कोरोना महामारी ने शैक्षणिक परिसर में बढ़ती विषमता को पूरी तरह से उजागर किया है। तमाम ‘ऐप’ और ‘ऑनलाइन’ कक्षाओं ने एकलव्य के अंगूठा कटवाने की परिपाटी को अप्रासंगिक कर दिया। लेकिन समता इसकी वजह नहीं है बल्कि अब तो हाशिये पर खड़े बहुत बड़े वर्ग के छात्रों के लिए शिक्षाहर प्रकार से दुर्लभ हो गई है। अब वह परिदृश्य में ही नहीं है। परिणाम भयावह है क्योंकि विषमता का कटा अंगूठा तो दिखाई भी नहीं पड़़ता।
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शिक्षा के लिए औपचारिक व्यवस्था कायम करना लाजमी था, खासकर तब जब कि जन्म आधारित वर्णानुक्रम और वर्गानुक्रम ने बड़ी आबादी को सदियों तक शिक्षा के आंगन से महरूम रखा। औपचारिक व्यवस्था से उम्मीद थी कि द्वार खुल जाएंगे। द्वार तो खुले, मगर यह एकतरफा संप्रेषण होकर रह गया। शैक्षणिक परिसरोंने ज्ञान और अध्ययन को सहज नहीं रहने दिया जबकि वह पीढ़ियों से अर्जित लोक-समझ और बोध के आदान-प्रदान का केंद्र हो सकता था। अभी वह मात्र किताबी जानकारियों का झरोखा बनकर रह गया है। यह लोक समाज की विविधता का उत्सव नहीं मनाता। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था लोक रंग से दूर, जटिल और बोझिल हो गई है। वह लोक समझ को हीन समझती है। इसका परिणाम यह है कि कामगारी, काश्तकारी परिवार यह मानने लगे हैं कि उनके पास सीखने-सिखाने के लिए कुछ भी नहीं। जाहिर है, औपचारिक किताबी जानकारियां बेहद जरूरी हैं। लेकिन सदियों की तपिश से अर्जित कर्म के अनुभव क्या कमतर हैं? क्या वे सीखने-सिखाने लायक नहीं? क्या शिक्षा का परिसर खुले आदान-प्रदान का मंच नहीं होना चाहिए, ताकि किसान, मजदूर, लुहार, बढ़ई, मिस्त्री, कुम्हार स्त्री-पुरुष भी आकर अपने अनुभव छात्रों के साथ साझा कर सकें?
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छात्र अपने अभिभावकों और उनके काम को हेय न समझें। उसे ‘निर्माण’ की साधना मानकर सम्मान करें। अभिभावक भी अपना मूल्यांकन करते समय जटिल औपचारिक शिक्षाप्रणाली के चश्मे भर से ही खुद को न देखें। खुद को भी सीखने-सिखाने के योग्य मानें और आत्मविश्वास से लबरेज हों। ऐसी व्यवस्था होने पर महामारी के दौरान बच्चे अपने माता-पिता के साथ भी जिज्ञासा को बूझते, तराशते। माता-पिता भी हीनता के बोझ में न दबकर मुक्त मन और स्वाभिमान से वह सब अनुभव साझा करते जो उन्हांने जीवन की पाठशाला से जाना है।
जन्मआधारित वर्णानुक्रम के कोढ़ से ग्रस्त समाज सदियों से बौद्धिकता की प्रभुत्व संपन्नता के आगे शीश नवाता रहा है। शारीरिक श्रम को तुच्छ मानता रहा है। यह बदल सकता है। नर्मदा के किनारे बसे ‘आंदोलनजीवियों’ की प्रेरणा से संचालित ‘जीवनशाला’ इसकी मिसाल है। यहां बच्चों को फीस नहीं देनी पड़ती। जनसमुदाय के उपज का एक लघु भाग‘जीवनशाला’ को संचालित करता है। इसके बदले बच्चे मुक्त परिसर में ही रहते हैं। अपनी लोकभाषा में पढ़ते-गाते हैं। जनअधिकार को जानने की ललक पैदा होती है।
शैक्षणिक परिसरों को बाजारोन्मुखी बनाने की भरसक कोशिश जारी है। मगर यह तो ज्ञान को सीमित करने की साजिश लगती है। शिक्षा व्यवस्था को निश्चित तौर पर आर्थिक स्वावलंबन से जोड़ना चाहिए। मगर अति उपभोक्तावादी पागल दौड़ के लिए छात्रों को तैयार करने के बजाय उस पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़े करने के लिए क्या प्रशिक्षित नहीं करना चाहिए? शैक्षणिक परिसरों को चाहिए कि वे सूचनाएं प्रदान करें, मौलिक सृजन और चिंतन के लिए प्रेरित करें।
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सुदूर नियमगिरी में कभी औपचारिक शाला में प्रवेश नहीं करने वाले समुदाय ने प्रतिरोध करना सीखा। ‘आज्ञापालन’ नहीं किया। सवाल उठाए और बड़े कॉरपोरेट घराने को टक्कर दी। औपचारिक शिक्षा बेहद जरूरी है। लेकिन वह लोक चेतना से सराबोर होनी चाहिए। तभी शैक्षणिक परिसर समावेशी हो सकेंगे। समावेश केवल सबके लिए स्थान बनाने से ही नहीं होगा। सबकी पृष्ठ भूमिको मान्य करते हुए उसका समायोजन करना असल समावेश है। इसमें गुरु और शिष्य पृथक नहीं होंगे। दोनों सत्यान्वेषी होंगे।
गौतम बुद्ध ने एक बार अपने साथी शिष्यों से कहा कि पेड़ पर अनगिनत पत्ते हैं, पर हम कुछ को ही देख पाते हैं। वैसे ही सत्य असीमित है। अन्वेषण सबकी अपनी निजी यात्रा है। मैं केवल मार्ग दिखा सकता हूं। मगर मेरे बताए मुठ्ठी भर तथ्यों को अपने अनुभव से परख कर ही अपनाया जाए, यानी नित्य परिमार्जन करना ही ज्ञान है।
शिक्षक दिवस पर यह याद रखा जाए कि असल में ‘गुरु’ और ‘शिष्य’ साधना के प्रतीक हैं। ‘गुरु’ माने ‘जिज्ञासा’ और ‘शिष्य’ माने ‘विनय’। विनीत जिज्ञासा की परंपरा ही ‘गुरु’ को “गोविंद’’ से बड़ा बनाती है।
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