बात उन दिनों की है जब मैं लखनऊ में टाइम्स ऑफ इंडिया में स्थानीय संपादक था। एक दिन दोपहर बाद मैं जब लंच के लिए अपने क्यूबिकल की ओर जा रहा था, तो मैंने देखा कि खाली पड़े न्यूज रूम में क्राइम रिपोर्टर के अलावा कोई नहीं है। वह एक प्रिंट आउट पढ़ रहा था और इतना मगन था कि उसे यह भी पता नहीं था कि आसपास क्या हो रहा है।
लखनऊ में क्राइम रिपोर्टर्स आम तौर पर शाम में ही दफ्तर आते हैं, अपनी रिपोर्ट फाइल करते हैं, अगली सुबह तक विधानसभा मार्ग स्थित पायनियर ऑफिस के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं- वहां उन्हें नवीनतम जानकारी मिल जाती है और वहीं पर वितरण के लिए अखबार के बंडल लाए जाते हैं।
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मैं दबे पांव उस रिपोर्टर के पीछे गया और वह जिस कागज को पढ़ रहा था, उसे पढ़ने लगा। यह एक रिपोर्ट थी, जिसमें उसकी बायलाइन थी। मैंने उससे प्रिंट आउट ले लिया और आश्चर्य भी जताया कि आखिर, वह इतनी जल्दी रिपोर्ट कैसे फाइल कर रहा है। मैंने अभी उस रिपोर्ट को पढ़ना शुरू ही किया था कि उसने कहा, “यह इसी तरह होगा, सर। हमें ब्रीफ कर दिया गया है, तो मैंने सोचा कि क्यों न इसे तैयार ही कर लिया जाए।”
मैं उलझन में पड़ गया। फिर भी, मैंने पढ़ना जारी रखा और हतप्रभ रह गया। लखनऊ में दिन में 1 बजे लिखी उस रिपोर्ट में वह उसी दिन दो घंटे बाद- 3 बजे, देहरादून में होने वाली पुलिस मुठभेड़ को पूरे विवरण के साथ लिख गया था। उसमें उस खूंखार अपराधी के इतिहास के बारे में भी जानकारी थी, वह कौन-सी कार ड्राइव कर रहा था, कैसे अपने बच्चों को लेने के लिए वह स्कूल पहुंचा- यह सब उसमें था। इसमें यह भी बताया गया था कि पुलिस (स्पेशल टास्क फोर्स) ने खुफिया सूचना के आधार पर कैसे उसे धर लिया, कैसे उस अपराधी ने गोली चलाई और भागने की कोशिश करने लगा। रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि कैसे उसका पीछा किया गया और अंततः उस अपराधी को कैसे ‘मार गिराया गया।’
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हालांकि रिपोर्ट में घटना की तिथि उसी दिन की बताई गई थी और यह बात साफ थी, फिर भी मैंने पूछा कि क्या यह मुठभेड़ कल हुई थी। उसने पूरे निश्चिंत भाव से कहाः “नहीं, सर। यह आज अभी होने जा रही है, लेकिन मैं इसमें दी गई पूरी जानकारी को लेकर निश्चिंत हूं। जो यह सब करने वाले हैं, उनसे ही मुझे यह विवरण मिला है।” मैंने उस कागज को अपने पॉकेट में रख लिया और उससे कहा कि अगर मुठभेड़ उस दिन हुई और इसी विवरण के अनुरूप हुई, तो उसे भी पहले पेज पर जगह मिलेगी।
फिर मैंने उससे पूछा, ‘जब पुलिस उस अपराधी के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी रखती है, तो उसे गिरफ्तार करने से पुलिस को कौन रोक रहा है।’ उस वक्त वह रिपोर्टर इस सवाल से बिल्कुल सकपका गया था। उस दिन देर रात मैंने जानना चाहा कि क्या पुलिस मुठभेड़ की कोई खबर कहीं से आई है। कहीं से कोई खबर नहीं थी। मैंने उस रिपोर्टर को बुलाया और उसने लज्जित होते हुए स्वीकार किया कि उसे अपने स्रोतों से गलत जानकारी मिल गई थी।
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अगले कुछ दिनों तक मैं हर शाम किसी मुठभेड़ के होने को लेकर पूछता और यही जानकारी मिलती कि कुछ नहीं हुआ है। मैं उस रिपोर्टर को चिढ़ाता और कहता कि अपने स्रोतों पर इतना भी भरोसा न किया करो। करीब दस दिनों बाद मैं अपने ऑफिस के काम से कानपुर गया हुआ था। होटल वाले को कहा हुआ था कि वह मेरे कमरे में सुबह-सुबह सारे अखबार डाल दे।
अगले दिन सुबह जितने अखबार आए थे, सब में देहरादून में हुई पुलिस मुठभेड़ की खबर प्रमुखता से छपी थी- और उसमें सबकुछ उसी तरह हुआ था, जैसा उस रिपोर्टर की कॉपी में दस दिनों पहले लिखा गया था। दो दशक बाद अब भी मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर, उस मुठभेड़ की पटकथा लिखने वाले ने कुछ घटनाओं में थोड़ा भी अंतर क्यों नहीं किया था, जैसा कि कोई बच्चा भी कर सकता था।
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