिरफ्तार किया गया था। वे मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि सर्वशक्तिमान (अल्लाह) के घर को कोई क्यों तोड़ेगा? मुझे उन्हें अखबार के पहले पन्ने पर छपी उस तस्वीर को दिखाना पड़ा जिसमें हाथों में भगवा झंडा लिए लोग मस्जिद के गुंबद पर नाच रहे थे। वे लोग भी भयभीत हो गए। तभी मैंने जेल के बाहर से विजय जूलुस और पटाखों की आवाज सुनी। कुछ दिनों के बाद मैं जमानत पर जेल से बाहर आ गया। भीकूबाई ने मुझे बाजार की तरफ नहीं जाने की सलाह दी, जहां पर पुलिस थाना था और पुलिस वाले मुझे किसी अन्य फर्जी केस में गिरफ्तार करने की तैयारी में थे। मैं एक गाड़ी से लिफ्ट लेकर वेदछी (सूरत) में वकील परेश चौधरी के घर चला गया। डांग और सूरत जिले के आदिवासी बहुल इलाके में बाबरी मस्जिद कोई मुद्दा नहीं था। हालांकि, वहां राम मंदिर निर्माण के लिए डीजे के साथ बड़े पैमाने पर रामशीला पूजन जुलूस निकाले गए थे। इन जूलुसों में अधिकांश गैर-आदिवासी लोग थे।
आदिवासियों के लिए जंगल की जमीन और उसके पैदावार पर हक, अच्छी शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा और अपनी जीवन शैली और पहचान को बरकरार रखने के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता मुख्य मुद्दा था। मंदिर-मस्जिद विवाद उजलियत (गैर आदिवासी) लोगों के लिए था। उनमें से ज्यादातर लोग बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि मंदिर के अस्तित्व से अनजान थे। कुछ लोग जिन्हें इसके बारे में पता था उन्होंने कभी इस पर चर्चा नहीं की। उस समय उनकी दुनिया बाकियों से इतनी छोटी थी कि डांग से बाहर जाने का मतलब होता था गुजरात जाना। आदिवासियों के लिए डांग गुजरात का हिस्सा नहीं था और डांग के बाहर की दुनिया गुजरात थी जहां उन्हें कभी-कभी इलाज और खरीदारी के लिए जाना पड़ता था। सभी मंदिरों पर उजलियत लोगों का अधिकार था जो कमोबेश अत्याचारी के रूप में देखे जाते थे और अगर उनमें से थोड़े बहुत जो अत्याचारी नहीं थे, वे उन आदिवासियों के प्रति कृपा भाव रखते थे।
जनवरी 1993 के दूसरे सप्ताह में मैं मुंबई स्थित अपने घर के लिए निकला था। जैसे ही मैं दादर स्टेशन पर उतरा मुझे शहर में चल रहे दंगों के बारे में पता चला। मैं किसी तरह आनंद पटवर्द्धन के घर पहुंचा, जहां मुझे पता चला कि अंधेरी (पश्चिम) में रह रही एक हिंदू दोस्त को अपने ऊपर हमला किए जाने का अंदेशा था। प्रीति नाम की उस दोस्त का अपने मकान मालिक के साथ विवाद चल रहा था और उसे डर था कि मकान मालिक उससे घर खाली कराने के लिए दंगों का फायदा उठाएगा। मैंने उसके साथ रुककर मुसलमानों की उस भीड़ का मुकाबला करने का फैसला किया जिसके बारे में उसे आशंका थी कि वे आकर उसपर हमला करेंगे।
मैंने अपने पिता को यह बताने के लिए फोन किया कि मैं मुंबई में सुरक्षित हूं और प्रीति के घर जा रहा हूं। मेरे पिता मुझसे वापस घर लौट आने का आग्रह करने लगे। उनका इस तरह विनती करना सामान्य नहीं था, क्योंकि मैं एक हिंदू दोस्त की मदद करने के लिए जा रहा था। लेकिन वक्त भी सामान्य नहीं था। मैं अपने पिता को यह आश्वासन देते हुए प्रीती के घर चला गया कि मैं जल्द घर लौट आउंगा और अनावश्यक जोखिम नहीं लूंगा। मैं जब उसके घर पहुंचा तो कुछ और दोस्त भी वहां मौजूद थे। अगले दिन मेरे घर लौट आने के बाद हमें मदद की मांग करते हुए दंगा पीड़ितों के कई फोन आने लगे। हम सिर्फ फायर ब्रिगेड और उन पुलिस अधिकारियों से संपर्क कर सके, जिन्हें हम उनकी ईमानदारी की वजह से जानते थे। उनसे हमें यही पता चला कि उनके पास भी इसी तरह मदद की गुहार लगाते फोनों की बाढ़ आई हुई है।
मुंबई के सांप्रदायिक दंगों ने मेरा ध्यान सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करने की तरफ खींचा- यह एक ऐसा मुद्दा था जिस पर मैं ध्यान नहीं दे रहा था, क्योंकि मैं 1989 से आदिवासियों के बीच काम कर रहा था। मेरे पिता डॉ. असगर अली इंजीनियर कई संगठनों के गठबंधन ‘एकता’ का नेतृत्व कर रहे थे। यह गठबंधन सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए काम कर रहा था और इसमें ट्रेड यूनियन, महिला संगठन और नागरिक स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे संगठन शामिल थे। ‘एकता’ ने मुंबई और अन्य दंगा प्रभावित शहरों में अमन-चैन बहाल करने के लिए शांति रैली, जनसभाओं और नुक्कड़ सभाओं का आयोजन किया था।
एकता ने कार सेवा का विरोध किया था और धार्मिक हिंदुओं से अपील की थी कि वे इसमें शामिल न हों, क्योंकि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के पीछे एक राजनीतिक मकसद है। हालांकि, सीमित संसाधनों के कारण ‘एकता’ की पहुंच सीमित थी। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सांप्रदायिक हिंसा बहुत कम हुई थी और ज्यादातर मौतें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का विरोध कर रहे मुसलमानों की भीड़ पर पुलिस गोलीबारी से हुई थी।
शिवसेना इससे संतुष्ट नहीं थी और बड़े पैमाने पर हिंसा के लिए उसने सड़कों-गलियों में अपने शिवसैनिकों को उतारा था। गहराई तक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना उनका लक्ष्य था क्योंकि सिर्फ इसी से चुनावी लाभ सुनिश्चित हो पाता। शिव सेना द्वारा प्रकाशित दैनिक अखबार ‘सामना’ ने जोगेश्वरी में गांधी चाल (राधाबाई चाल के रूप में लोकप्रिय) और दक्षिण मुंबई में दो माथाडी कामगारों की हत्या की आग को फैलाना शुरू कर दिया, जिसके लिए उन्होंने मुस्लिम समुदाय को दोषी ठहराया था। उन्होंने इन दो मुद्दों पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ सांप्रदायिक नफरत पैदा करने के लिए महा-आरतियों की एक श्रृंखला का आयोजन किया और इन महा-आरतियों के बाद वापस लौट रहे लोग अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में शामिल हो गए। शिवसेना की इन कोशिशों का नतीजा ये हुआ कि मुंबई में सांप्रदायिक हिंसा का दूसरा दौर शुरू हो गया, जो 9 जनवरी से शुरू हुआ था।
मजबूरी और उम्मीद
जान-माल के नुकसान के मामले में दूसरे दौर का दंगा ज्यादा विध्वंसकारी था। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रही भीड़ पर पुलिस ने जहां गोलीबरी की थी, वहीं शिवसेना द्वारा संगठित भीड़ जब सड़कों पर दंगे कर रही थी तो वह मूकदर्शक बनी सड़क किनारे खड़ी रही। हालात ये थे कि मध्यम वर्ग भी डरा हुआ था और कई दिनों तक शहर ठप हो गया था। आर्थिक नुकसान और महानगरों में निवेश के भविष्य को लेकर, जो तब अराजक और अनैतिक प्रतीत हो रहा था, उद्योगजगत के अगुआ बहुत परेशान थे। उनमें से कुछ लोगों ने पहल करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक से मुलाकात की, जो पूरी तरह से असहाय प्रतीत हो रहे थे क्योंकि प्रशासन पर उनका नियंत्रण लग रहा था कि उनके हाथों से निकल गया था।
सांताक्रूज पूर्व स्थित कार्यालय में एकता द्वारा बुलाई गई बैठक में कई सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हुए। लोग बेहद जोश में इस मुद्दे और संभावित हस्तक्षेप पर चर्चा कर रहे थे। हम सिर्फ पीड़ितों के लिए राहत पहुंचाने का काम कर सकते थे। जब दूसरों के प्रति डर और नफरत से लबरेज और कई बार घातक हथियारों से लैस संगठित भीड़ सड़कों पर हो तो उनके साथ तर्क करना असंभव है। सिर्फ सुरक्षा बल ही उन्हें तितर-बितर कर सकते थे। अगर उन्होंने चाहा होता तो। लेकिन स्पष्ट तौर पर ज्यादातर मामलों में सुरक्षा बलों और उन्हें आदेश देने वाले नेतृत्व में ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं थी।
ऐसे कई उदाहरण थे जब सांप्रदायिक भीड़ से अपने पड़ोसी के बचाव के लिए धर्म से ऊपर उठकर दोनों धर्मों के लोग आगे आए। ये भीड़ उनके इलाके में किसी भी समुदाय को निशाना बना सकती थी। इस सांप्रदायिक पागलपन से शहर को बचाने का यही एकमात्र तरीका था। मुझे साकिनाका का एक ऐसा ही उदाहरण याद है, जहां ‘एकता’ ने काश्तकारी संगठन के साथ मिलकर सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सभाओं का आयोजन किया था। इस संगठन ने मलिन बस्तियों में लोगों को अपने आसपास की समस्याओं को उठाने के लिए संगठित किया था। साकीनाका में ओड़िया, तेलुगू, मराठी और हिंदी भाषा बोलने वाले हिंदुओं के साथ मुसलमान भी रहते थे। पूर्व में मुसलमानों ने यहां बिजली उप-स्टेशन स्थापित करने के लिए जमीन उपलब्ध कराया था, जिससे वहां के इच्छुक निवासी बिजली के मीटर के लिए पंजीकरण करा सकते थे। उप-स्टेशन स्थापित होने से पहले तक बिजली आपूर्ति करने वाली कंपनी बीएसईएस मीटर स्थापित नहीं करती थी और वहां रहने वालों को निजी ठेकेदारों से बिजली कनेक्शन खरीदना पड़ता था जो उनसे दस गुना अधिक पैसा वसूलते थे।
साकीनाका के मुसलमानों को शिवसेना की शाखा से धमकियां मिल रही थीं जिसकी वजह से वे लोग अपने ऊपर हमले की आशंका से डर रहे थे। वहां रहने वाले हिंदुओं ने उनसे कहा कि डरें नहीं और चैन से सोएं क्योंकि वे लोग हिंदुओं की भीड़ से उनकी हिफाजत करेंगे। मुसलमानों से कहा गया कि अफवाहों पर ध्यान न दें और अपनी सुरक्षा का इंतेजाम भी न करें क्योंकि उनके घरों की सुरक्षा वहां के हिंदुओं के द्वारा की जाएगी। हाथ में डंडे लिए और मुसलमानों के घरों से आई चाय पीकर वहां के हिंदू निवासियों ने कई रातें जागकर अपने इलाके के मुसलमान घरों की हिफाजत की। हमला करने आई भीड़ ने जब देखा कि ये इलाका हिंदुओं की हिफाजत में है तो वे मुसलमानों पर हमले नहीं कर सके। ऐसे और भी कई इलाके थे जहां नागरिकों ने खुद ही पहल की थी और प्रशासन नकारा साबित हुआ था।
शांति मार्च
‘एकता’ ने दादर के खोडाड सर्किल से दक्षिण मुंबई के आजाद मैदान तक शांति मार्च का आयोजन किया। मुझे तारीख याद नहीं है लेकिन एक साथ चार लोगों के एकत्र होने पर रोक लगाने वाला प्रतिबंधात्मक आदेश, धारा 144 अभी भी लागू था। हम मानसिक तौर पर तैयार थे कि बहुत कम लोग आएंगे। हालांकि, प्रतिबंध के बावजूद हजार से ज्यादा लोग खोडाड सर्किल पहुंचे, जिनमें असगर अली इंजीनियर, आनंद पटवर्द्ध समेत टीआईएसएस और मुंबई यूनिवर्सिटी से शिक्षाविद्, पत्रकार, ट्रेड यूनियन नेता और शांति कार्यकर्ता शामिल थे। जैसे ही हम इकट्ठे हुए पुलिस ने हमें प्रतिबंधात्मक आदेश का हवाला देते हुए वहां से हटने को कहा। हमने यह कहते हुए उनकी बात नहीं मानी कि हमारा उद्देश्य शांति और सदभाव को बढ़ाना है और हम हाथों में सफेद झंडे और नारे लिखे प्लेकार्ड लिए शांति के गीत गाते हुए आगे बढ़ने लगे। हम उन इलाकों से गुजरे जहां दंगे हुए थे। शांति मार्च को अपनी बालकनी से देख रहे लोग हाथ हिलाकर अपना समर्थन जताने लगे और जब उन्होंने देखा कि हिंदू और मुसलमान एकसाथ मिलकर गाने और प्लेकार्ड के जरिये शांति की अपील कर रहे हैं तो सांप्रदायिक तनाव पिघल गया। आजाद मैदान पहुंचकर यह प्रदर्शन एक जनसभा में बदल गया। पुलिस अधिकारियों ने हमारा शुक्रिया अदा किया।
धीरे-धीरे मुंबई सामान्य स्थिति में लौट आई जैसे यह वाणिज्यिक शहर हर आपदा के बाद करती है- चाहे वह मानव निर्मित हो या प्राकृतिक। फिर भी, यह कभी सामान्य नहीं हुई। विपरित तरीके से जो चीजें बदलीं उनमें एक था झोपड़ीकरण। कई इलाकों के दंगा पीड़ित मुसलमानों ने, जिन्हें दंगों के दौरान भारी जान-माल का नुकसान हुआ था, अपने घर और दूकान बेच दिए और बड़ी मुसलमान बस्तियों में आकर बस गए। मुंबरा, मीरा रोड और इस तरह के दूसरे उपनगरों में मुसलमान आबादी काफी बढ़ गई। इसी तरह कई इलाकों में अल्पसंख्यक की तरह रह रहे हिंदू भी हिंदू बहुल आबादी वाले इलाकों में शिफ्ट हो गए जहां वे खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करते थे। अधिकांश दंगा पीड़ित आर्थिक रूप से पहले की तुलना में ज्यादा बदहाल थे। कुछ लोगों को पर्याप्त मुआवजा दिया गया, जबकि अधिकांश लोगों को पुनर्वास के नाम पर कुछ भी नहीं मिला। पुलिस की जांच में ढिलाई, साक्ष्यों को मिटाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने की इच्छा शक्ति की कमी के चलते दंगे भड़काने वाले ज्यादातर आरोपी बिना सजा के छूट गए।
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