पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया में लगभग तानाशाह और सत्तालोभी सरकारों का कब्जा हो गया है और इसका खामियाजा पूरी आबादी झेल रही है। पर इसका सबसे बुरा असर निष्पक्ष पत्रकार और मीडिया घराने अधिक भुगत रहे हैं। हमारे देश में तो सत्ता के विरुद्ध बोलने की सजा पत्रकारों को रोज मिलती है, ब्राजील में भी यही हो रहा है, अमेरिका से भी पत्रकारों के पुलिस और प्रशासन द्वारा प्रताड़ना की खबरें खूब आने लगी हैं और अब फिलीपींस में एक महिला पत्रकार को मनीला की अदालत ने 6 वर्ष कैद की सजा सुनाई है।
अलायन्स ऑफ जर्नलिस्ट फ्रीडम के संस्थापक निदेशक पीटर ग्रेस्ते के अनुसार हम ऐसी दुनिया में हैं, जहां कोई भी सरकार निष्पक्ष मीडिया घरानों या पत्रकारों को बर्दाश्त नहीं करना चाहतीं, उन्हें ऐसे पत्रकार पसंद हैं जो जनता को लूटती सरकारों की भी वाहवाही कर रहे हों। इस सन्दर्भ में देखें तो फिलीपींस में पत्रकार को सजा की खबर अचंभित नहीं करती।
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अपने देश में अभी कुछ दिन पहले ही स्क्रॉल की एडिटर इन चीफ सुप्रिया के खिलाफ वाराणसी में एफआईआर दर्ज की गई है, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री के गोद लिए गांव की वास्तविक स्थिति को उजागर किया था। वैसे भी उत्तर प्रदेश में निष्पक्ष पत्रकारों के लिए वास्तविक स्थिति को उजागर करना सबसे खतरनाक काम है। वहां एक पत्रकार इसलिए जेल चला जाता है, क्योंकि वह सोनभद्र के जनजातियों के भूख की खबर प्रकाशित करता है, तो दूसरा पत्रकार मिड-डे मील की खामियां उजागर करते ही जेल पहुंच जाता है।
वैसे दूसरे राज्य भी पीछे नहीं हैं। कमेटी अगेंस्ट असाल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स द्वारा 9 मार्च को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर 2019 से फरवरी 2020 के बीच अकेले दिल्ली में पत्रकारों पर हमले की 32 घटनाएं हुई हैं। यह हमले पुलिस, आन्दोलनकारी या फिर दंगे करने वालों ने किए।
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हमारे देश का मीडिया तो अपने देश के पत्रकारों पर किये जा रहे सरकारी जुल्म की भी खबर नहीं रखता तो जाहिर है फिलीपींस की खबर तो अदृश्य ही रहेगी। पिछले सप्ताह मनीला की अदालत ने रापप्लेर डॉट कॉम नामक वेब न्यूज पोर्टल की संस्थापक मारिया रेसा और इसके रिसर्च राइटर रेनाल्डो संतोस को साल 2012 में प्रकाशित एक आर्टिकल के लिए दोषी ठहराते हुए 6 वर्ष के कारावास की सजा सुना दी।
इस लेख में एक प्रतिष्ठित व्यापारी और हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश के बीच सांठगांठ को उजागर किया गया था और इस लेख को मारिया रेसा ने नहीं लिखा था, पर वह संपादक थीं। फिलीपींस के राष्ट्रपति अनेक बार इस न्यूज पोर्टल के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल कर चुके हैं, इस पर टैक्स घोटाले के आरोप लगाए गए और लाइसेंस के नवीनीकरण के दौरान भी परेशान किया गया। हालांकि ये पत्रकार अभी जमानत पर बाहर हैं और सर्वोच्च अदालत में अपील का मौका दिया गया है।
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लेकिन यूरोपीय देशों के पत्रकार संगठन और कुछ सरकारें भी इस मामले को लेकर फिलीपींस सरकार की मुखर आलोचना कर रही हैं। इन पत्रकारों को साइबर कानूनों के तहत दंडित किया गया है और सबसे आश्चर्यजनक यह है कि जब इस मुकदमे को सरकार की तरफ से दायर किया गया था, यानि वर्ष 2012 में, तब फिलीपींस में कोई भी साइबर क़ानून था ही नहीं। मुकदमा दायर करने के चार महीने बाद देश में पहला साइबर क़ानून बनाया गया था।
यूनाइटेड किंगडम एंड आयरलैंड नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के अनुसार इस मुकदमे में बेशर्मी से सरकार द्वारा तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया और सरकार के दबाव में जज ने उन्हीं लचर आरोपों को सही माना। यह पूरा मामला एक सत्तालोभी सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने के लिए दंडित करने का है। यूनाइटेड किंगडम के प्रेस की स्वतंत्रता के विशेष प्रतिनिधि अमल क्लूनी, जो इन पत्रकारों के एक वकील भी थे, ने फैसले के बाद कहा कि इससे अधिक बेशर्मी वाला कोई फैसला आ ही नहीं सकता था और इसका असर केवल फिलीपींस पर ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के देशों के पत्रकारों पर होगा।
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पूरे एशिया में निष्पक्ष और बिना सरकारी चाटुकारिता वाली पत्रकारिता पिछले कुछ दशकों से सबसे खतरनाक पेशा बन गयी है। कुछ समय पहले ही फ्रीडम हाउस की एक रिपोर्ट के अनुसार एशिया के लगभग सभी देशों में नागरिक स्वतंत्रता और निष्पक्ष पत्रकारिता को सरकारों द्वारा कुचला जा रहा है। फिलीपींस में पिछले 30 वर्षों के दौरान सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस, प्रशासन या फिर ड्रग माफियाओं द्वारा 145 से अधिक पत्रकार मारे जा चुके हैं।
जिस तरह हमारे देश में सरकार की नीतियों की खामियां उजागर करते पत्रकारों को देशद्रोही, अर्बन नक्सल और टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य के तमगे से सरकारें नवाजतीं हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप निष्पक्ष पत्रकारों को ठग कहते हैं, ठीक वैसे ही फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेरते भी पत्रकारों को खुलेआम जासूस और वैश्या की संतान जैसी उपाधियों से नवाजते हैं। राष्ट्रपति रोड्रिगो मारे गए पत्रकारों के बारे में यह भी कहते हैं कि ये सभी पत्रकार इसी लायक थे।
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फिलीपींस की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एबीएस-सीबीएन को सरकार की आलोचना करने के कारण बंद करना पड़ा। उसके लाइसेंस को रद्द कर दिया गया। सबसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र फिलिपीन डेली इन्क्वायरर को आलोचना के बाद सरकारी तौर पर इतना तंग किया गया की इसके मालिक ने कंपनी बेच दी और इसे खरीदने वाले राष्ट्रपति के नजदीकी थे।
मारिया रेसा ने फैसले के ठीक बाद पत्रकारों और जनता को संबोधित करते हुए कहा कि यह फैसला दुखद तो है, पर अप्रत्याशित नहीं। जनता का आह्वान करते हुए कहा, यदि आप अपने अधिकारों का उपयोग नहीं करते हैं तो आपके अधिकार छीन लिए जाते हैं और सरकारें यही चाहती हैं।
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पहले, दुनिया में कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर यदि हमला किया जाता था तो अमेरिका और यूरोपीय देश उसकी निंदा करते थे और कई मामलों में संबंधित सरकारों को इस पर ध्यान देने के लिए बाध्य करते थे। अब अमेरिका तो स्वयं ही ऐसे अधिकारों का हनन करने लगा है।
अमेरिका में रंगभेद के विरुद्ध इस आन्दोलन के दौर में 5 जून तक प्रेस की स्वतंत्रता पर 300 से अधिक हमले किये जा चुके हैं। इन हमलों में से 80 प्रतिशत से अधिक पुलिस ने किये हैं। इस अवधि में 49 पत्रकारों को रिपोर्टिंग करते हुए अरेस्ट किया गया, कुल 192 हमले किये गए और 42 मामलों में कैमरा या फिर रिपोर्टिंग के दूसरे उपकरण नष्ट किये गए। रिपोर्टिंग करने के दौरान कुल 192 हमलों में से 160 से अधिक हमले पुलिस ने किए। पत्रकारों पर हमलों में कुल 69 शारीरिक हमलों में से 43 में पुलिस शामिल थी, 43 पत्रकारों पर आंसू गैस के गोले दागे गए, 24 पर मिर्च का पाउडर फेंका गया और 77 पर रबर बुलेट दागे गए।
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इतने के बाद भी अमेरिका और भारत में पत्रकारों पर हमले के सन्दर्भ में एक बड़ा अंतर है। भारत में ऐसे हमलों पर प्रधानमंत्री या किसी भी मुख्यमंत्री ने आज तक कोई भी कड़ा बयान नहीं दिया है और अधिकतर मामलों में बीजेपी के नेता और कुछ केन्द्रीय मंत्री भी खुलेआम पत्रकारों को दोषी बताते हैं और उन्हें धमकियां भी देते हैं। यह बात दूसरी है की अर्नब गोस्वामी या सुधीर चौधरी जैसे पत्रकारों पर मामला दर्ज होते ही बीजेपी और अनेक केन्द्रीय मंत्रियों को प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता याद आने लगती है।
दूसरी तरफ अमेरिका में संविधान का पहला संशोधन ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है, और इसका अधिकतर मामलों में पालन भी किया जाता है। वहां प्रेस के साथ ही अधिकतर संवैधानिक संस्थाएं और न्यायालय अपेक्षाकृत स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं। हाल में आन्दोलन के दौर में भले ही पत्रकारों पर हमले बढे हों, पर अधिकतर ऐसे मामलों के सामने आते ही राज्य के गवर्नर या शहर के मेयर या फिर स्थानीय पुलिस के प्रमुख ने पत्रकारों से माफी मांगी है और संबंधित पुलिस कर्मचारियों पर कार्रवाई का आश्वासन दिया है।
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अगर फिर भी पत्रकार इससे संतुष्ट नहीं होते हैं तो वहां के न्यायालय भी पत्रकारों के साथ निष्पक्षता के साथ खड़े होते हैं। हमारे देश में तो अर्नब गोस्वामी जैसे फर्जी और चाटुकार पत्रकारों के लिए न्यायालय भी अलग क़ानून से चलता है और बाकी पत्रकारों के लिए दूसरे क़ानून से।
दरअसल वर्ष 2014 के बाद से अपने देश में और इसके बाद अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद से पूरी दुनिया में सरकारी चाटुकारिता ही पत्रकारिता का पर्याय बन गई है। निष्पक्ष और गंभीर पत्रकारिता लगातार विलुप्त होती जा रही है या फिर ऐसे पत्रकारों को धमकाकर, जेल में डाल कर या फिर मार कर खामोश किया जा रहा है। पत्रकारों को प्रताड़ित करने का सिलसिला केवल फिलीपींस, चीन, ब्राजील, रूस, अरब देशों, अमेरिका, भारत, पाकिस्तान या मेक्सिको तक ही सीमित नहीं है, यह पूरी दुनिया का न्यू नार्मल बन गया है।
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