नरेंद्र मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था का कितना बुरा हाल कर रखा है, यह तो आंकड़ों से साफ है। अगली सरकार को विरासत में मिली बेरोजगारी से त्रस्त लचर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। वित्त मंत्रालय के आर्थिक कामकाज विभाग की ताजा मासिक रिपोर्ट ने मोदी के मजबूत अर्थव्यवस्था के दावों पर पानी फेर दिया है।
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इस रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि कमजोर निजी निवेश, निजी खपत में उम्मीद से कम बढ़ोतरी और निर्यातों में ठहराव की वजह से वित्त वर्ष 2018-19 में भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार कमजोर हुई है। अरसे से अर्थव्यवस्था की चाल निर्धारित करने वाले कई कारक निढाल पड़े हुए हैं और कई क्षेत्र विशेषकर कृषि और मैन्यूफैक्चरिंग पस्त पड़े हुए हैं। नतीजन बेरोजगारी भी 45 सालों के चरम पर है।
गौरतलब है कि 2018-19 की तीसरी तिमाही अक्टूबर-दिसंबर में विकास दर 6.6 फीसदी रह गई, जो पिछली छह तिमाहियों में सबसे धीमी गति है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने भी 2018-19 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर का अनुमान 7.2 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी कर दिया है। कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी भारतीय विकास दर के अनुमानों को पहले ही घटा चुकी हैं। इसलिए किसी को कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि पांच सालों से अपनी आर्थिक उपलब्धियों का ढोल पीटने वाले नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में आर्थिक उपलब्धियों का बखान करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।
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उनके भाषणों, साक्षात्कारों में कृषि, रोजगार के मुद्दे सिरे से गायब हैं, जिन्हें लेकर विपक्षी दल काफी हमलावर हैं। इन मुद्दों का जवाब देने के बजाए मोदी ने अपने चुनावी भाषणों को कांग्रेस को गरियाने, गठबंधन को कोसने और राष्ट्रीय सुरक्षा तक सीमित कर लिया है। हाल में जो नए आर्थिक आंकड़े आए हैं, वे मौजूदा आर्थिक बदहाली को दर्शाने के लिए पर्याप्तहैं।
पिछली फरवरी में औद्योगिक उत्पाद सूचकांक की वृद्धि दर महज .01 फीसदी रही, जो पिछले 20 महीनों में सबसे न्यूनतम है। पिछली अक्टूबर- दिसंबर तिमाही में पेट्रोलियम की खपत वृद्धि दर पिछली सात तिमाहियों में सबसे न्यूनतम स्तर पर रही है। वित्त वर्ष 2018-19 में बिजली उत्पादन 3.56 फीसदी बढ़ा है, जो पिछले पांच सालों में सबसे न्यूनतम बढ़ोतरी है। इस वित्त वर्ष में यात्री कार उद्योग महज तीन फीसदी बढ़ा है, जो पिछले पांच सालों में सबसे कम है। इस वित्त वर्ष में कॉरपोरेट बिक्रीऔर कुल स्थायी परिसंपत्तियों की वृद्धि उत्साहवर्धक नहीं है। तैयार स्टील का उत्पादन पिछले पांच सालों में सबसे निचले स्तर से दूसरे पायदान पर है।
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मोदी सरकार ने कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय (ईपीएफओ) के आंकड़ों को रोजगार सृजन में वृद्धि बताने का नया नायाब फॉर्मूला ईजाद किया है। यह फॉर्मूला भी मोदी सरकार का साथ छोड़ गया है। पिछले अक्टूबर से इस कार्यालय के आंकड़ों में औसत मासिक रोजगार सृजन में 26 फीसदी की गिरावट आई है। ये सब आंकड़े भारतीय अर्थव्यवस्था में पसरे धीमेपन को दर्शाते हैं।
किसी भी अर्थव्यवस्था की चाल-चमक चार बड़े आर्थिक कारक निर्धारित करते हैं। निजी निवेश (निजी क्षेत्र का नई परियोजनाओं में निवेश), सार्वजनिक निवेश (आधारभूत ढांचे और विकास में सरकारी निवेश), घरेलू उपभोग (देश में वस्तुओं-सेवाओं का उपभोग), और बाह्य उपभोग (वस्तुओं-सेवाओं का निर्यात)। सरकारी निवेश को छोड़कर बाकी कारक अरसे से पटरी से उतरे हुए हैं।
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निजी क्षेत्र का निवेश अरसे से पस्त है। लेकिन मोदी सरकार और उनके वित्त मंत्री वस्तुऔर सेवा कर (जीएसटी) और आयकर संग्रह की दुहाई देकर इसे नकारते रहे हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार 2018-19 में तकरीबन 9.5 लाख करोड़ रुपये के नए निवेश प्रस्ताव आए, जो पिछले 11 सालों का सबसे न्यूनतम स्तर है। 2006-07 से 2010-11 के दरमियान औसत 25 लाख करोड़ रुपये के सालाना नए निवेश प्रस्तावों से बहुत कम हैं।
देश की अर्थव्यवस्था पर नजदीकी निगाह रखने वाली प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी (सीएमआईई) के अनुसार कुल निवेश में निजी क्षेत्र का योगदान कमोबेश दो तिहाई रहता है। पर पिछले पांच सालों में यह योगदान गिरकर 47 फीसदी रह गया है, जो रोजगार की बदहाली का प्रमुख कारण है।
जीडीपी अनुपात में सकल स्थायी पूंजी निर्माण दर 2017-18 में 28.5 फीसदी रह गई, जो 2012-13 में 34.3 फीसदी थी। 2008-09 में यह अनुपात तकरीबन 36 फीसदी था। अर्थव्यवस्था में सकल स्थायी पूंजी निर्माण ही मांग, उपभोग निवेश और रोजगार के स्तर को निर्धारित करता है। यह जितना अधिक होगा, अर्थव्यस्था की चमक उतनी ज्यादा होती है।
निर्यात के मोर्चे पर मोदी सरकार का प्रदर्शन पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार के कामकाज से काफी कमजोर रहा है। 2014 में सत्ता पर काबिज होते ही मोदी सरकार ने निर्यात बढ़ाने के लिए काफी लंबी-चौड़ी योजनाएं बनाई थीं। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया। मोदी ने बड़े दम-खम से शिक्षकों के निर्यात की बात की थी। लेकिन यह सारे दावे, वादे और योजनाएं धरी की धरी रह गईं। मोदी राज में निर्यात की वृद्धि दर न के बराबर रही है।
2008-09 में भारतीय निर्यात 8.4 लाख करोड़ रुपये का था, जो 2013- 14 में बढ़कर 19 लाख करोड़ रुपये का हो गया यानी 126 फीसदी की जबरदस्त वृद्धि। मोदी राज में निर्यात कुल बढ़कर 2018-19 (फरवरी 19 तक) में 20.8 लाख करोड़ रुपये हुआ है, यानी महज 10 फीसदी की वृद्धि। समग्र नीति के अभाव में टेक्सटाइल, चमड़ा, जवाहरात-आभूषण, कृषि उत्पाद जैसे परंपरागत सामानों के निर्यात में भारत की प्रतिस्पर्धी क्षमता कम हुई है।
2013-14 की तुलना में चमड़ा और कृषि उत्पादों का निर्यात 2018-19 में कम हो गया है। निर्यात के ये सभी परंपरागत क्षेत्र श्रम मूलक हैं। किसी अर्थव्यवस्था की चमक-चाल देश के निर्यातों से जुड़ी होती है। निर्यातों में अनिश्चितता, अस्थिरता और जड़ता का आर्थिक विकास पर गहरा और व्यापक प्रतिकूल असर पड़ता है। कम निर्यात का अर्थ है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में देश की क्रय शक्ति कम होना, जिसका सीधा असर विनिमय दर पर पड़ता है। वित्त मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में चेताया गया है कि असल प्रभावी विनिमय दर बढ़ी है, जो निकट भविष्य में निर्यात बढ़ाने में बड़ी बाधा बन सकती है।
कृषि की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। मोदी राज में कृषि विकास दर काफी कम हुई है। मोदी सरकार ने कृषि कल्याण के लिए अनेक दावे किए, पर जमीनी हकीकत उनसे उलट है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के 52 फीसदी से ज्यादा किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। किसानों का औसत कर्ज एक लाख रुपये से ज्यादा है। यह कर्ज किसानों के लिए गले का फंदा बन गया है।
प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को एक अभेद कवच के रूप में मोदी सरकार ने पेश किया था। पर इस योजना से किसानों को लाभ कम, नुकसान ज्यादा हुआ है। किसानों की आय को 2022 तक दोगुना करने का वादा मोदी ने एक बार नहीं कई बार किया। हकीकत यह है कि मोदी राज में किसानों की वास्तविक आय में बेहद मामूली वृद्धि हुई है। मोदी का यह वादा भी जुमला बन कर रह गया है।
आज हालात यह है कि अधिसंख्य किसान उत्पादन लागत नहीं निकाल पा रहे हैं, क्योंकि कृषि उत्पादों की कीमतें बाजार में नहीं बढ़ी हैं, पर खेती लागत में दिन प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। कहना न होगा कि खेती मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई है, जो सबसे ज्यादा रोजगार देती है। रोजगार के सृजन के लिए कई कहानियां मोदी सरकार ने गढ़ीं।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया था कि मुद्रा योजना के शुरू के दो सालों में 7.28 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। पर चुनावी भाषणों में इस ‘महान उपलब्धि’ को बताने में भाजपा को शर्म आती है। वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट का संदेश साफ है कि केंद्र की अगली सरकार को विरासत में लचर और कमजोर अर्थव्यवस्था मिलेगी, जिसके सामने कृषि क्षेत्र को उबारने, कुल निवेश में बढ़ोतरी करने, निर्यात को तेज करने और रोजगार अवसरों में वृद्धि करने जैसी दुसाध्य चुनौतियां होंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक अमर उजाला के कार्यकारी संपादक रहे हैं)
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