भारत में यदि भविष्य की दृष्टि से पोषण का ध्यान रखना है तो चावल उत्पादन के क्षेत्र को कम करना होगा और मोटे अनाज, जो पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल हैं, के उत्पादन के क्षेत्र को बढ़ाना होगा। प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में अनेक शोधपत्र प्रकाशित किये हैं। उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता।
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यहां यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित आबादी हमारे देश में है और हम तेजी से पानी की कमी की तरफ भी बढ़ रहे हैं। नदियां सूख रही हैं और देश के अधिकतर हिस्से का भूजल साल 2030 तक इतना नीचे पहुंच जाएगा, जहां से इसे निकालना कठिन होगा। यह निष्कर्ष कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डॉ कैले डेविस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन से निकाला है और इनका शोध पत्र साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के जुलाई अंक में प्रकाशित किया गया है।
हमारे देश में वर्तमान में भी पानी की कमी है और कुपोषण की गंभीर समस्या है। साल 2050 तक आबादी लगभग 40 करोड़ और बढ़ चुकी होगी। वर्तमान में लगभग एक-तिहाई आबादी खून की कमी से ग्रस्त है। हरित क्रांति के पहले तक गेहूं और चावल के अतिरिक्त बाजरा, ज्वार, मक्का और रागी जैसी फसलों की खेती भी भरपूर की जाती थी। इन्हें मोटा अनाज कहते थे और ये एक बड़ी आबादी, विशेषकर गरीब आबादी का नियमित आहार थे। 1960 की हरित क्रांति के बाद कृषि में सारा जोर धान और गेहूं पर दिया जाने लगा, शेष अनाज उपेक्षित रह गए। अब फिर से मक्का, बाजरा और रागी का बाजार पनपने लगा है, पर अब ये विशेष व्यंजन के काम आते हैं और अमीरों की प्लेट में ही सजते हैं।
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डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।
युनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के प्रोफेसर कज़ुहिको कोबायाशी की अगुवाई में किये गए एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे चावल में पोषक तत्वों की कमी होगी। यह अध्ययन साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के जून अंक में प्रकाशित किया गया है। ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इस साल अप्रैल महीने में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत सांद्रता 410 पीपीएम से अधिक थी, जो पिछले 8 लाख वर्षों में इस गैस की सबसे अधिक सांद्रता थी।
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अनुमान है कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध में इस गैस की सांद्रता 568 से 590 पीपीएम तक पहुंच जाएगी। यदि ऐसा हो गया तब चावल में प्रोटीन, विटामिन, आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाएगी। सबसे अधिक कमी, 30 प्रतिशत, विटामिन बी9 में होगी। इस विटामिन को फोलेट कहते हैं और इसे गर्भवती महिलाओं को पोषण के लिए दिया जाता है। इसी तरह प्रोटीन में और आयरन में 10 प्रतिशत और जिंक में 5 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
पिछले साल एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तापमान वृद्धि से गेहूं, चावल और जौ जैसी फसलों में प्रोटीन की कमी हो रही है। अभी लगभग 15 प्रतिशत आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है और 2050 तक लगभग 15 करोड़ अतिरिक्त आबादी इस संख्या में शामिल होगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की लगभग 76 प्रतिशत आबादी अनाजों से ही प्रोटीन की भरपाई करती है, पर अब मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के कारण इनमें प्रोटीन की कमी आ रही है। इन वैज्ञानिकों ने अपने आलेख का आधार लगभग 100 शोधपत्रों को बनाया, जो फसलों पर वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभावों पर आधारित थे।
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साल 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण के कारण देश में 38.7 प्रतिशत बच्चों की पूरी वृद्धि नहीं होती। 29.4 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है और 15 प्रतिशत बच्चों में लम्बाई के अनुसार वजन कम रहता है। वैज्ञानिक पत्रिका लांसेट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार हमारे देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से 45 प्रतिशत का कारण कुपोषण है।
डॉ कैले डेविस के शोधपत्र के अनुसार चावल और गेहूं के साथ ही रागी, बाजरा और ज्वार जैसे परंपरागत फसलों पर अधिक ध्यान देने और पैदावार बढ़ाने की जरूरत है। इससे सिंचाई के पानी के बचत के साथ ही भोजन में कैलोरी, प्रोटीन, आयरन और जिंक की उपलब्धता बढ़ेगी। अनुमान है कि आयरन में लगभग 25 प्रतिशत, प्रोटीन में 5 प्रतिशत और जिंक में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हो जाएगी। इससे ऊर्जा की खपत में 12 प्रतिशत और पानी की खपत में 21 प्रतिशत तक कमी आएगी। मोटे अनाजों के उत्पादन क्षेत्र बढाने पर तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 प्रतिशत तक कमी होगी और भयंकर सूखे के समय भी कैलोरी मान में 13 प्रतिशत से अधिक की कमी नहीं होगी।
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