फ्रांसीसी कहावत है- चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बिलकुल पहले जैसी होती जाती हैं। राज्यों के हालिया चुनावी नतीजे भी इसी बात को पुष्ट करते हैं। पंजाब को छोड दें, तो चुनावी नतीजों से राज्यवार जिस किस्म के बदलाव के अंकुर फूटने की उम्मीद टीवी के पंडितों ने लगा रखी थी, वह नहीं आया। असम में पूर्ण बहुमत रखने वाली सरकार भी हमको काफी हद तक अजीब काम करती नजर आ रही है। पहले उत्तर भारत की मौजूदा राजनीति के आजमूदा (आजमाए) हथकंडों से पूर्व सरकार को सूबे की हर तकलीफ का जिम्मेदार बताते हुए विपक्ष की जड़ में मट्ठा डाला गया।
फिर कुछ साल पहले तक कांग्रेस के सिपहसलार रहकर बीजेपी में आए व्यवहार कुशल नेता हिमंत बिस्व सरमा ने गांधी परिवार को अहंकारी और दरबारी वृत्ति का बता कर लगता है, असम को हिमालयीन राज्यों ही नहीं, समूचे भारत में केन्द्र की बहुसंख्यवादी राजनीति की प्रयोगशाला बना दिया है। कभी तीन तलाक, तो कभी अफस्पा हटाने की आड़ में समान सिविल कोड कानूनों को लादना बहुलता के गढ़ भारत में सभी के लिए चुनौती फेंक रहा है। जबकि इसकी जद में सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और अनुसूचित जातियां भी आएंगी जिनके संपत्ति, विरासत, विवाह, तलाक और संतान के भरण-पोषण के हक सब उनके अपने निजी कानूनों पर टिके हुए हैं।
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बात यहीं खत्म नहीं होती, सीधे अभिव्यक्ति के हक को भी मरोड़ती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री जी की शान में गुस्ताख तेवर दिखाने वाले मीडिया ही नहीं, अन्य प्रदेश के विधायक तक के खिलाफ मानहानि का दावा कर पकड़ बुलाने के कानून का विस्मयकारी इस्तेमाल किया गया। विपक्ष के कई सूबाई क्षत्रपों ने भी अब यही फार्मूला और दमनकारी मुद्रा बीजेपी के सांसदों के लिए भी इस्तेमाल करना चालू कर दिया है। यह एक बहुत खतरनाक परंपरा है।
दूसरी तरफ, गोदी मीडिया को एक और नया काम मिल गया है। भारत भर में तसल्ली बख्श तरीके से चुनावी जीत दिलवाने का सफल मंतर कई दलों को बेच चुके प्रशांत किशोर का समीकरण कांग्रेस नेतृत्व के साथ न पटने को वह कांग्रेस में ईमानदार अंतर्मंथन से खुद को सुधारने की अनिच्छा बता कर हर शाम चैनलों पर रायता फैला रहे हैं। बेचारे प्रशांत किशोर कहते रहते हैं कि उनका कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकराना कांग्रेस के प्रति उनका असम्मान न समझा जाए, पर भक्तिरस में डूबे कान वही सुनते-दोहराते हैं जो उनको कहना है। मीडिया में चौराहे पर खड़े होकर सत्ता पक्ष की बखिया उधेड़ने की ऐसी अशोभन उत्कंठा के बीच यह बात दब जाती है कि शीर्ष नेतृत्व में बेरोजगारी, महंगाई, ऊर्जा संकट, खाली होते राजकोष, बढ़ते घाटे और खुद बीजेपी शासित प्रदेशों में लंबी बिजली कटौतियों और जल संकट को लेकर किसी नई सोच का कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
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शीर्ष पर बड़ी बिल्लियों के सनातन झगड़ों के बीच राज्य स्तर पर हर कहीं सत्ता की रोटी राज्यों के क्षेत्रीय दल और उनके एकछत्र नेता लूट रहे हैं। इस मुहिम में वे हिन्दी बनाम दक्षिण भारतीय भाषाओं, हिजाब और शिक्षा, हिन्दी पट्टी की बढ़ती जनसंख्या के बावजूद वहां के नेताओं को कमाऊ दक्षिणी राज्यों द्वारा केन्द्र को दिए करों की कमाई की बंदरबाट और उनके जीएसटी के वाजिब हिस्से का केंद्र द्वारा भुगतान न होना सबको मुद्दा बना रहे हैं। पाकिस्तान से तो संघ तक का विघटन गवाह है कि यह सब मुद्दे कितने खतरनाक और विभाजनकारी हैं।
प्रशांत किशोर को जरूरत से ज्यादा दोष या सराहना देना बेकार है। वह एक कुशल तकनीकी जानकार, डाटा एनालिस्ट और मीडिया मैनेजर जरूर हैं। पर उनका इतने दलों द्वारा किराये पर लिया जाना दलीय राजनीति में उनकी मूल दलगत वैचारिकता के क्रमिक विघटन और खात्मे का प्रतीक भी है।
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कवि श्रीकांत वर्मा तो काफी पहले कह गए थे कि ‘कोसल में विचारों की कमी है।’ ऐसे में मतदाता समाज में गहरी पैठ की बजाय जाति, धर्म, लिंग और कमाई के गणितीय समीकरणों पर आधारित और मीडिया प्रचार के तमाम तकनीकी जोड़-तोड़ से बने फार्मूले चुनाव में ताजा सरदर्द मिटाने में क्रोसीन गोली की तरह ही काम कर सकते हैं। वे उस दिमागी क्षय का जो दर्द की जड़ है, उस पर कारगर नहीं होंगी। अगर दलों के नेताओं का अपना सीधा जनसंपर्क समय के साथ मिटता चला गया हो, तो कुछ समय कार्यकर्ता भी नेता जी की गणेश परिक्रमा करके संतुष्ट हो जाते हैं।
यह याद रखने लायक है कि आज देश में जो भी ताकतवर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल हैं, वे डाटागत फार्मूलों और निरी मीडियाई मुहिम से नहीं बनाए गए। भारत की खोज से निकले अनुभवों के आधार पर कुछ नेतृत्व क्षमतावाले नेताओं ने अलग-अलग समय में उनको गढ़ा, तभी वे सहजता से जनता के बीच लोकप्रिय बने।
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2024 के आम चुनावों में राष्ट्रीय दलों के लिए मुंह में तिनका दबाकर क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठजोड़ के लिए चिरौरी करनी जरूरी होगी। पर राजनीति में दो बरस बहुत होते हैं। यह संभव है कि तब तक क्षेत्रीय दल पहले की तरह अपने ही बीच से किसी एक क्षेत्रीय क्षत्रप को नेतृत्व थमा कर राष्ट्रीय चुनावों में उतारने का मन बनाने लगे हों। पिछले दशकों में हमने देखा है कि आर्थिक सोच और सामाजिक परंपराओं की जड़ें कितनी गहरी होती हैं और कई बार ऊपरी छटाई के बाद बदलाव का भ्रम भले हो, चुनाव पास आए नहीं कि कई पुरानी जड़ें फिर फुनगियां, पत्ते फेंकने लगती हैं।
वही मंदिर, मंडल, वही सरकारी खजाने खाली कराने और सरकारी बैंकों को दिवालिया कराने वाली सबसीडियां, वही फ्री राशन, बिजली, पानी, खाद सबसीडियां, लैपटॉप, मिक्सी, टीवी और मुफ्त अनाज आदि का बेशर्म वितरण। पर हर बार उसमें चतुर नेता अपने काम का कुछ खोज कर उसमें नई बात पैदा करते हैं। दीदी महिलाओं के सघन वोट बैंक को साम-दाम से समेट कर तीसरी पारी जीत गईं और केरल में लाल किताब के बाहर जाकर खालिस भारतीय सुपर स्ट्रक्चर के एझवा-ईसाई-नायर-लीगी जैसे वोट बैंकों का महत्व मार्क्सवादी भी सर माथे रखने लगे हैं।
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रही मुस्लिम वोट बैंक की बात, तो आजादी के बाद कुछ दशकों तक जो मुसलमान क्रांतिकामना रखता था, कम्युनिस्ट बन जाता था। लेकिन नाना थपेड़े खाकर अब वह भी राज्यवार अलग-अलग तरह से हर बार नए भाव-ताव करने लगा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति जिन दलों ने शाब्दिक स्तर पर अंगीकार की भी हुई है, वह उनको पार्टी में कोई आंतरिक अनुशासन नहीं देती। उसकी प्रशासकीय मशीनरी में कर्तव्याकर्तव्य का बोध नहीं लाती। हरियाणा से हैदराबाद तक धर्म और धर्मनिरपेक्षता की सारी बुराइयां ही लगता है हमारे राजनैतिक दलों ने अंगीकार कर ली हैं।
असली मूल्य परे कर दिए हैं और इसीलिए चुनाव आए नहीं कि चुनावी सलाहकारों की दूकान चमक उठती है जो कोई जादुई जुमले और समीकरण सुझा कर जीत तय करा सकें। चलिए, उनकी मुहिम चलती रहे, संविधान कमाने-खाने का समान हक सबको देता है, पर इससे आने वाले समय में किसी भी गठजोड़ को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों का एक धड़कता हुआ प्राणवान समन्वय किसी तरह नहीं बनाया जा सकेगा।
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