आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसे क्या कहेंगे? कोरोना कालखंड! हर कालखंड का अपना एक झरोखा होता है। यही झरोखा तो ‘इतिहास’ कहलाता है। वैसे, झरोखा बड़ी मजेदार चीज है। बंद कमरे में झरोखे के एक छोटे अधखुले कोने से धूप छन कर आती है। धूल के असंख्यकण रोशनायी में नहाते हैं। कई साये, आकार परछाइयों की आड़ी-टेढ़ी रंगोली दीवारों पर बिखेर देती है। इतिहास भी ऐसा ही झरोखा है। एक जमाने में बायस्कोप का बड़ा प्रचलन था। बायस्कोप में आंखें गड़ाकर देखो, तो एक के बाद एक सिलसिलेवार चित्र दिखाई देते थे। यदि इस कोरोना कालखंड पर बायस्कोप में चित्र दिखाए जाएं, तो क्या-क्या दिखाया जाएगा? इन ‘पावभर पलों’ को सिलसिलेवार देखना कैसा लगेगा? यह हमें लंबा लग रहा है। लेकिन असीम समय में इस कालखंड का तो शायद इतना भी वजन न हो। बस, पावभर। तो, देखें बायस्कोप?
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‘हम अंदर तो कोरोना बाहर’, अपने घर में महफूज रहें- विज्ञापन में आलीशान घर दिखाया जाता है। कितनी अजीब बात है न! हमारी साझी कल्पना से झोपड़े, मिट्टीके घरौंदे, कच्चे-अधकच्चेघर जहां आबादी का सबसे बड़ा प्रतिशत रहता है, गायब हो चुकी है। वे हमारे सामूहिक दैनंदिनी-वार्ता का हिस्सा ही नहीं। इतने दिन बाद पूरा परिवार साथ-साथ रहा। कई नए व्यंजन ट्राय किए। साथ बनाने, साथ खाने का मजा ही और था। तो क्या हुआ अगर लाखों लोग अपने परिवार से हजारों किलोमीटर दूर फंसे रहे। न खाने के पैसे बचे, न वापस जाने का कोई जरिया मिला। किसी ने चाय पीकर सात दिन काटे, तो किसी ने रोटी को पानी में डुबोकर निगला। हजारों ने आधा पेट खाना शुरू किया, तो लाखों को एक वक्त भोजन भी भरपेट नहीं मिला। लेकिन हम वाट्सएप में नित नए व्यंजनों की तस्वीरें भेजते रहे। हमने देखा कि कैसे बीस सेकेंड तक हाथ को साबुन से धोना चाहिए। क्या हुआ अगर लाखों के पास पीने तक का साफ पानी नहीं? मीलों चलकर एक मटका पानी भरते हैं। क्या हुआ अगर साबुन और हैंडवाश की ऐय्याशी उनके बूते के बाहर है?
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हमने देखा कि कैसे सरकारों को भौतिक दूरी(फिजिकल डिस्टेन्सिंग) बनाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। पुलिस लगाई गई। पर हमने यह नहीं देखा कि हमने भौतिक दूरी के बदले सामाजिक दूरी(सोशल डिस्टेन्सिंग) को वैधता प्रदान कर दी। हम कहेंगे शब्द से क्या होता है! आशय भौतिक दूरी से हीतो था! कहां? दूरी तो अब भौतिक, सामाजिक से परे कभी से ही मानसिक हो चुकी है। दिलों के बीच पड़ चुकी। ऐसी-ऐसी दीवारें बन गई हैं कि कभी यह दूरी मिटेगी भी, ऐसा यकीन नहीं बचा। कोरोना ने उसे सतह पर ला दिया। वरना, क्या विदेशी मेहमानों के सामने चकाचौंध फीकीन पड़ जाए, इसके लिए हम रातों रात दीवार बना देते? हमने बहुत पहले ही हर आवासीय खंड को सीसीटीवी से नहीं सजा दिया? हर कॉलोनी के बाहर चैकसी का इंतजाम नहीं कर दिया? हर कोस पर अभिजात्यवर्ग ने खुद को बचाने के लिए लकीरें खींच दी थीं, वे अब बड़ी काम आईं।
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मानसिक और मन की दूरी की इतनी तस्वीरें सामने आईं कि बायस्कोप में समाए नहीं समा रही। प्रवासी भारतीयों को हवाई जहाज से लाया गया। उनका स्वागत करने को हर प्रदेश तैयार है। दैनिक दिहाड़ी मजदूरों के लिए किसी के द्वार नहीं खुले। उनके लिए पचास दिन बाद व्यवस्था हुई। वह भी सशुल्क। इतने में तो हजारों पैदल चल दिए। इधर अपने घरों में बंद कुलीन वर्ग के बच्चों की एक ही शिकायत थी- पिज्जा, बर्गर ऑर्डर नहीं कर पा रहे हैं। उधर, अपने माता-पिता के कंधों पर आग उगलती दोपहरी में तीन दिनों तक भूखे-प्यासे गुदड़ी के लाल चल रहे थे। आवाज नहीं निकल रही थी। आंसू सूख गए। कई तो सदा के लिए खामोश हो गए। इधर, कुछ लोगों को आसमान का नीला रंग नजर आने लगा। उधर, हजारों के लिए वही एक मात्र छत है। दूरी तो बन गई है न? और कैसी होती है दूरी? हमारी संवेदन शून्यता ‘मदर्सडे’ मनाती रही। ‘मजदूर डे’ भी मनाया। मजदूरों के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया। क्या हुआ अगर सारे श्रम सुधार शिथिल कर दिए गए? इधर श्रमिक दिवस मना, उधर ’निवेशफ्रेन्डली’ होते हुए हमने निवेशकों को लुभाया। सस्ते, अधिकारविहीन मजदूर का प्रलोभन देकर हम विकास को पटरी पर लाएंगे। चाहे कितने ही मजदूर पटरी पर कटजाएं, क्या फर्क पडता है! दूरी को हमने खूब अपनाया है, साहब! कितने आसानी से चित्रों ने दिखा दिया कि कैसे एक कौम विशेष के लोग यह सब फैला रहे है। कैसे वे ‘जमे’ रहे, साजिश रचते रहे। कैसे बाकी सब तो ‘फंसे’ रहे, वे ‘जमे’ रहे।
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तस्वीरों ने क्या खूब दिखाया कि कुछ लोग सुधर ही नहीं सकते। वे तो डंडे से ही मानेंगे। उनकी बेबसी राष्ट्र के खिलाफ साजिश है। उन्हें भूख से बिलबिलाकर मर जाना चाहिए था। लेकिन लॉकडाउन का पालन करना था। तब, हम उन पर ताली, थाली बजाते। वे शहीद कहलाते। लेकिन नहीं। उनके कर्म खराब हैं। उन्हें जितना कर्तव्य सिखाओ, वे नहीं सीखते। अधिकार मांगने चले आते हैं। तस्वीरों ने शराब की लाइनें खूब दिखाईं। एक केला लेने के लिए लगी कतार किसको देखनी थी। व्यवस्था उन्हें दूरी के नशे में रखना चाहती है। व्यवस्था नशा बेचकर करोड़ों कमाना चाहती है। इस पर किसी को ऐतराज नहीं। चित्र दिखा रहे हैं- ताली बजाना, हेलिकॉप्टर से फूल बरसाना, दीये जलाना, सुरक्षा किट के बिना काम करते स्वास्थ्यकर्मी। कई कर्मकांड टूटे हैं। वैसे, कुछ समय से संसद में बहस, वोट, चुनाव, नीति-निर्माण- सब कर्मकांड ही तो रह गया है।
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बचपन में एक कविता पढ़ी थी- ‘पाईड पाइपर ऑफ हैमलिन’। पाईड पाइपर अपने वाद्ययंत्र से चूहों से शहर को निजात दिलाता था। उसकी धुन ऐसी थी कि सारे चूहे उसके पीछे दौड़ पड़ते थे। एक बार उसे भुगतान नहीं मिला, तो वह शहर के बच्चों को अपनी धुन से खींचता चला गया। बच्चे पीछे हो लिए। यह कविता आज याद हो आई। संदर्भ अलग हो गया। पाईड पाइपर शहरों, नगरों, व्यवस्था, सत्ता, कुलीनों को समस्याओं से निजात दिलाता था। सारे सवालों को वह भय के सागर में डुबो देता है। ऐसा करते-करते जब हर नगर, हर शहर, हर व्यवस्थासवालों से न्यून हो गई, तो एक दिन उसने व्यवस्थाओं की निर्मल, अबोध, बच्चों-सीकोमल आजादी पर भी सम्मोहक धुन का इस्तेमाल कर लिया। आजादी दूर मानवता के पहाड़ के पीछे जा छुपी। चेतना का किवाड़ पाईड पाइपर ने खुद लगा दिया। फिर, यह पाईड पाइपर कौन है? व्यवस्था की मोहिनी, और कौन? लेकिन सत्ताकीमोहिनीका असर सब पर नहीं होता।
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कई टिमटिमाते पल दिख रहे हैं। अकेलीवृद्धा का अंतिम संस्कार दूसरे पंथ के नवयुवकों ने उन्हीं मां के पंथिक रिवायतों के मुताबिक किया। बूढ़े दंपति को दूसरे पंथके मानने वालों ने राशन हर महीने लाकर दिया। अन्य पंथके बच्चों को लंगर खिलाया गया। एक व्यक्ति ने किसीअन्य पंथके व्यक्ति की जान बचाने के लिए रक्तदान किया। रक्तदान के काबिल होने के लिए उसने पाक महीने का अपना व्रत तोड़ दिया। बायस्कोप के अंतिम चित्र का आसमान नीला है। कुछ बूंदों के बरसने के बाद अवचेतन में बसी साझी प्रीत का इंद्रधनुष अपने रंग बिखेर रहा है। यह उम्मीद की शमा रोशन कर गई है।
(मीनाक्षी नटराजन कांग्रेस की पूर्व लोकसभा सांसद हैं)
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