सबसे बुरा अशिक्षित राजनीतिक अशिक्षित है। न वह सुनता है, न बोलता है, न राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेता हैः बर्तोल्त ब्रेख्त, जर्मन नाटककार और कवि
‘तुम्हें पढ़ाई-लिखाई करनी चाहिए। ऐसी गतिविधियों में नहीं उलझना चाहिए जो तुम्हारे भविष्य को जोखिम में डाल दे’- इस तरह की बात किसी से सुनने की याद मुझे तब की है जब मैं स्कूल में था। जब मैं छठी क्लास में था, तब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू), अलीगढ़ में चल रहे आंदोलन का संदर्भ देते हुए मेरे एक आदरणीय शिक्षक ने कहा थाः “सियासत बुरी चीज है, तुम्हें इन चीजों में नहीं उलझना चाहिए, अपनी पढ़ाई-लिखाई पर फोकस करो। तुम जब बड़े हो जाओगे, तब राजनीति कर सकते हो।” तब मैं सियासत का मतलब नहीं समझता था, तो मैंने अपने पिता से पूछा कि सियासत क्या है? मेरे पिता ने जवाब दियाः “सियासत शिक्षा का ऐसा रूप है जो तुम्हें नागरिक बनाता है। अच्छी और उत्तरदायी सियासत तुम्हें अच्छा नागरिक बनाती है, खराब और अनुत्तरदायी सियासत तुम्हें खराब नागरिक बनाती है।”
तब से मैंने इस तरह की बात संभवतः हजारों बार सुनी है। हालांकि ठीक है कि यह मेरी तरफ इशारा कर नहीं की गई है। उदाहरण के लिए, जब आप विद्यार्थी हो, तो शिक्षक आपसे कहेंगेः तुम अभी विद्यार्थी हो, पहले पढ़ाई-लिखाई पूरी करो, तब तुम राजनीति में भाग ले सकते हो। अगर आपको अभी नौकरी नहीं मिली हो, तो तर्क यही होगाः पहले नौकरी करो, जब यह मिल जाए, तब तुम राजनीति कर सकते हो। जब आपको नौकरी मिल जाएगी, तब आपको कहा जाएगाः राजनीति में न उलझो, तुम्हारी नौकरी चली जाएगी। या फिर यहः नौकरी के नियम इसकी इजाजत नहीं देते। और अंततः जब आप बूढ़े हो जाते हैं, तब लोग कहेंगेः आप बूढ़े और बीमार हो। अपनी तबीयत पर ध्यान दो। क्यों राजनीति में खामखां उलझ रहे हो। कुल मिलाकर, जीवन भर की इस कहानी का सार यह है कि लोग पढ़े-लिखे लोगों को उस राजनीति में कभी भी भाग लेने देना नहीं चाहते, जो समाज, देश और पूरी मानवीयता को आकार देता है।
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वैसे, ऐसे लोगों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है जो कहते हैं कि छात्रों को राजनीति में नहीं उलझना चाहिए। पहले वर्ग में उन सभी लोगों को रख सकते हैं जो ‘राजनीतिक कारणों’ से कहते हैं। और दूसरे वर्ग में वैसे लोग हैं जिनकी काफी संकीर्ण दृष्टि और नागरिकता, राजनीति और शिक्षाको लेकर तिरछी परिभाषाएं हैं। इस वर्ग के लिए, शिक्षा महज नौकरी हासिल करने के लिए जरिया है, शिक्षा के विपरीत राजनीति राजनीतिक नेतृत्व हासिल करने का रास्ता है; नागरिकता का मतलब पांच साल में वोट देने के काम तक सीमित है।
बहुसंख्यक लोगों के लिए शिक्षा सिर्फ वहीं तक सीमित है जिसे ब्राजीलियाई शिक्षाविद पाॅलो फ्रेइरे ने ‘बैंकिंग माॅडेल ऑफ एजुकेशन’ कहा है। फ्रेइरे ने पेडगोजी ऑफ द ऑप्रेस्ड किताब में कहा हैः “शिक्षकों को अपनी सूचनाएं विद्यार्थियों के पास ‘जमा’ करनी चाहिए जिसके लिए समाज या अभिभावकों ने पैसे अदा किए हैं और विद्यार्थियों को वे सूचनाएं धैर्य से ग्रहण करनी चाहिए, सिर्फ इस कारण से कि यह ऐसा समुदाय है जिसे भुगतान किया गया है”। फ्रेइरे ने इस तरह की शिक्षा के प्रभाव को कुशलतापूर्वक बताया है जब वह कहते हैंः “यहआश्चर्यजनक नहीं है कि शिक्षा को लेकर बैंकिंग की तरह की सोच लोगों को व्यवस्था योग्य, प्रबंधनीय मानती है। जितने अधिक विद्यार्थी उन्हें दिए गए जमा को इकट्ठा करेंगे, वे उस आलोचनात्मक चेतना को उतना कम विकसित करेंगे जो इस दुनिया को बदल देने में हस्तक्षेप कर सकती है। वे उन पर लादी गई अप्रतिरोधी भूमिका को जितना अधिक स्वीकार करेंगे, वे इस दुनिया को, जैसा है, उसी रूप में, आम तौर पर उतना ही अधिक उपयोगी मान लेंगे।
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हममें से अधिकतर लोग परिणामों से प्रसन्न हैं। व्यवस्था, कभी-कभी प्रभावी तौर पर, आमतौर पर अप्रभावी तौर पर आज्ञाधीन डाॅक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, इतिहासविद, समाजविज्ञानी, कर्मचारी, मैकेनिक आदि पैदा करती है, जो दुनिया जैसी है, उसी रूप में उसे स्वीकार करते हैं। उन्हें दी जाने वाली डिग्री इस शैक्षणिक कार्य प्रणाली के जरिये आकार दिए गए नागरिक की निष्क्रियता और आज्ञाकारिता का प्रमाण है।
देश भर में विश्वविद्यालयों के छात्रों के हाल के विरोध प्रदर्शनों ने, एक बार फिर, समाज के इस वर्ग को विचलित कर दिया है। वे लोग प्रतिरोध के शैक्षिक, बाधाकारी, परिवर्तनात्मक प्रकृति को लेकर चिंतित हैं। जब बच्चे सड़कों पर उतर आते हैं तो शिक्षा की बैंकिंग व्यवस्था बाधित होती है और उन बच्चों में सामाजिक बदलाव के उत्प्रेरक और, इससे भी अधिक, सत्ता संतुलन का सवाल बनने की क्षमता हासिल करने की संभावना है। इस तरह, यह खतरा है कि ये बच्चे स्थायी तौर पर राजनीतिक और सोचने वाले बन जाएंगे जो बात अधिक बेचैनी वाली है। समाज के इस वर्ग की प्रतिरोधी शक्तियों के कारण ‘स्थायी क्षति’ के अनुगामी विचार ने राजनीति में विद्यार्थियों की भागीदारी का पुरजोर विरोध किया है। वे सभी पुरानी बातें कही जा रही हैं जो इस लेख की शुरुआत में कही गई हैं।
यह विडंबना ही है कि समाज का यह वर्ग उन सभी प्रमुख विद्यार्थी आंदोलनों के बारे में प्रशंसा करता नहीं थकता, जिन्होंने दुनिया भर में प्रभाव डाले हैं और जिनके बारे में उन्होंने स्कूल या काॅलेज में पढ़ा है। अमेरिका में वियतनाम युद्ध आंदोलन, फ्रांस में ऑक्यूपाय यूनिवर्सिटीज आंदोलन, चिली में तानाशाह पिनोशे विरोधी आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत विरोधी आंदोलन महान सुधारवादी आंदोलनों के कुछ उदाहरण हैं, जिनमें छात्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। वे भगत सिंह, राजगुरु, धन्वंतरी और एहसान इलाही- जैसे छात्र नेताओं की भी प्रशंसा करेंगे और तर्क देंगे कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (स्वदेशी-1905, असहयोग-1920, भारत छोड़ो-1942) छात्रों की वृहत्तर भूमिका के बिना सफल नहीं हो पाता। समाज के इस वर्ग के लिए ये बीते दिनों की घटनाएं हैं, सूचना के निष्क्रिय टुकड़े हैं, जो फाॅसिल बन गए हैं जिनकी कीमत सिर्फ विनिमय की है।
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अब पहले वर्ग की बात जिसकी शुरुआत में चर्चा की गई है। उनका तर्क है कि विद्यार्थियों को राजनीतिक कारणों के लिए राजनीतिक मुद्दों के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। इस पर विचार करना अधिक कठिन है। वे छात्र आंदोलन की विस्फोटक संभावना जानते हैं। वे खुद भी छात्रों के तौर पर प्रतिरोध में भाग लेकर राजनीतिज्ञ के रूप में बड़े हुए हैं। वे यहीं से निकले हैं और पुरानी पीढ़ी की जगह सत्ता-प्रतिष्ठान तक पहुंचे हैं। वे भली भांति जानते हैं कि कोई भी प्रतिरोध नए राजनीतिक नेता लाता है जो अधिकार को चुनौती देते हैं, उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंक सकता है और यहां तक कि उन्हें पूरी तरह अप्रासंगिक बना दे सकता है।
इस सोच का अच्छा उदाहरण जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली के कुछ विद्यार्थियों द्वारा अचानक शुरू किया गया वर्तमान छात्र प्रतिरोध है। इस पर सरकारी मशीनरी की प्रतिक्रिया बर्बर और तीखी रही और इसने आग बुझाने की जगह इसे और भड़का दिया और कुछ ही घंटों के अंदर प्रतिरोध देश भर के अनेक विश्वविद्यालयों में फैल गया। आधुनिक संचार चैनलों के कारण इसे दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों का अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल हुआ। इसने यहां के विद्यार्थियों के विश्वास को मजबूती दी। उन्होंने लगातार जारी रहने वाली सार्वजनिक बहस में शिक्षा की संभावना को समझा और लंबे संघर्ष के लिए अपने आप को क्रमशः तैयार किया। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) से संबंधित विषयों पर चर्चा के अलावा इस प्रतिरोध का उल्लेखनीय पक्ष अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में भारत के संविधान की प्रस्तावना का सार्वजनिक पाठ है जो आम तौर पर रिवाज में बदल गया है।
मैं बराबर चिंतित रहता था कि आज की पीढ़ी को शैक्षणिक संस्थानों की चहारदीवारियों के बाहर की शिक्षा अर्जित करने का कोई अवसर नहीं मिल रहा है। वर्तमान आंदोलन उन्हें निष्क्रिय और आज्ञाकारी नागरिक बनने की जगह सामाजिक बदलाव के उत्प्रेरक बनने की शिक्षा निश्चित तौर पर देगा।
(लेखक सीएसआईआर के पूर्व चीफ साइंटिस्ट हैं)
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