समाज के कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों के उल्लंघन और उनके खिलाफ हिंसा के पीछे अक्सर बेबुनियाद धारणाएं होतीं हैं। भारत में सन 1980 के दशक के बाद हुई कई घटनाओं से मुसलमानों के बारे में गलत धारणाएं बनीं और उनके प्रति नफरत का भाव पैदा हुआ। वैसे तो स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान उभरी सांप्रदायिक राजनीति के चलते मुसलमानों के बारे में नकारात्मक सोच ने काफी पहले हमारे समाज में जडें जमा ली थीं। तब से हालात बिगड़ते ही गए हैं।
मुसलमानों के दानवीकरण का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया जा रहा है। चाहे रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद हो या पवित्र गाय का मुद्दा- हर मसले, हर विवाद का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ वातावरण बनाने के लिए किया जाता है। अब इस अभियान में नया मुद्दा जुड़ गया है- कोरोना वायरस का। इस तरह की राष्ट्रीय आपदा से निपटने के लिए हमें एक होने की जरुरत है। परन्तु सांप्रदायिक तत्त्व, जिनमें ‘गोदी मीडिया’ शामिल है, इस त्रासदी के बीच भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। इस संकट में भी इनकी भूमिका घोर निंदनीय है।
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मीडिया के एक बड़े हिस्से का पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया स्पष्ट देखा जा सकता है। ऐसा दिखाने की कोशिश की जा रही है कि भारत में कोरोना संक्रमण के प्रसार के लिए दिल्ली के निजामुद्दीन में स्थित तबलीगी जमात का मरकज़ ही ज़िम्मेदार है। यह सच है कि तबलीगी जमात ने ऐसी भूल की, जिसके कारण संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ा, लेकिन इसी तरह की गलतियां देश के अनेक संगठनों और यहां तक कि सरकारों ने भी कीं।
अगर दस दोषियों में से हम केवल किसी एक को निशाना बनाएं तो क्या यह अनुचित नहीं है? क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि हम कुछ हासिल करना चाहते हैं, हमारा कोई गुप्त एजेंडा है? बेशक तबलीगी जमात को दोषी करार दे दें, परन्तु साथ ही कम से कम यह भी बताएं कि अन्य समूहों और संगठनों ने भी यही अपराध किया है।
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खुद पीएम मोदी कोरोना के खतरे के बीच फरवरी के आखिरी हफ्ते में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ गुजरात में बड़ी सभा में शामिल हुए, दिल्ली में भव्य आयोजन हुआ। इसके बाद मार्च में लॉकडाउन से ठीक पहले बीजेपी नेताओं ने कमलनाथ सरकार गिरने की खुशी में मिलकर जश्न मनाया, सैकड़ों लोग एकत्र हुए। लंदन से आईं गायिका कनिका कपूर कोरोना पॉजिटिव होने के बाद कई लोगों के संपर्क में आईं। एक सिख धर्मगुरु भी संक्रमित होने के बाद हजारों लोगों के बीच गए।
तबलीगी जमात का 13 से 15 मार्च तक का कार्यक्रम बहुत पहले से तय था और इसके लिए भारत सरकार से सभी आवश्यक अनुमतियां लीं गई थीं। कार्यक्रम को इसलिए रद्द नहीं किया गया क्योंकि एक तो उसकी पहले से अनुमति थी और उस समय ऐसा लग रहा था कि भारत में इस रोग के फैलने का खतरा बहुत कम है। ये बात खुद भारत सरकार कह रही थी। भारत सरकार ने 13 मार्च को केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रवक्ता के जरिये कहा कि कोविड-19 भारत के लिए आपातकाल नहीं है। तभी जमात में भाग लेने आए विदेशियों की हवाई अड्डों पर स्क्रीनिंग भी नहीं की गई।
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पूरी बात को इस तरह समझें, कोविड-19 नाम की यह जानलेवा बीमारी चीन से शुरू हुई और जल्द ही उसने ईरान, फ्रांस, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरीका जैसे बड़े और ताकतवर देशों सहित कई अन्य देशों को भी अपनी जकड़ में ले लिया। भारत में इस बीमारी से जिस व्यक्ति की सबसे पहले (12 मार्च को) मौत हुई, वह सऊदी अरब से आया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 30 जनवरी को कोरोना को लेकर वैश्विक आपातकाल घोषित किया। फरवरी की 12 तारीख को राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि भारत सरकार को इसे गंभीरता से लेना चाहिए, तो उनका मज़ाक बनाया गया।
इन सबके काफी दिनों बाद जाकर भारत सरकार अपनी खुमारी से जागी और पीएम मोदी ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का एलान किया। इसके एक दिन बाद, 24 मार्च से राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। यह लॉकडाउन केवल चार घंटे के नोटिस पर लागू किया गया। तबलीगी जमात का कार्यक्रम मीडिया की निगाह में तब आया, जब इसमें भाग लेने वाले एक व्यक्ति की कश्मीर और चार की तेलंगाना में मौत हो गई। गोदी मीडिया के एंकर तब तक अंताक्षरी खेलने में व्यस्त थे।
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इन मौतों की खबर आते ही गोदी मीडिया ने जमात को निशाना बनाना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया में मुसलमानों को इस रोग के फैलने के लिए जिम्मेदार बताया जाने लगा। तरह-तरह की अफवाहें फैलाई गईं, जैसे- अस्पतालों में तबलीगी मांसाहारी भोजन की मांग कर रहे हैं, लोगों पर थूक रहे हैं और नर्सों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। इसके परिणाम स्वरुप देश में मुसलमानों के खिलाफ नफरत का भाव पैदा होने लगा।
हालात यहां तक पहुंच गए कि एक मुस्लिम महिला को प्रसूति के लिए अस्पताल में भर्ती करने से इनकार कर दिया गया, एक युवक की पिटाई कर दी गई और एक अन्य को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया गया। कई आवासीय परिसरों में मुसलमानों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। इसी तरह की लगातार घटनाएं अभी भी सामने आ रही हैं।
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मीडिया का एक तबका कोरोना बम और कोरोना जिहाद की बातें करना लगा। यहां तक कि सरकारी विज्ञप्तियों में कोरोना पीड़ितों को दो भागों में बांटा जाने लगा- तबलीगी जमात और अन्य। इस पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष डॉ जफरुल इस्लाम खान ने सरकार को लिखा, “कोरोना के मरीजों पर आपके बुलेटिनों में ‘मरकज मस्जिद’ का अलग कॉलम दर्शाया जा रहा है। इस तरह के मूर्खतापूर्ण वर्गीकरण से हिन्दुत्ववादी शक्तियों और गोदी मीडिया को देश भर में मुसलमानों को बदनाम करने का एक हथियार मिल गया है। विभिन्न इलाकों में मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं, उनके सामाजिक बहिष्कार का आव्हान किया जा रहा है और उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के हरेवाली गांव में एक लड़के को मार-मार कर अधमरा कर दिया गया।”
आज स्थिति यह हो गई है कि सरकारों तक को नफरत के सौदागरों और फेक न्यूज के उस्तादों से यह अनुरोध करना पड़ रहा है कि वे बाज आएं। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने लोगों का आव्हान किया है कि वे ऐसी बातें न कहें जिनसे समाज विभाजित हो। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कोरोना वायरस के मरीजों का धार्मिक या नस्लीय आधार पर वर्गीकरण न करने की अपील की है।
सच तो यह है कि भारत सरकार ने कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए कार्रवाई करने में काफी देर की। कोरोना एक वैश्विक महामारी है जो विभिन्न कारणों से फैल रही है। उसके लिए तबलीगी जमात को दोषी ठहराना और जमात को सभी मुसलमानों का प्रतीक बना देना न केवल अतार्किक है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और मानवता के विरुद्ध है।
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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