दुनिया के सबसे उदारवादी संविधानों में से एक को स्वीकार करने के 71 साल बाद भारत आखिरकार औपनिवेशिक दौर के एक कानून धारा 377 को खत्म करने का उत्सव मना सकता है जो समलैंगिकता को अपराध करार देता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि वयस्कों के निजी यौन चुनाव को प्रकृति ने ही रचा है और वे जैसे हैं वैसा बने रहना पूरी तरह कानूनी है।
निश्चित तौर पर एलजीबीटीक्यू और उनके समुदाय के लिए यह एक बड़ी खबर है, जो अपने झुकाव को ‘प्राकृतिक’ मानते रहे हैं। लेकिन यह विपरीत लिंग के जोड़ों को भी प्रभावित करता है क्योंकि सैंद्धांतिक रूप से एक पति और पत्नी के बीच होने वाला मुख मैथुन भी गैर-कानूनी है। और अगर दोनों लोग आपस में शादीशुदा नहीं है तो यह और भी बुरा हो सकता है। अगर बिल क्लिंटन भारतीय होते तो शायद मोनिका लेविंस्की से अपने अफेयर के लिए महाभियोग से बच जाते, लेकिन धारा 377 के तहत जेल चले जाते।
यह कानून भारत में रहने वाले यौन अल्पसंख्यकों के शोषण और उन्हें ब्लैकमेल किए जाने का हथियार रहा है। लाखों समलैंगिक पुरुषों और महिलाओं को इसने न सिर्फ डर और गोपनीयता में रहने के लिए मजबूर किया, बल्कि धारा 377 ने एचआईवी पर रोक लगाने के प्रयासों को भी कमजोर किया और आत्महत्याओं और विषाद में इजाफा किया।
2017 का विश्व बैंक का अध्ययन यह बताता है कि भारत को 0.1 से लेकर 1.7 फीसदी जीडीपी का नुकसान होमोफोबिया (समलैंगिकता विरोध) से होता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बात को स्वीकार करता है कि भारतीय वयस्कों द्वारा अपने कमरों में की जाने वाली चीजों को नियंत्रित करने का सरकार को अधिकार देना गलत है। धारा 377 गरिमा, निजता, और समानता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अर्थ यह है कि वयस्कों के बीच सहमति से होने वाला सारा सेक्स अब कानूनी है और लिंग इसमें आड़े नहीं आएगा। इसका मतलब यह नहीं हुआ कि इस प्रक्रिया में जबरदस्ती किया गया सेक्स यानी रेप, पशुओं और बच्चों के साथ किया गया सेक्स भी सही ठहरा दिया जाएगा, जैसा कि सोशल मीडिया पर गलत जानकारी से भरे कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं।
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा 2009 में धारा 377 पर दिए गए उदार फैसले को पलट दिया था। कई भारतीयों की तरह मुझे भी लगा कि सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला बहुलता और लोकतंत्र के प्रति भारतीय प्रतिबद्धता के विरोध में है जो हर तरह की पहचानों और यौन झुकावों को स्वीकार करता है।
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2013 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को सही ठहराते हुए कहा था कि जज नहीं, कानून निर्माता इसकी किस्मत का फैसला करेंगे। दुर्भाग्य से संसद ने इस काम के लिए खुद को अक्षम पाया। सत्ताधारी पार्टी में मौजूद कट्टरता और होमोफोबिया और विपक्ष के ज्यादातर हिस्सों में मौजूद पूर्वाग्रह ने इस मसले पर संस्था को दुमुंहेपन की स्थिति में ला दिया था। धारा 377 के अन्याय को विधायिका के जरिये दुरुस्त नहीं किया जा सकता था, जब तक बीजेपी सत्ता में रहती। इस मामले में कानून द्वारा बदलाव राजनीतिक साहस की मांग करता है जो मौजूदा सरकार में नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया कि लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सारे भारतीय, सिर्फ एलजीबीटी समुदाय नहीं, गर्व से अपना सिर ऊंचा कर सकते हैं और गरिमा और आजादी के साथ रह सकते हैं।
(यह शशि थरूर के लेख का संक्षिप्त रूप है जिसे धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उन्होंने लिखा है।)
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