भौतिक निर्माण व्यवस्था का पुराना शौक है, प्रिय शगल भी। भौतिक चकाचौंध आवाम को यथार्थ देखने जो नहीं देती। भौतिक निर्माण सत्ता के दंभ को संवारती है। उसे कर्मण्य सामर्थ्यवान साबित करती है। अनेक राजसूय यज्ञ भौतिक निर्माण की नुमाइश का माध्यम बने हैं। नैतिक मूल्यों के प्राकृतस्थ खांडव वनों के दहन पर ही ऐश्वर्यवान् इन्द्रप्रस्थ खड़े किये जाते हैं। स्मरण रहे कि वे निर्माण ’’कृष्णप्रस्थ’’ नहीं कहलाते।
हुक्मरानों का यह प्रिय खेल कई बार प्रकट हुआ। आखिर ताजमहल, तख्तेताऊस, बड़े-बड़े मीनार, प्रासाद उसी शौक के विविध संस्करण है। इन दिनों व्यवस्था को भौतिक निर्माण के नित नये कीर्तिमान रचने की जिद्द है। “चतुर शहर’’, ’’बुलेट ट्रेन’’, ’’संसद का पुनर्निर्माण’’ इसके कुछ उदाहरण हैं। कौन इनके विरोध की हिमाकत कर सकता है? अलबत्ता खुद को “मूढ़’’ मानो या फिर देशद्रोही होने का दंश झेलो। आवाम का कर्तव्य है कि हुक्मरानों की हर जिद्द, हर ख्वाहिश, हर हुक्म का पालन करें।
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ऐसे ही एक दौर में व्यवस्था ने अब तक की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित कराई। प्रतिमा “स्टैच्यु ऑफ युनिटी’’ कहलाती है। “एकता की प्रतिमा’’ बिखरती मानवता को मुंह चिढ़ाती है। विडम्बना है कि सरदार सरोवर से कुछ ही दूरी पर स्थित यह प्रतिमा अन्याय, शासकों की असंवेदनशीलता और दमन का नया नमूना बनकर रह गई है।
दूर से सब कुछ बिल्कुल ठीक लगता है। हजारों पर्यटक लाईन मे खड़े दिखाई देते हैं। बसाहट किसी तथाकथित विकसित मुल्क के बड़े शहर की झलक दे जाती है। “श्रेष्ठ भारत’’ की गगनचुम्बी इमारत भव्य दिखाई पड़ती है। अभ्यारण्य, क्रूज की आगामी निर्माण योजना से “विकास’’ का सीना चौड़ा हो जाता है। मगर करीब जाते जाते परतें खुलती हैं। तकरीबन तीन हज़ार करोड़ की लागत से बनी प्रतिमा आजादी को बौना करती है, जब केवडिया काॅलोनी और आसपास के गांव पानी के लिए त्राही-त्राही करते हैं।
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इतने पैसों में शायद पूरे गरुडेश्वर तहसील को पानी से लबालब किया जा सकता है। वैसे भी नदी को मात्र सरोवर बनाकर छोड़ दिया। जहां बांध बना वहीं की धरती प्यासी है। नर्मदा नहर के दांयी ओर बसे अठाईस गांव को पानी की एक बूंद नहीं मिलती। क्षेत्र के जनसमाज ने प्रतिमा निर्माण में कोई अड़चन नहीं डाली। हालांकि तेरह गांव की जमीनें अधिग्रहित हुईं।
फिर व्यवस्था की कलई खुलती गई। “श्रेष्ठ भारत’’ का भवन बड़े नामी होटल समूह को भेंट दे दी गई। जबकि कहा यह गया था कि यह भवन पुस्तकालय के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। जनसमाज की हजारों एकड़ जमीन पर तैंतीस राज्यों के अपने अपने बड़े भवन निर्माण की योजना सामने आई। वहीं “प्रतिमा’’ के एक ओर महिलाएं चाय-नाश्ते की छोटी टीन से बनी गुमटियां चलाती हैं। उन्हें खदेड़ा जा रहा है। उनका दोष यह है कि वे प्रतिमा परिसर के भीतर दो सौ में बिकते नाश्ते को बाहर बीस रुपये में बेचती हैं। आखिर कभी कोई समृद्ध देश का राष्ट्राध्यक्ष आया तो वो क्या सोचेगा?
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कहीं किसी स्थानीय को काम नहीं। एम.बी.ए. पास एक आदिवासी नवयुवक से कहा गया कि चपरासी के अतिरिक्त और किसी पद पर स्थानीय को रोजगार नहीं दिया जा सकता। केवडिया काॅलोनी और छह आसपास के गांव में बसे जनसमाज को अभी तक सरदार सरोवर के कारण हुए विस्थापन का तो मुआवजा मिला ही नहीं। इनमें लिमडी भी शामिल है, जहां के तेरह किसान आज भी राशि का इंतजार कर रहे हैं। अब नये विस्थापन की तलवार लटक रही है। किसकी कितनी जमीन अधिग्रहित होगी। किसी को खबर नहीं।
गुजरात की विधान सभा ने पूरे क्षेत्र को “विकास प्राधिकरण’’ मे तब्दील कर दिया है। कहते हैं कि अभी तो चौदह गांव की जमीनें अधिग्रहित होंगी। धीरे-धीरे इनकी “विकास योजना’’ में पूरी तहसील की जमीनें लील हो जाएंगी। करीब बहत्तर गांव प्रभावित होंगे। इन गांवो से कुछ पूछा नहीं गया। आखिर इनकी काहे की मर्जी? इनकी इतनी हिम्मत की अपनी मर्जी बनाएं!
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यह सारा इलाका संविधान में दर्ज पांचवी अनुसूची के अंतर्गत है। जनसमाज पीढ़ियों से रहता आया है। अधिग्रहण के बाद अनुसूचित क्षेत्रों मे पंचायतों के विस्तार का कानून (पेसा) निष्प्रभावी हो जाएगा। जनसमाज गांव से भी खदेड़ा जाएगा या पलायन के लिए बेबस हो जाएगा। जमीन नहीं होगी, स्थानीय रोजगार नही होगा तो गुजर बसर कैसे होगी?
“विकास प्राधिकरण’’ के बोझ तले सारे लोकतांत्रिक जनाधिकार दब जाएंगे। यह कानून अपने आप में लाजवाब है। देश का कदाचित पहला ही कानून है जो कि प्रधानमंत्री को नामजद समर्पित है। इस कानून में “सार्वजनिक उद्देश्य’’ के लिए कानून को मान्य किया गया है। हुक्मरानों के “सार्वजनिक उद्देश्य’’ के मायने निराले हैं। पर्यटन के लिए हर प्रदेश का पंच सितारानुमा भवन, सीप्लेन, क्रूज उसका पर्याय है। प्राधिकरण के बनते ही गांव अपनी पंचायत चुनने का हक खो देंगे।
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भले ही संविधान की पांचवी अनुसूची जनसमाज के सामुदायिक जनतांत्रिक हक को संरक्षित क्यों न करती हो? वे खदेड़े जाएंगे। उनकी जमीन पर उनका खेती करना, छोटी दुकान लगाना “अवैध’’ काम माना जाएगा। उनका विरोध “न्यूसेंस’’ की श्रेणी मे आएगा। रोजगार तो उन्हें अभी तक भी दिया नहीं गया। ऐसा लगता है कि आदिवासी समाज की मौजूदगी ही इस कानून में परोक्ष रुप से “अवैध’’ है। बाकि सब “सार्वजनिक उद्देश्य’’ है।
इस प्राधिकरण के फितूर का मूल्य कम से कम दस हजार करोड़ होगा। इतने मूल्य में मध्य प्रदेश, महराष्ट्र के सभी विस्थापितों को भरपूर न्याय मिल सकता है। लोग न्यायपालिका के दरवाजे पर दस्तक देना चाहते हैं। मगर अब हाथ कांपने लगे हैं। भरोसा उठ रहा है। क्या पता किस किसकी साठगांठ है?
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पास में उसी तहसील में बसे कुछ गांव हैं। जहां मध्य प्रदेश का बांध विस्थापित जनसमाज बीस साल से बसा है। ऐसी ही एक बसाहट गुंताल में रात बिताने पर ऐसा महसूस हुआ जैसे कि वे केवल बीस दिन पहले आये हों। किसी प्रदेश को उनसे कोई मतलब नहीं। उन्हें अपनी उपजाऊ जमीन के बदले खराब जमीन मिली। आज भी आरोग्य सेवा निर्माणाधीन है। टीन लगे छोटे-छोटे घर हैं, पशुओं के लिए कोई गोचर नहीं। अनेक बार गुहार लगाने के बाद भी जमीन बदली नहीं गई। वे थक गए हैं।
थोडी दूरी पर एक नहर है, जिसकी हर साल मरम्मत गांव वालों को खुद करनी पड़ती है। व्यवस्था उसमें पैसा नहीं लगाती। बड़ी अजीब बात है। जिंदा लोगों के लिए साधन सीमित है। “बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती’’ की याद हो आती है।
इस असंवैधानिक “विकास प्राधिकरण’’ कानून के विरोध की अनुगूंज व्यवस्था के गलियारों में अनसुनी कर दी जाती है। क्या इतनेे संसाधनों में पूरे क्षेत्र को सिंचित कर देना “खेडा सत्याग्रह’’ के महानायक के प्रति ज्यादा बड़ी श्रद्धांजलि नहीं होती। 31 अक्टूबर को उनकी जयंती थी और 15 दिसम्बर को उनका स्मृति दिवस। इसको मनाने के लिए कोरोना काल मे भी व्यापक तैयारियां हुईं। कोरोना काल मे भी आस पास के गांव मे तार बिछाये जा रहे हैं और लोगों को खदेड़ने की तैयारी है। अवाम का बडा तबका या तो खामोश तमाशबीन बन गया है। या फिर आलीशान दिखाई पड़ते निर्माण ने उसे अवाक् कर दिया है।
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देश की संसद जिस दिन नागरिकता कानून बना रही थी। उसी दिन गुजरात ने क्षेत्र को “विकास प्राधिकरण’’बनाने का कानून पारित किया। व्यवस्था कहती है कि शरणार्थियों को नागरिक बनाएंगे। यहां तो जगह जगह पर नागरिक शरणार्थी से होते जा रहे हैं। विरोध करने पर नजरबंद होते हैं। जमीनों की सिचांई के लिए बाट जोहते रह जाते हैं। उनके जानवर, उनकी आस्था के स्थान पुर्नबसाहट की एक दशक से राह देखते हैं, रोजगार के छीने जाने का दंश झेलते हैं, चकाचौंध भरे “प्रतिमा क्षेत्र’’ के महंगे बाजारु फूड कोर्ट के सामने स्वावलंबन के घुटने मोड़े जाते हैं। आसपास के वन तो कभी के विकास ने लील लिए। सो वनाधिकार तो प्रश्नों से परे है।
“प्यासा’’ फिल्म के गीत के बोल बरबस अवचेतन मे आते हैं। “दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?’’ नागरिक हो भी जाएंगे तो क्या है? एकता के नाम पर स्थापित एकाधिपत्य और एकाधिकार की प्रतिमाएं, न्याय, समता, अधिकार को निगलती रहेंगी। उस तथाकथित एकता की प्रतिमा को गौर से देखो तो सरदार पटेल की आंखो से दारुण व्यथा टपकती नजर आती है। आज जीवित न होने की वेदना दिखाई पड़ती है। आज वे होते तो यह होने नहीं देते। प्रतिमा के विरुद्ध सत्याग्रह करते।
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