कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी की वापसी बिल्कुल सही समय पर हुई है। तीन राज्यों- हरियाणा, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। उनके आने से पार्टी में नई जान आने की उम्मीद की जानी चाहिए। उनके विपक्षियों और आलोचकों ने पार्टी में उच्च पद पर उनकी वापसी को कांग्रेस की वंशगत राजनीति का प्रमाण बताने की कोशिश की है। लेकिन वे इस तथ्य को भूल गए लगते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार ने कांग्रेस के अंदर उठने वाले भिन्न स्वरों को जोड़ने में हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कांग्रेस अन्य पार्टियों की तरह नहीं है। वह किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले भिन्न-भिन्न विचारों का सब दिन स्वागत करती रही है। ऐसा दूसरे दलों में नहीं होता। सोनिया ने मुश्किल दिनों में कांग्रेस का नेतृत्व किया है और यह बिल्कुल उचित ही है कि पार्टी ने उनके सक्षम हाथों पर भरोसा जताया है। इस तरह के निर्णय के बाद कुछ लोगों ने इसे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विफलता के प्रमाण के तौर पर भी पेश करने की कोशिश की है। कांग्रेस कार्यसमिति ने जिस तरह नेतृत्व वाली उनकी भूमिका की प्रशंसा की, उसके बाद इस तरह की बातों का कोई मतलब नहीं है।
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यह भी सच्चाई ही है कि कांग्रेस अध्यक्ष-पद संभालने के एक साल के भीतर राहुल गांधी ने अन्य पार्टी नेताओं की मदद से तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया। कर्नाटक में भी कांग्रेस ने जनता दल (एस) के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई। यह बात दूसरी है कि कुछ विधायकों को प्रलोभन और धमकी देकर बीजेपी ने इस सरकार को गिराने का षड़यंत्र रचा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के गृह राज्य गुजरात, में भी कांग्रेस ने चुनावों में बीजेपी को नाको चने चबवा दिए। लोकसभा चुनावों के वक्त भी जब तक पुलवामा कांड और बाद में बालाकोट हवाई हमले नहीं हुए थे, राहुल गांधी ने बीजेपी को परेशान कर रखा था। इन दो घटनाओं ने बीजेपी को किसान असंतोष और बेरोजगारी के मुद्दों को दबा देने के अवसर दे दिए और देश कट्टर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद में डूब गया। कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद वायनाड से लोकसभा सांसद राहुल गांधी को आम जनता से मिलने-जुलने का अधिक समय मिलेगा। इस तरह लोगों से उनके घुलने-मिलने से पूरे देश में जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को नई ऊर्जा मिलेगी।
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यह समझना जरूरी है कि आज की सत्ता जिस तरह एकांगी और बेलगाम हो गई है, कांग्रेस को सेकुलर, प्रगतिशील, समावेशी और बहुलतावादी भारत के विचार की रक्षा करने के दायित्व को निभाना ही होगा। सोनिया गांधी विपरीत स्थितियों में काम करती और उनसे जूझती रही हैं। पार्टी नेताओं के बार-बार अनुरोध करने पर वह 1998 में सक्रिय राजनीति में आईं। अगले ही साल 1999 में वह पार्टी अध्यक्ष चुनी गईं। उस वक्त पार्टी अव्यवस्था की शिकार थी और इसे व्यवस्थित करने का उनके पास कम समय था। फिर भी, उनके नेतृत्व में पार्टी ने लगातार नई ऊंचाइयों को छुआ। वह केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में आई।
इस वक्त पार्टी कई परेशानियों से जूझ रही है। पार्टी में कई गुट बन गए हैं। कई लोगों ने पार्टी छोड़ दी है। पुराने लोगों और नए लोगों के बीच फूट की बातें भी सामने आती रहती हैं। शुरू में सोनिया यह पद नहीं संभालना चाहती थीं। लेकिन अंततः उन्होंने अंतरिम अध्यक्ष-पद स्वीकार किया। यह भूलने की बात नहीं है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने कारगिल संघर्ष के बाद इसी तरह कथित राष्ट्रवाद के बल पर 1999 में दूसरी बार सरकार बनाई थी। लेकिन तब सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस को 114 सीटें हासिल हुई थीं और सोनिया प्रतिपक्ष की नेता बनी थीं।
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अगली बार 2004 में बीजेपी ने इंडिया शाइनिंग का नारा देकर जनता को भरमाने की कोशिश की थी, पर सोनिया ने इसकी कलई यह कहकर खोल दी थी कि यह इंडिया शाइनिंग किनके लिए है। उस वक्त भी बीजेपी मीडिया में छाई हुई थी, लेकिन जब चुनाव परिणाम आए, तो सारे राजनीतिक विश्लेषक अचंभित रह गए। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। कांग्रेस के नेतृत्व में वाम समेत 15 दलों का गठबंधन यूपीए बना।
यह सोनिया ही थीं जिन्होंने इस तरह के गठबंधन का तानाबाना बुना। यह लगभग आम राय थी कि सोनिया ही प्रधानमंत्री बनेंगी। इस पर बीजेपी के कई नेताओं ने उनके विदेशी मूल के होने का मुद्दा उठाने की कोशिश की। लेकिन सोनिया ने खुद ही तय किया कि वह यह पद स्वीकार नहीं करेंगी और उन्होंने उस वक्त और बाद में भी डाॅ. मनमोहन सिंह को सरकार की कमान सौंपी। इसलिए इस वक्त सोनिया गांधी का पार्टी का नेतृत्व स्वीकार करना कई मामलों में दूरगामी असर वाले होंगे।
जब वह पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं, उस वक्त भी पार्टी में गुटबंदी थी और कई नेता पार्टी छोड़कर जा चुके थे। उन्होंने इस असंतोष पर तो काबू पाया ही, कई नेताओं की पार्टी में वापसी हुई। उन्हें पार्टी में जिस तरह का कद हासिल है और सभी पार्टी नेता-कार्यकर्ता उनका जिस तरह सम्मान करते हैं, पार्टी ने उन्हें कमान सौंपकर बिल्कुल सही फैसला किया है। पार्टी से बाहर रहने वाले शुभेच्छु भी इन पलों का इंतजार कर रहे थे।
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