विचार

मृणाल पांडे का लेख: एकजुटता के साथ प्रखर वैचारिक संघर्ष ही आज के समय की मांग

हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर अपनी पार्टी के मूल वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से युवा नेताओं को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी।

फाइल फोटो : Getty Images
फाइल फोटो : Getty Images Hindustan Times

कुछ भविष्यवाणियां कांग्रेस की बाबत बरसों से की जाती रही हैं जो बीसवीं सदी तक हर बार असफल साबित हुईं। नेहरू के समय से राजीव गांधी के जीवनकाल तक यह कहने वाले कम नहीं थे कि अब पार्टी दक्षिण और वाम के दो साफ वैचारिक ध्रुवों में बंट कर दो फाड़ हो जाएगी। जब यह होगा तो कांग्रेस का फैलाया भरम मिट जाएगा कि समय के साथ रसोइये भले आते-जाते रहें, कांग्रेस की विशाल पतीली में हर तरह की सब्जी और दाल-चावल मिलाकर एक सुस्वादु, स्वास्थ्यवर्धक खिचड़ी हमेशा बनाई जा सकती है। इंदिरा जी के बाद फिर कांग्रेस की आसन्न मौत की भविष्यवाणियां हुईं: कि उनके पुत्र राजनीति में नए हैं। जल्द ही क्षेत्रीय नेता उन पर हावी होंगे और तब केंद्र का दर्जा बहुत करके एक होल्डिंग कंपनी का बन जाएगा। हर सूबा अब संविधान की दी हुई स्वायत्तता के बूते शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण और जल बंटवारे तक के सवालों पर अपने हित स्वार्थ खुद तय करके केंद्र या पड़ोसी राज्य से भाव-ताव करेगा। यानी देश का दूसरा विभाजन भले न हो लेकिन सूबाई क्षत्रप ताकतवर होंगे और दिल्ली शासन की अखंड केंद्रीयता काफी हद तक मिट कर एक जबर्दस्त संघीय लोकतंत्र का युग शुरू हो जाएगा जिसमें हर राज्य बराबर की ताकत और सुनवाई का हक रखेगा।

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अर्थ समझें तो पहली भविष्यवाणी का मतलब यह था कि आगे जाकर देश अलग-अलग: वाम, दक्षिण, समाजवादी सरीखी विचारधाराओं के आधार पर खांचों में बंटेगा। दूसरी का आशय था कि बंटवारा तो होगा, पर दल की विचारधारा की खड़ी लकीरों के आधार पर नहीं। नेहरू काल से भाषावार बने प्रांत अपनी भौगोलिक और भाषायी अस्मिता मजबूत कर चुके हैं। लिहाजा अब वे अपने हित-स्वार्थों के तहत देश को कई-कई सतहों, परतों में भीतर से बांट देंगे। इससे दिल्ली चालित रह कर भी देश भीतर से परतों में बंटा देश बन जाएगा जिसकी सतहें हर राज्य की अलग-अलग क्षेत्रीय भाषा और सांस्कृतिक आधारों पर बनेंगी। ये दोनों ही भविष्यवाणियां सदी की शुरुआत तक सही निकलती नहीं दिखीं। पर इनके भीतर का छुपा आंशिक सच 2014 के बाद दक्षिणपंथी वैचारिकता की फतह के बाद धीरे- धीरे उजागर हुआ है।

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प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जब बीजेपी गठजोड़ की निर्द्वंद्व नेता साबित हो गई, तो दक्षिणपंथी विचार के नेतृत्व को मौका मिला कि देश को हिंदुत्ववादी विचारधारा और उसके सही-गलत जैसे हों, अपने ऐतिहासिक निष्कर्षों के आधार पर एक दिशा विशेष में मोड़ा जाए। अगर संविधान आड़े आता दिखे तो उसमें भी अपनी मन्याताओं के हिसाब से तरमीम की जाए। यूं कांग्रेस के तले देश का जो लोकतंत्र बना था, उसमें भी सवर्ण हिंदू और पुरुष अधिक हावी थे। फिर भी वह अनेकता में एकता, विरोधों के बीच सर्वानुमति, सर्वदलीय संयुक्त मोर्चे के आधार पर काम करने वाला था जिसे लोकतांत्रिकता से हटने पर संसद या अदालत में सफल चुनौती का रास्ता खुला था।

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2014 में पूरे बहुमत से सत्ता में आई एनडीए सरकार ने देश के उस सांचे को लगातार संघ द्वारा परिभाषित बहुसंख्यक हिंदूनीत, एक चालकानुवर्ती और केंद्र संचालित बनाया है। संसद या अदालत में इससे असहमत लोगों का प्रतिवाद असफल रहना दिखाता है कि देश में खड़ी वैचारिक लकीरों वाला स्पष्ट विभाजन संभव नहीं रह गया। दलगत के मैनीफेस्टो चाहे जो कहें लेकिन दलों के भीतरी लोकतंत्र, चुनावी चंदा एकत्रित करने, उसके वितरण या चुनावी रैलियों के नजरिये से कोई भी पार्टी आज दूसरी से भिन्न नहीं दिखती है। यानी जैसा राजेंद्र माथुर कहते थे- राजकाज के अर्थ में कांग्रेस कोई पार्टी नहीं, राज करने की निखालिस भारतीय शैली है। जो भी दल लंबे समय तक राज करने का इच्छुक है, उसको झक मार कर यही तरीका पकड़ना होगा। पर इसका मतलब यह नहीं कि केंद्र-राज्य टकराव नहीं होंगे।

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किसी भी देश का मूल चरित्र उसमें ऐतिहासिक तौर से बार-बार होते रहे मुद्दों से जाना जा सकता है। भारत में ये मुद्दे राजनीतिक विचारधारा के उतने नहीं, जितने जाति, धर्म और भाषाई अस्मिता के हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण के खिलाफ बीजेपी की प्रिय हिंदी के जब्बर उपनिवेशवादी मंसूबों को लेकर अभी द्रमुक की कनिमोझी ने जो पुराने भाषाई जिन्नात बोतल से निकाल दिए, जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की बात उठते ही जैसे तलवारें मियान से निकल आईं, कश्मीर के सर्वदलीय नेताओं के मोर्चे ने अनुच्छेद 370 के हटने से हुए कश्मीरियत के विघटन पर जैसी भड़ास निकाली, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की अपने सूबे के धरतीपुत्रों के लिए नौकरियां आरक्षित करने पर शेष राज्यों की जो प्रतिक्रिया हुई, वे उनके पूर्ववर्ती क्षेत्रीय क्षत्रपों की तल्ख झड़पों से भिन्न नहीं हैं। ये टकराहटें जिनको सूबे की जनता का भारी समर्थन है, दिखाती हैं कि यह देश भले ही संविधान की रक्षा अथवा महिलाओं के साथ शारीरिक बदसलूकी या पुलिसिया भ्रष्टाचार-जैसे मुद्दों पर लामबंद न हो लेकिन क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान और जातिगत आधारों पर जम कर गदर काटा जा सकता है।

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बीजेपी को मालूम है कि उसकी कोई बड़ी चुनौती है तो वह गांधी परिवारनीत कांग्रेस ही है। इसीलिए उसने उसके नेतृत्व को अभिमन्यु की तरह घेर कर, मीडिया चर्चाएं खास तरह से मोड़कर राहुल गांधी को बचकाना और सोनिया से कमतर बताने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन किसी की आप खिल्ली बड़ीआसानी से उड़ा सकते हैं। लेकिन राजा नंगा है कहने का साहस तो किसी को दिखाना था ही। यह भी गलत नहीं कि आज बाढ़, सुखाड़, बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण के बीच खदानों को लीज पर देना, सीमा असुरक्षा पर लीपापोती और महामारी से सफलतापूर्वक निबटने की अक्षमता- जैसे मुद्दों पर जब दलों को ईंट से ईंट बजा देनी थी, तब यह बात हमारे राष्ट्रीय पाखंड का ज्वलंत नमूना है कि संसद से सड़क तक हर विपक्षी दल के अधिकतर बुजुर्ग नेता मुंह चुराए पड़े रहे। अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर महिलाओं तथा छात्रों ने संशोधित नागरिकता कानून पर जम कर मोर्चा लिया। फिर कोविड उमड पड़ा तो सड़क पर उतरना भी मुहाल हो गया। लेकिन अधबीच सरकारें गिराने, विधायकों की खरीद-फरोख्त जारी रही।

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अब ऐसी दशा में जब जरूरत अगले विधानसभा चुनावों के लिए बड़ा दिल लेकर अहंकार त्याग कर एकजुट होने की हो, तो उस समय पहले निष्क्रिय रहे कुछ लोग अपनी उपेक्षा की दुहाई देते हुए कहें कि कुछ कीजै, तब कोई क्या करे? कांग्रेस ने यह बात उठने पर अपने तरीके से कार्यकारी समिति की बैठक की और (गोदी मीडिया की हर कोशिश के बावजूद) घर की इज्जत का घड़ा एक बार फिर चौराहे पर फोड़े जाने से बचा लिया। यह गंभीरता से विचार करने की बात है कि आज जरूरत मुंह फुलाने या पैर पटकने की नहीं। आपको देश और लोकतंत्र की परवाह हो तो इस देश में अब सच्चा वैचारिक संघर्ष एकजुट होकर छेड़ा जाएगा। ऐसा संघर्ष ही आज के लस्त पंख खोये बरसाती कीड़ों की तरह निस्तेज नजर आते विपक्ष को सबल और सम्मानित बनाएगा। अमेरिका, इंग्लैंड, चीन- ये सब देश आपातकाल आने पर पक्ष-विपक्ष के बीच खुल कर छेड़ेगए गृह युद्धों के बावजूद सही लोकतांत्रिक पटरियों से नहीं उतरे। उस समय की गर्मागर्म जिरहों और चुनौतियों ने उनको भविष्य के लिए गहरी एकजुटता दी। भारत भी अपवाद नहीं होगा।

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ईमान से सोचें, क्या अब तक हमारे हालिया टकराव टुच्ची बातों पर नहीं होते रहे? (अमुक स्टेशन का नाम हिंदी में क्यों लिखा गया? या तमुक मुगलकालीन सड़क का नाम बदलकर दल विशेष के दिवंगत नेता के नाम पर काहे रखा गया? भूमि पूजन कोविड के बावजूद क्यों न हो? कोविड के बढ़ते संक्रमण के खतरे के बावजूद अमुक बड़ा पर्यटन स्थल या नामी मंदिर लाखों पर्यटकों-दर्शनार्थियों के लिए क्यों न खोल दिया जाए?) क्षुद्र शिकायतों और ओछे हथकंडों ने तो हमको जनता और दुनिया की नजरों में बद से बदतर ही बनाया। दुनिया की हर रेटिंग एजेंसी के आर्थिक, सामाजिक, मीडिया से जुड़े पैमानों पर हम लगातार नीचे धकेले जा रहे हैं। सौ बात की एक बात यह कि अन्याय किसी के साथ हो लेकिन झगड़े से दोनों ही पक्ष दुनिया के मंच पर बदनाम होते हैं। खासकर वह पक्ष जो अधिक सबल और आक्रामक दिखता हो।

यह एक तरह से स्वस्थ बात है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के अपने आंतरिक प्लेटफॉर्म पर मशविरे और समन्वय के हर पुराने फॉर्मूले और ढांचे को ईमानदार चुनौती दी गई है। हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर समय की कसौटी पर परखे गए अपनी पार्टी के मूल समन्वयवादी वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से उभर रहे युवा नेताओं को क्षुद्र बातों पर अटकी विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी। कोविड की महामारी ने साफ कर दिया है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए। यह भी कि सीमाओं से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों तक आज की दुनिया के केंद्रीय झगड़े का उत्स अमेरिका और चीन के बीच है। उस कोलाहलमय नक्कारखाने में भारत कभी बांग्लादेश तो कभी नेपाल और कभी ईरान-तूरान राजदूत भेजकर एशियाई एकता की तूती बजाए तो सुनने वाला कौन है? दुनिया में हमारी इज्जत कितनी होगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि खुद हमारी नजरों में हमारे लोकतंत्र की इज्जत कितनी रह गई है।

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