हम सब जानते हैं कि लोकतांत्रिक हों या साम्राज्यवादी, सरकारें लड़ाइयां जीत कर ही बनती हैं जिनका इतिहास अक्सर जीतने वाला ही एक एजेंडे के तहत लिखवाता है। इसलिए सरकारी इतिहास में कई चीजों को छुपा दिया जाता है। सरकारी लाइब्रेरियों, शिक्षा पाठ्यक्रमों और विश्वविद्यालय आयोग आदि से जो इतिहास के नाम पर मिलता है, वह विजेता के ग्रंथागारों की बहियों में दर्ज सैनीटाइज्ड इतिहास होता है और हमको वह मोटे घटनाक्रम, तारीखें और सूखे ब्योरे भर देता है। भीषण रक्तरंजित बदलाव के बीच उस वक्त के राज समाज पर क्या बीती होगी, इसका ईमानदार और तकलीफदेह ब्योरा जानना हो, तो वह हमको सिर्फ पेशेवर इतिहासकारों की किताबों और साहित्य में ही मिलेगा। खासकर सत्ता द्वारा जलाई या प्रतिबंधित की हुई पुस्तकों में। सिर्फ वही खुल कर उस नकली श्रेष्ठतावाद के पोलेपन, पाखंड और धार्मिक आर्थिक शोषण से टूटते समाज की शक्ल हमको दिखाता है जो सरकारें दफना देना चाहती हैं।
मंटो के अफसाने इसके उदाहरण हैं। खुद उन्होंने 1947 में हुए भारत-पाक विभाजन को पागलपन करार दिया था। वे उम्र भर एक विवादास्पद लेखक रहे जिनकी किताबें और कहानियां सीमा के आर-पार प्रतिबंधित हुईं। वे जेल गए, पागलखाने भी और शराब पी-पी कर कम उम्र में ही चल बसे। आज जब प्रतिगामी ताकतें हमको फिर से उसी 1937-47 के पागल दशक की तरफ ले जा रही हैं, भारत-पाक के बीच पागलखानों के पागलों के बंटवारे के पागलपने पर मंटो की झकझोरनेवाली कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ याद आती है। ‘इधर खारदार (कंटीले) तारों के पीछे हिंदोस्तान था। उधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरम्यान में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था।’
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मंटो के करीब तीनेक दशक बाद भीष्म साहनी ने विभाजन पर ‘तमस’ लिखा। उसका यह वाक्य आज सीधे संघ के कुछ नेताओं द्वारा हिन्दुओं को दी जा रही तलवार, त्रिशूल या तीर कमान जमा करने की सलाहों में फिर प्रतिध्वनित हो रहा है: ‘… सभी लोगों के बैठ जाने पर पुण्यात्मा जी धीर-गंभीर आवाज में बोले, सबसे पहले अपनी रक्षा का प्रबंध किया जाना चाहिए। सभी सदस्य अपने घर में एक एक कनस्तर कड़वे तेल का रखें। एक-एक बोरी कच्चा या पक्का कोयला रखें। उबलता हुआ तेल शत्रु पर डाला जा सकता है। जलते अंगारे छत से फेंके जा सकते हैं।’
जब दूरदर्शन ने विभाजन और सांप्रदायिकता की विभीषिका का चित्रण करने वाले उपन्यास तमस के सीरियल का प्रसारण शुरू किया, तो कोई श्री दलाल अदालत चले गए कि इसे रोका जाए क्योंकि उस पागलपन के सजीव चित्रण से पैदा हुआ संभावित उन्माद देश की सांप्रदायिक सुरक्षा को तोड़ सकता है। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और वह एक बहुत सामयिक और लोकप्रिय सीरियलों में से एक साबित हुआ।
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लेकिन इधर गैर हिन्दू समूहों के खिलाफ चेतावनियां और तथाकथित सनातनी रूढ़ियों का नाटक फिर बढ़ रहा है। जहांगीरपुरी में हिंसा और बुलडोजरी विध्वंस के बाद अब हनुमान चालीसा के सार्वजनिक पाठ की जिद और उसको लेकर फेंटा जा रहा उन्माद उदाहरण है। ऐसे तमाम आयोजन कोई नया या सुधारवादी काम नहीं करते। सिर्फ रिकार्ड तोड़ महंगाई, बेरोजगारी, महामारी की बढ़ती छाया और यूरोप में तीसरे महायुद्ध की ठोस यथास्थिति से परेशान जनता को फिर 1947 जैसे पागलपन की तरफ हांकते हैं। कानून का और सरकारी पुलिसिया अमले का जो इस्तेमाल हो रहा है, वह और भयावह है।
सरकार की सारी ताकत उसके चुनाव दर चुनाव साम्राज्य विस्तार करते हुए केन्द्र में टिके रहने में खर्च होने से प्रांतीय क्षत्रप लगातार मजबूत हो रहे हैं। इस बात को हम संघीय गणराज्य की ताकत का प्रतीक मान कर संतोष कर सकते थे। लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि वे भी ‘फूट डालो राज करो’ का वही सरल फार्मूला अपनाने लगे हैं। ‘राम ते अधिक राम कर दासा’। लिहाजा दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास पर सारी सुरक्षा तोड़ कर बलवाई नारेबाजी करने पहुंच जाते हैं। असम सरकार पुलिस भेज कर प्रधानमंत्री जी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी का आरोप लगा कर गुजरात के निर्वाचित जनप्रतिनिधि विधायक जिग्नेश मेवाणी को पकड़ बुलाती है और सीधे हिरासत में भेज देती है। जैसे ही कोर्ट उनको उस आरोप से बरी कर दे, तो दूसरा आरोप लगा कर फिर हिरासत में वापस भेज देती है।
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उधर, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को अमरावती से निर्वाचित एक निर्दलीय लोकसभा सदस्या चुनौती देती हैं कि मंदिर-मस्जिदों में लाउडस्पीकर के प्रतिबंध पर आपत्ति दर्ज कराने को वह मुख्यमंत्री आवास के सामने बैठ कर हनुमान चालीसा का सस्वर पाठ करने जा रही हैं। उनको भी गिरफ्तार करके पति सहित हिरासत में भेज दिया गया है। खबर के लिखे जाने तक वे वहीं हैं और कानून, जिसे कहते हैं, अपना काम कर रहा। लो कल्लो बात !
कहने को अस्थिरता और दूसरे विभाजन का हौव्वा उन लोगों द्वारा खड़ा किया जा रहा है जो मौजूदा सरकार को धराशायी देखना चाहते हैं। पर संभव है कि वंशवाद के विरोधी और सनातन धर्म की सार्वजनिक गलाफाड़ घोषणा के पक्षधर भी अपने हित स्वार्थों के तहत यथास्थिति कायम रखना चाहते हैं। अंतिम बात को इससे बल मिलता है कि वंशवाद विरोधी दल बहुत बड़े पैमाने पर जाने-माने राजनैतिक तथा सामंती घरानों के चिरागों को विपक्ष से तोड़ कर उनसे अपने महल में दिवाली मना रहे हैं।
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अगर भारत में (भगवान न करें) कभी पाकिस्तान जैसी सैन्य तानाशाही या श्रीलंका जैसे दिवालियेपन की नौबत आई, तो उसे विपक्ष या लेखक नहीं लाएंगे। वह इसलिए आएगी कि बढ़ती गरीबी और बिगड़ते पर्यावरण के कारण दर -बदर होती जनता में नीचे से उठ रहे भीषण असंतोष का यथा समय इलाज करने में मौजूदा प्रणाली सक्षम नहीं दिखती। न आर्थिक तौर से, और न ही प्रशासनिक तौर से। राज्य की दमनकारिता कुछ दूर तक ही ले जाती है। बहुत दूर नहीं। अमेरिका भारत में मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक आजादियों के विघटन पर नजर रखने की गंभीर चेतावनी सभ्य तरीके से दे चुका है। उसे अब किसी झूले में झुलाकर, चाय पिलाकर या साबरमती ले जाकर बापू का चरखा कतवाकर टरकाया नहीं जा सकता।
भारत ही नहीं, सारी दुनिया में शक्ति का पुनर्वितरण जारी है। लोकतंत्र की मिसाल अमेरिका में दुनिया का सबसे बड़ा थैलीशाह मीडिया के महामंच ट्विटर का एकछत्र मालिक बन गया है और किसी को पता नहीं कि अभिव्यक्ति की आजादी का वह कैसा हाल करेगा। यूक्रेन में कल तक कॉमेडी करने वाला कलाकार तन कर रूस के महाबली पुतिन के सामने दीवार बना खड़ा है। और यूरोप घबराए राजहंस की तरह ‘न ययौ न तस्थौ’ बन कर इधर-उधर टिप्पस भिड़ा रहा है। भारत को अपना खास दोस्त बता गए बोरिस जॉनसन का बोरिया-बिस्तरा भी जानकारों की राय में ट्रंप की तरह बंधने जा रहा है। भारत द्वेष ने पाकिस्तान को पैदा किया था, उसी ने उसको पचीस सालों में तोड़ दिया। भारत भी बच रहना चाहता है, तो उसे अपने मौजूदा अल्पसंख्य द्वेष से उबरना होगा। अभी जो जहरीले सांपों की पिटारी खोल दी गई है, उससे क्या-क्या निकलेगा, इसकी भविष्यवाणी कोई ज्योतिषी या सरकारी इतिहासकार नहीं कर रहा है।
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