विचार

आकार पटेल का लेख: सरकारी कदमों और कानूनों की संवैधानिकता पर फैसला देने में सुप्रीम कोर्ट की झिझक

भारत में संसद तो नई बन गई है लेकिन पुराने कानूनों की समस्याएं जस की तस हैं। इसका एक कारण तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट इसे तय करने में काफी ढीला रहा है कि सरकार द्वारा उठाए गए कदम संवैधानिक हैं या नहीं।

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सरकार ने समलैंगिक विवाह का विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट ने इससे सहमति जता दी। इस तरह भारत ने वैवाहिक समानता को खारिज कर दिया। जी-20 में ऐसे देश जहां वैवाहिक समानता दी गई है उनमें अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, यूके और अमेरिका शामिल हैं। इसका विरोध करने वाले देशों चीन, इंडोनेशिया, जापान, रूस, सऊदी अरब और तुर्की के साथ भारत शामिल है।

समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने वैश्विक स्तर पर इस बाबत अभियान चलाए हैं और वे प्रभावी भी रहे हैं, और इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसा समय आएगा जब इस मामले में जीत उनकी ही होगी। लेकिन सवाल यह है कि आखिर भारत ऐसे मुद्दे पर क्यों अड़ा हुआ है जिसे एक न एक दिन तो व्यवहार में आना ही है।

इसका जवाब आसान नहीं है। भारत में संसद तो नई बन गई है लेकिन पुराने कानूनों की समस्याएं जस की तस हैं। इसका एक कारण तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट इसे तय करने में काफी ढीला रहा है कि सरकार द्वारा उठाए गए कदम संवैधानिक हैं या नहीं। हालांकि कोर्ट की प्राथमिक भूमिका यही होनी चाहिए और साथ ही यह भी कि निजी अधिकारों की रक्षा हो (यह एक और मुद्दा है जिस पर बहस हो सकती है कि कोर्ट इस बारे में भी ढुलमुल ही रहा है)।

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यह अनिच्छा विशेष रूप से ऐसे मामलों में दिखाई देती है जहां सरकार, और खासतौर से प्रधानमंत्री ने काफी जोर दिया है। वर्षों से, विभिन्न समूह और निजी व्यक्ति मोदी सरकार के कुछ कानूनों और कार्यों की संवैधानिकता तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगा रहे हैं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।

देर-सवेर कोर्ट ने इनमें से कुछ मामलों पर गौर किया है, लेकिन फैसला किसी में भी नहीं आया है। इन मुद्दों को सार्वजनिक विमर्श में रखना महत्वपूर्ण है। ऐसे ही मुद्दों में से तीन है, अनुच्छेद 370 (इसे लेकर अगस्त 2019 में याचिका दायर की गई थी), इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा (इस पर सितंबर 2017 में याचिका दायर हुई) और नागरिकता संशोधन कानून – सीएए (इसके खिलाफ दिसंबर 2019 में अर्जी दाखिल की गई थी)।

इस बात को दोहराने की शायद जरूरत नहीं है कि आखिर ये तीनों वह मुद्दे क्यों हैं जिनपर प्रधानमंत्री ने बेहद जोर दिया है, लेकिन यह कहना अनिवार्य है कि ये मुद्दे आखिर हैं क्या।

इलेक्टोरल बॉन्ड मुख्यतया भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। एक पंक्ति में कहें तो इसीलिए इसे खत्म करना चाहिए। इससे क्या होता है और बीते करीब 6 वर्षों से हो रहा है, वह यह है कि राजनीतिक दलों को असीमित बेनामी चंदा मिल रहा है। इन बॉन्ड का विरोध तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और चुनाव आयोग ने भी किया था। लेकिन इन दोनों ही स्वायत्त संस्थाओं की बात को मोदी सरकार ने नजरंदाज़ कर दिया था।

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इलेक्टोरल बॉन्ड बियरर चेक जैसे होते हैं, एक तरह का कैश यानी खालिस नकद। कोई भी व्यक्ति इन बॉन्ड को खरीद सकता है, इसे किसी तीसरे पक्ष को जिसमें विदेशी सरकार, कोई आपराधिक गैंग भी हो सकता है, उसे बेच सकता है, और फिर वह तीसरा पक्ष इसे अपनी पंसद के किसी भी राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता है। इलेक्टोरल बॉन्ड में सबसे ज्यादा बिकने वाली रकम एक करोड़ रुपए की है। अब यह पाठकों के विवेक पर छोड़ देता हूं कि आखिर हम में से कौन किसी ऐसे दल को एक करो रुपए देना चाहेगा जिसे हम वोट देते हैं। इन इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए आने वाली रकम का बड़ा हिस्सा बीजेपी के ही खाते में जाता है।

रिजर्व बैंक की आपत्ति और लोकतांत्रिक अखंडता पर उठाए गए गंभीर सवालों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने छह साल में इस मामले पर कोई फैसला नहीं किया है।

उधर पूरे दक्षिण एशिया में कश्मीर अकेली ऐसी जगह है जहां जून 2018 से चुनी हुई सरकार नहीं है। ऐसा पांच साल से अधिक समय पहले से था और उसके कुछ महीनों बाद ही अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया। क्या ऐसा करना संवैधानिक था? यदि नहीं तो अधिकांश कानूनी टिप्पणियां हमें बताती हैं कि उत्तर नहीं है। फिर, यह राष्ट्रीय महत्व और हमारे लोकतंत्र से जुड़ा मामला है और इसमें प्रधानमंत्री की भी हिस्सेदारी है। लेकिन कोर्ट ने इसे भी प्राथमिकता नहीं दी।

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इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून – सीएए के जरिए तीन पड़ोसी देशों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) से आने वाले शरणार्थियों को अलग कर दिया गया जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए थे। इनमें से मुसलमानों को अलग-थलग किया जाना है और बाकी को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। सवाल है कि आखिर सिर्फ इन तीन पड़ोसी देशों को ही क्यों चुना गया, इनमें लंका, चीन और बर्मा क्यों नहीं है? लेकिन इसकी कोई व्याख्या इस कानून में नहीं है। आखिर मुसलमानों को ही क्यों अलग किया गया और दूसरे हाशिए के समूहों को क्यों नहीं, इसका भी कोई जवाब नहीं है।

गृहमंत्री ने बताया था कि सीएए को एनपीआर (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) के साथ देखा जाना चाहिए। पहला कानून मुसलमानों को अलग-थलग करता है और दूसरा उन्हें जेल में डालने का प्रावधान करता है। 2019 और 2020 के साहसी विरोध प्रदर्शनों के चलते सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे, और बीजेपी अभी तक सीएए लागू नहीं कर सकी है, हालांकि इसे पारित हुए लगभग चार साल बीत चुके हैं। इस कानून को तुरंत ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसकी संवैधानिकता अभी तक निर्धारित नहीं की है।

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इसी किस्म के रिकॉर्ड हमारे सामने हैं। और भी मिसालें है, जब कोर्ट ने वैसा कुछ नहीं किया, जैसाकि उसे करना चाहिए था। जब सरकार पर आम नागरिकों की गैरकानूनी जासूसी के आरोप लगे, तो उसे क्लीन चिट मिल गई। यह स्पष्ट ही नहीं है कि कोर्ट ने पेगासस के मामले में क्या किया। बीते साल सिर्फ एक हेडलाइन से खबर सामने आई थी, जिसमें कहा गया था कि, ‘कोई सबूत नहीं, सरकार ने सहयोग नहीं किया- पेगासस पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच’। सुप्रीम कोर्ट सरकार को मजबूर कर सकता था और उसे करना चाहिए था कि वह शपथ पत्र देकर बताए कि उसने इस जासूसी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल भारतीय नागरिकों की जासूसी के लिए किया या नहीं। लेकिन कोर्ट ने ऐसा नहीं किया।

अदालत उन अहम मामलों की सुनवाई भी लंबे समय तक टालती रही है जिसे सरकार नहीं चाहती है। पिछले कुछ समय से कुछ बेंचों का गठन शुरू हो गया है, लेकिन इस बीच काफी नुकसान हो चुका है और अभी भी हो रहा है, खासकर इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे मामलों पर।

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