साल भर से दुनिया कोविड की कैद झेल रही है। पास खड़ी मौत की दुर्गंध हम सबने कभी- न-कभी सीधे अपनी गरदन पर महसूस की है। यह वह कालखंड है जब बाहर निकलकर सबसे नीचे की सीढ़ी पर खड़े सबसे कमज़ोर नागरिक की चिंता करने की जगह सरकार ने हम सबको बिना नोटिस के तालाबंदी की कोठरी में ला बिठाया। उन शुरुआती दिनों में भूखे-नंगे पैर घर वापसी को उमड़ पड़ी दिहाड़ी मजदूरों की बदहवास भीड़ की उन छवियों को हमारे कथित सभ्य समाज के लिए भुलाना असंभव होगा।
पहले जब कभी इतने बड़े पैमाने पर विपदा आती थी तो भारतीय लोग सहज ही दैवी कृपा पाने को तरह-तरह के कृत्यों में जुट जाते थे। इस बार भी शुरू में राजकीय आदेश और स्वेच्छा- दोनों के सहारे तरह- तरह के पारंपरिक यज्ञ, हवन, तीरथ यात्राएं, पंचगव्य सेवन, थाली-ताली बजाना, चौराहे पर दीये, तंत्र-मंत्र सब आजमाया गया। दाढ़ी वाले बाबाजी अवतरित हुए एक दिव्य गोली लेकर जो कोरोना विनाश का रामबाण नुस्खा बताकर उच्च स्तरीय राजनेताओं की मौजूदगी में लॉन्च की गई। जल्द ही उसे बाहर बेचने को हरी झंडी भी मिल गई। पर बाहर प्रयोगशाला जांच से ज़ाहिर हुआ कि उसमें कोई औषधीय गुण नहीं था जैसा कहा जा रहा था। गोली पर प्रतिबंध लग गया। पर बाबा जी तब तक काफी माल चोखा कर चुके थे।
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इन तमाम रूढिवादी नुस्खों की नाकामी पर पर्दा डालते हुए अयोध्या में इसी बीच राम मंदिर निर्माण के लिए शंख घंट बजाकर भूमि पूजन कराया गया। भीड़-भाड़ की बजाय गोदी मीडिया की भरपूर चुस्ती से लाखों ने टीवी पर वह नज़ारा देखा और यकीन करना चाहा कि रामजी सब भली करेंगे। पर महामारी बढ़ती चली गई। फिर कुंभ का विराट आयोजन किया गया। कहा गया, गंगा मैया में डुबकी लगाने से रोग-मुक्ति होगी। लाखों की भीड़ उमड़ी पर साथ में मुक्ति की बजाय रोगाणु लेकर वापिस आई और उसने सारे उत्तर भारत में गांव-गांव तक संक्रमण पहुंचा दिया। अब तक कुंभ स्नान कर चुके नौ साधु मर चुके हैं, मुंबई के मशहूर संगीतकार भी। और उत्तराखंड सरकार जो भोंगा लगाकर डॉक्टरी सलाह के उलट भीड़ न्योत रही थी, प्रदेश में कड़ी तालाबंदी को बाध्य है।
यह सब देख भोगकर लोग धीमे-धीमे पुरानी मान्यताएं त्याग रहे हैं। अब बुखार और सांस की तकलीफ होते ही गांव से कस्बों तक में रोगी के घर के लोगों को गोबर या गोमूत्र नहीं, जांच और ऑक्सीजन वाली हस्पताली शैया की तलाश रहती है। गंगा जल या आयुर्वेदिक दवा ट्राय करने को समय नहीं बचा। जब सांसें उखड़ रही हों तो सबको केमिस्ट काउंटरों से रेमडेसिविर और जीवन रक्षक एलोपैथी डॉक्टरों की शरण चाहिए। अंधविश्वास और रूढ़िवादी व्यवस्थाओं का देश पीड़ादायक तरीके से अपनी ज़रूरतों पर पुनर्विचार को बाध्य हो रहा है। जिस टीके के नाम पर लोग बिदकते थे, अब वही टीका लगवाने को लोग ज़मीन-आसमान एक किए हैं। विज्ञान जीत गया, अंधविश्वास हार गया। पर बहुत बड़ी कीमत चुकाने के बाद।
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हवा बदलती देखकर और बंगाल में चुनावी रैलियों से रोगाणु फैलाने के विपक्ष के इल्ज़ामों से घिरा बंगाल चुनाव में पराजित नेतृत्व अब भारत को विश्वका सबसे बड़ा दवा निर्माता और रोज़ लाखों टीके लगाने वाला, वैज्ञानिकों, बैंकरों तथा अर्थशास्त्रियों का गढ़ बता रहा है। पर जादू मिट चला है। का बरखा जब कृषि सुखानी? एम्स, मैक्स, अपोलो-जैसे विख्यात बड़े अस्पताल दिन-रात एक किए हैं, पर उनके पास भी सीमित बेड और चिकित्सा सुविधाएं हैं। करप्शन मिटाने के नाम पर हुए पिछले सालों के सघन केंद्रीकरण से लाल फीताशाही की वापसी हुई है। उसने दवाओं का आयात- निर्यात या संतुलित वितरण और ज़रूरी डाटा पाना इतना कठिन इतना बना डाला है कि हवाई अड्डे पर विदेश से आए उपकरण या ऑक्सीजन उनके लिए तरसते हस्पतालों तक समय रहते नहीं पहुंचाए जा सकते। डॉ. मनमोहन सिंह और अमर्त्य सेन के मिटाए अफसरी अड़ंगेबाज़ तरीकों पर उनकी खिल्ली उड़ाने वाले पछता रहे होंगे कि बाबूशाही इतनी ताकतवर काहे बनवा दी गई?
जनता की त्राहिमाम् सुनकर इधर न्यायपालिका ने भी कठोरता से सरकारी विफलताओं पर जवाब तलबी शुरू की है जो स्वागत योग्य है। जब न्यायिक पूछताछ हुई तो तथ्य उजागर हुआ कि टीकों की इफरात की बात करती रही सरकार ने समय रहते टीकों की खरीद के लिए ऑर्डर तक जारी नहीं किए थे। एक बड़े दवा निर्माता ने विदेश जाकर कहा कि उन पर अब तुरंत टीकों की भारी खेप निकालने की बाबत इतना उत्कट दबाव था कि तंग होकर वह कुछ दिन को बाहर चले आए।
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हर महायुद्ध जीवन और जनता की सोच बदलकर रख देता है। भारत भी अपवाद नहीं। शादी-ब्याह और जन्म के हर्षमय अनुष्ठान कहां से हों जब कठोर तालाबंदी है। कुछेक बारातें निकलीं तो उसके बाद कोरोना से दूल्हा- दुल्हन सहित सबका जो कोरोना ने हश्र किया, उसके बाद लोग शादी के वे तमाम रंगारंग सपने भुलाने को विवश हैं। उसी तरह मृत्यु से जुड़ी तमाम रूढ़ियां तन्मयता से पालता देश अब पा रहा है कि प्रियजन को अकेले अंतिम संस्कार के लिए ले जाना उसकी विवशता है। न कर्मकांड हो पा रहे हैं, न ही चिता और दाह के नियमों का पारंपरिक तरीका पालन करना संभव है। न सही मृत्यु भोज या लंबे चौड़े पीपल पानी या तेरहवीं के अनुष्ठान, मानव देह का मिट्टी फिर राख बनना भी तो एक न्यूनतम गरिमा की तो मांग करता ही है न? इन तमाम दारुण अनुभवों के बाद पुरानी परंपराएं कितनी रह पाएंगी, कहना कठिन है। बच्चों का बचपन बंद कमरों में बिखर रहा है। खेल के मैदान सूने हैं। स्कूल बंद परीक्षाएं स्थगित। मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। नींद न आना चिड़चिड़ापन और मौत का भय पहले बड़ों को ही व्यापते थे लेकिन मनोचिकित्सकों के अनुसार अब तो बच्चे भी उनसे जूझ रहे हैं। कई अनाथ बन गए बच्चों की सुधि लेने को करीबी रिश्तेदार भी नहीं। एक पूरी पीढ़ी बड़ी हो रही है तरह-तरह के डर और फोबिया लिए-दिए।
कवि रिल्के ने कभी महायुद्ध की विभीषिका पर कहा था कि लोग एक डरावनी सूनी अंधी गली के मुहाने पर खड़े हैं। उस शहर में जहां कभी कुछ भी क्षमा नहीं किया जाएगा। ये पंक्तियां क्या हम पर लागू नहीं होतीं?
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