विचार

आकार पटेल का लेख: बीजेपी के संविधान में हैं धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद, लेकिन पार्टी भूल चुकी है इसे

बीजेपी का संविधान जनसंघ के संविधान से अलग है और इसमें धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के अनुसरण का वादा किया गया है। रोचक है कि बीजेपी के सदस्य अभी भी इसी की शपथ लेते हैं, लेकिन पार्टी इसे भूल चुकी है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

अपनी स्थापना के 40वें साल में भारतीय जनता पार्टी ने शुक्रवार को हुए चुनाव के बाद अपनी अगुवाई में राज्यसभा में एनडीए की सीटों की आंकड़ा 100 के पार पहुंचा दिया।

बीजेपी की स्थापना अप्रैल 1980 में उस समय हुई थी जब इसके सदस्यों को जनता पार्टी से निकाल दिया गया था। जनता पार्टी एक संयुक्त विपक्षी मोर्चा था जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ बना था। जनता पार्टी नाम के इस मोर्चे में 1951 में अस्तित्व में आया भारतीय जनसंघ भी शामिल था।

अपने खुद के रिकॉर्ड के मुताबित जनसंघ की स्थापना तीन कारणों से हुई थी। पहला कारण था दिसंबर 1950 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु, दूसरा कारण था श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नेहरू सरकार से इसी साल इस्तीफा और तीसरा कारण था 1950 के चुनाव जिसके बाद पी डी टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। टंडन को एक हिंदू परंपरावादी माना जाता था और वे नेहरू के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध थे। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद टंडन ने इस्तीफा दे दिया था।

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इनके अलावा जनसंघ अपनी स्थापना का एक और कारण बताता है। वह है 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ पर लगा प्रतिबंद और इसके नेता एम एस गोलवलकर की गिरफ्तारी। आरएसएएस एक राजनीतिक दल के तौर पर पंजीकृत नहीं था और 1949 में इस पर से प्रतिबंध इस शर्त के साथ हटा लिया गया था कि आरएसएस संविधान को अपनाएगा और आरएसएस इसके लिए सहमत हो गया था।

आरएसएस में इसी समय अपने मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में लेख प्रकाशित किए गए कि संघ को राजनीति में क्यों हिस्सा लेना चाहिए। गोलवलकर ने इसका हल यह निकाला कि आरएसएस को तो राजनीतिक दल नहीं बनाया, लेकिन स्वंयसेवकों को अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने की अनुमति दे दी।

इन कार्यकर्ताओँ ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ की स्थापना की। मुखर्जी इससे पहले हिंदू महासभा के प्रमुख रह चुके थे। गोलवलकर ने अपने कुछ लोगों को पार्टी के ढांचे में शामिल होने को कहा, इनमें उत्तर प्रदेश में संघ के प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और ऑर्गेनाइजर में फिल्म समीक्षा लिखने वाले लाल कृष्ण आडवाणी भी शामिल थे।

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इस समय तक आरएसएस कोई 25 साल पुराना संगठन हो चुका था और इसने अपना विस्तान नागपुर से बाहर तक कर लिया था। ऐसे में वह जनसंघ की स्थापना के साथ संघ ने कई राज्यों में इसके प्रसार प्रचार में मदद की। मुखर्जी हालांकि पूर्व कैबिनेट मंत्री थे, लेकिन उनका गढ़ बंगाल तक ही था। 1953 में मुखर्जी की मृत्यु के बाद संघ को जनसंघ पर पूर्ण नियंत्रण का मौका मिल गया।

देश के पहले चुनाव में जनसंघ कुछेक सीटों पर ही जीत कर सका, और यह सिलसिला 1970 में उस समय तक चला जब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में जनसंघ का जनता पार्टी में दूसरे विपक्षी दलों के साथ विलय हुआ।

लेकिन जब संघ के सदस्यों को जनता पार्टी से निकाल दिया गया तो 1980 में नई पार्टी का गठन हुआ, लेकिन वाजपेयी ने इस पार्टी का नाम भारतीय जनसंघ रखने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि एक बड़े समूह का हिस्सा बनने के बाद उन्हें काफी कुछ अनुभव हो चुका है। इससे दो बदलाव हुए। पहला तो यह कि नई पार्टी का नाम वाजपेयी ने भारतीय जनता पार्टी रखा और इसमें संघ के बाहर के लोगों को भी शामिल करने की शुरुआत की गई। और दूसरा यह कि बीजेपी का संविधान जनसंघ के संविधान से अलग रखा गया और साथ ही भारत के धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के अनुसरण का वादा किया गया। बीजेपी के संविधान और शपथ पत्र में अभी भी शामिल है और इसके सदस्य इस पर अभी भी हस्ताक्षर करते हैं।

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लेकिन नई बनी पार्टी बीजेपी भी कोई कमाल नहीं दिखा पाई और 1984 के चुनाव में राजीव गांधी की अगुवाई में लगभग पूरे विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया। बीजेपी भी सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई। लेकिन बीजेपी की किस्मत बदली विश्व हिंदू परिषद के बाबरी मस्जिद आंदोलन से। बाबरी मस्जिद में दिसंबर 1949 में किसी ने भगवान राम और सीता की दो मूर्तियां रख दी थीं, जिसके बाद विवाद शुरु हुआ।

इस आंदोलन में शामिल होते वक्त धर्मनिरपेक्षता की शपथ को दरकिनार कर दिया गया और पार्टी के नए अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने विश्व हिंदू परिषद की मांग का समर्थन किया। हालांकि अयोध्या जनसंघ के घोषणापत्र में कहीं भी नहीं था, जबकि जिस साल बाबरी मस्जिद में रखी गई उसके कुछ समय बाद ही जनसंघ की स्थापना हुई थी।

अयोध्या प्रोजेक्ट में हिस्सेदारी कर आडवाणी ने समाज के ध्रुवीकरण का जो काम किया उसका बीजेपी को फायदा मिला और 1989 के चुनाव में उसे 85 सीटों पर जीत हासिल हुई। इसके बाद बीजेपी ने जनता दल नाम के गठबंधन में हिस्सा लिया, लेकिन इस बार सरकार को सिर्फ बाहर से समर्थन दिया। जल्द ही जनता दल की सरकार गिरी और आडवाणी फिर से बाबरी मुद्दा लेकर मैदान में उतर गए और आखिरकार दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। इसके बाद भड़के दंगों में 2000 से ज्यादा भारतीयों की जान गई।

बाबरी मस्जिद गिराए जाने और उसके बाद हुई हिंसा से बीजेपी की लोकप्रियता में जबरदस्त उछाल आया। 1998 के चुनाव में वाजेपीय के नेतृत्व में बीजेपी ने 182 सीटें जीतीं, 1999 के चुनाव में 180 सीटों पर जीत हासिल की और सत्तासीन हुई। लेकिन 2004 के चुनाव में पार्टी सिर्फ 138 सीटें ही हासिल कर पाई और सत्ता से बाहर हो गई।

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सत्ता में रहने के दौरान बीजेपी अयोध्या मुद्दे और मुस्लिम विरोधी रुख से दूर रही। बदला सिर्फ तो 2002 का गुजरात दंगा जिसके बाद वाजपेयी ने मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने की नाकाम कोशिश की। लेकिन इसके बाद जो हुआ वह किसी भी वैचारिक पार्टी के लिए मिसाल है। कोई नेता उस व्यक्ति के सामने हमेशा खतरे में रहता है जो ज्यादा चरमपंथी है और करिश्माई है। ऐसे में जब वाजपेयी मोदी को हटाने में नाकाम रहे तो दीवार पर लिखी इबारत साफ नजर आ रही थी। बीजेपी के संवैधानिक वचन को दरकिनार कर बीजेपी ने मोदी को बढ़ावा दिया और उनके नेतृत्व में पार्टी दूसरी बार 300 से ज्यादा सीटों के साथ 2019 में सत्ता में आई।

बीजेपी की कथा थोड़ी जटिल है, लेकिन कई मामलों में एकदम साधारण है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ बंगाल से शुरु हुई पार्टी की कहानी एक बार फिर उसी राज्य में वापसी की बाट जो रही है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं और नवजीवन का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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