आमतौर पर यह गलत धारणा है कि हिंदी पट्टी एक समान इकाई है। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश को मिलाकर बीमारू राज्य शब्द काफी प्रचलित हुआ, और हरियाणा वास्तव में ऐतिहासिक और सामाजिक स्थितियों से इसके साथ जुड़ा हुआ है। आबादी के बहुत ज्यादा घनत्व के साथ पिछड़ी यह पट्टी आजादी के पहले संग्राम की गवाह रही है, जो सामाजिक हकीकतों से अनुकूलित है और पलायन को बढ़ाने वाली है।
इसने भाषा के रूप में हिंदी के विकास में पुनर्जागरण का नेतृत्व किया। लेकिन इन राज्यों में से हर राज्य में बोली जाने वाली हिंदी की अपनी स्थानीय विविधताएं हैं, जो भोजपुरी, मगही, मैथिली, बुंदेली, बघेली और हरियाणवी आदि बोलियों से प्रभावित हुई है। इसने क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक मानसिकता को नए सिरे से गढ़ा। इसलिए हिंदी भाषी राज्यों को एक समरूप इकाई के रूप में सोचना भ्रामक है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और बाद, दोनों ही समय में इस क्षेत्र को कांग्रेस और उसके समावेश और समानता के सिद्धांतों को अपनाने में बहुत कम परेशानी हुई। इसे समाजवादी आंदोलन ने चुनौती दी, जो इसी क्षेत्र में उपजा और पनपा। बाद के वर्षों में हिंदुत्व की कसमें खाने वाले दलों और संगठनों का भी प्रभाव हुआ।
बहरहाल, हिंदी पट्टी में कांग्रेस की धारा अस्सी और नब्बे के दशक में कमजोर पड़नी शुरू हुई। कांग्रेस के लिए उसकी धारा का कमजोर पड़ना लंबे समय तक रहा। ब्राह्मण और ऊंची जातियां, मुसलमान और दलित लंबे समय तक कांग्रेस का मुख्य आधार रहे। हालांकि इनमें से कई बहुत से कारणों और धर्म और जाति के अर्थों में ‘पहचान’ के उभार की वजह से उससे छिटकते गए और उन्होंने दूसरों दलों का दामन थाम लिया।
हालांकि, बहुत लंबे समय बाद कांग्रेस क्षेत्र में अपनी खोई हुई जमीन को फिर से हासिल करने के लिए गंभीर प्रयास करती दिख रही है। तीन दशकों के अंतराल के बाद पटना में आयोजित शानदार सार्वजनिक रैली में पार्टी का आत्मविश्वास और दृढ़निश्चय साफ दिखाई दिया।
उत्तर प्रदेश में भी वह अपने मजबूत कदम आगे बढ़ाती हुई दिख रही है। प्रियंका गांधी का आगमन और उनको पूर्वी उत्तर प्रदेश में पार्टी को फिर से खड़ा करने की जिम्मेदारी देना एक और संकेत है कि पार्टी इस दिशा में काफी गंभीर है। लेकिन मात्र आक्रामकता काम नहीं करती। कांग्रेस के नेताओं को यह समझना होगा कि हिंदी पट्टी जातीय आधारों पर पूरी तरह से विभाजित है, यहां ‘वर्ग’ कारक भी महत्वपूर्ण है।
हालांकि मजदूर, किसान और मध्य वर्ग समरूपी समूह नहीं हैं। एक तो वे किसान हैं जिनके पास जमीन है, लेकिन ऐसे किसानों की संख्या बहुत अधिक है जो भूमिहीन हैं। इनमें अंतर करना जरूरी है, क्योंकि ऋण माफी जैसी रियायतें भूमिधर किसानों को आकर्षित कर सकती हैं लेकिन भूमि हीन किसानों की इसमें बहुत कम रुचि होगी।
यह हिस्सा भूमि सुधार के लिए तरस रहा है, लेकिन यह करने के बजाय कहना आसान है और कोई भी राजनीतिक दल भूमिधर किसानों के समर्थन में कटौती का खतरा उठाने की नहीं सोच सकता। इसके समान ही हिंदी पट्टी में जाति की पहचान का मसला भी बहुत जटिल है, जो अक्सर वर्ग के साथ ओवरलैप हो जाता है।
एक ऐसी रणनीति को खोजना जो सरल और लोकप्रिय हो, साथ ही जटिल जातीय धड़ों के इर्दगिर्द सरल संदेशों के रूप में विकसित हो, एक राजनीतिक चुनौती है। इसका सबसे अच्छा दांव जाति और समुदाय के इंद्रधनुषी गठबंधन को विकसित करने में है। यद्यपि ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों में अपने पुराने आधार को पुनर्जीवित करना जाहिर है कि एक शुरुआती चरण है। यह अच्छी तरह से ध्यान रखना होगा कि इन समूहों के उप-समूहों और उप-जातियों के रूप में बहुत सारी परतें हैं। यह जरूरी नहीं है कि वे एक-दूसरे को भाते हों और निश्चय ही वे अखंड समूह नहीं हैं।
बिहार में उद्धृत करने के लिए दलित एक उदाहरण हैं जो अनेक मजबूत उपजातियों चमार, दुसाध, मुसहर आदि नामों में विभाजित हैं। हालांकि रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी को दुसाधों और मुसहरों के बीच अच्छा समर्थन हासिल है, कांग्रेस को अन्य नेता पैदा करने और इन समूहों में पैठ बनाने की जरूरत है।
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में दलितों को अपने पक्ष में करने के लिए बीएसपी के सामाजिक आधार में अपनी जगह बनाने की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच मायावती के खिलाफ बढ़ते मोहभंग के साथ और दलित युवकों को प्रभावित करने वाले चंद्रशेखर जैसे युवा नेताओं के साथ नया गठबंधन उत्तर प्रदेश में जाटवों के एक वर्ग को अपने पक्ष में करने में कांग्रेस के लिए मददगार हो सकता है।
यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण होगा कि अकेले उत्तर प्रदेश में 60 से अधिक दलित समुदाय हैं। उनमें से करीब 40 के पास कोई बड़ा नेता नहीं है और इसलिए पार्टियों द्वारा राजनीतिक जोड़-घटाव में उन्हें शामिल नहीं किया जाता। इन समूहों में धोबी, कोरी, हार, बेगार, बधिया और बनसोर इत्यादि हैं। राजनीति में अभी इनकी आवाज सुनी जानी है और उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त करना है। पार्टी के समक्ष इन गैर-जाटव दलित समुदायों को अपने पक्ष में करने का भी एक विकल्प है।
इन समूहों के बीच राजनीतिक नेतृत्व विकसित करना और उन्हें राजनीतिक महत्व प्रदान करना, जिसका उन्हें लंबे समय से इंतजार रहा है, दूरगामी रूप से काफी फायदे वाला साबित हो सकता है। इन अपेक्षाकृत छोटी और हाशिये वाली दलित जातियों के बीच जमीनी सामुदायिक नेताओं की तलाश उतनी चुनौतीपूर्ण नहीं है जितनी लगती है। उन्हें लंबे समय तक उपेक्षित रखा गया है, जबकि वे अवसरों और राजनीतिक मंचों को हथियाने के इंतजार में हैं।
वास्तव में, ब्राह्मणों और मुसलमानों के बीच अपने पुराने आधार को पूर्व रूप में लाना अपेक्षाकृत ज्यादा आसान हो सकता है। हिंदी पट्टी में कांग्रेस के जनाधार खोने के पीछे के कारणों में से एक जमीनी स्तर पर इसके ढांचे का ध्वस्त हो जाना रहा है। उस ढांचे को नए सिरे से खड़ा करना और जमीनी नेताओं को तैयार करना तथा स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं को विकसित करने को महत्व प्रदान कर पार्टी को फिर से खड़ा किया जा सकता है।
हिंदी पट्टी में कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करना न केवल पार्टी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी बहुत निर्णायक है। कहा जा सकता है कि यह काफी आसान है, प्रभावी संदेशों के जरिये, जमीनी स्तर पर एक समावेशी और उदार राजनीतिक पार्टी और संगठन को नए सिरे से तैयार किया जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के लिए हिंदी पट्टी में जिस तरह की उत्सुकता दिखाई दे रही है, वह उस पार्टी के लिए शुभ लक्षण कहा जा सकता है जिसे लंबे समय से हिंदी पट्टी में खुद को नए सिरे से खड़ा करने की प्रतीक्षा थी।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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