उस देश को आप विज्ञान के विकास के किस क्रम में रखेंगे, जहां देश में फल-फूल रहे अवैज्ञानिक मानसिकता के बारे में देश की शीर्ष वैज्ञानिक संस्था ही बता रही हो, और इस पर भी वाहवाही लूटने का प्रयास कर रही हो। भारत सरकार का डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (डीएसटी) बता रहा है कि देश के हरेक हिस्से में वैद्यों का जाल बिछा है, जो गोमूत्र से तरह-तरह के इलाज कर रहे हैं, पर गोमूत्र के स्वास्थ्य पर प्रभाव का कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है।
यही संस्थान यह भी बता रहा है की बिना किसी अध्ययन के ही एलोपैथी की तर्ज पर ‘काउ पैथी’ का ढांचा खड़ा कर दिया गया है। देश में गाय के नाम पर साबुन, शैंपू और फर्श साफ करने के जो पदार्थ मिल रहे हैं, उनका कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं किया गया है। दुनिया के किसी भी देश में ऐसा पहली बार हो रहा होगा, जब किसी चिकित्सा पद्धति को बाजार में फैलाने के बाद अब सरकार उसके वैज्ञानिक अध्ययन की योजना बना रही हो।
कुछ वर्षों के भीतर ही देश का वैज्ञानिक ढांचा कैसे नष्ट किया जा सकता है, उसका उदाहरण अगर देखना हो तो देश और विदेश में अब तक प्रतिष्ठित रहे भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी द्वारा प्रकाशित 14 फरवरी की एक सूचना देख लीजिए। इसे इसके स्पेशल यूटिलाइजेशन थ्रू रीसर्च ऑग्मेंटेशन- प्राइम प्रॉडक्ट्स फ्रॉम इंडिजेनस काउज विभाग ने प्रकाशित किया है और इसके अन्तर्गत देसी गाय से संबंधित प्रमुख पांच विषयों पर शोध के लिए योजनाओं को आमंत्रित किया है। ऐसी योजनाओं के लिए राशि की कोई भी सीमा नहीं तय की गई है।
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शोध के लिए डीएसटी के साथ-साथ अनेक दूसरे मंत्रालय और विभाग फंडिंग के लिए सहयोग कर रहे हैं। इसमें डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नोलॉजी, काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रीसर्च, भारत सरकार का आयुष मंत्रालय, नवीनीकृत ऊर्जा मंत्रालय, इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रीसर्च और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रीसर्च भी सम्मिलित हैं। इतने सारे विभाग और मंत्रालय एकजुट होकर एक ऐसे क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने में लगे हैं जिसका अब तक कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
अब, देश के 576 वैज्ञानिक एक पत्र लिखकर सरकार से इस योजना को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। इस पत्र का प्रारूप तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले वैज्ञानिक और होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन के प्रोफेसर अंकित सुले के अनुसार “विज्ञान अनुसंधान इस समय बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहा है। जब बजट पेश किया जाता है तब बहुत सारे आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं पर तथ्य यह है कि निर्धारित राशि अनुसंधान संस्थानों तक नहीं पहुंच रही है। शोध में संलग्न वैज्ञानिकों को फेलोशिप और स्टाइपेंड समय से नहीं मिल रही और कई संस्थानों में सैलरी भी समय से नहीं मिल रही है। ऐसे समय जब वैज्ञानिक अनुसंधान आर्थिक कारणों से पीछे जा रहा हो, गाय के फायदे जैसे विषय पर, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, केवल पौराणिक आधार और मान्यता है, पर इतने बड़े पैमाने पर शोध के लिए रास्ता खोलना जनता के पैसे की बरबादी से अधिक कुछ नहीं है।
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वैज्ञानिक संस्थानों की आर्थिक हालात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अधिकतर शोधार्थियों के पास प्रतिष्ठित जर्नल में रीसर्च पेपर प्रकाशित कराने की फीस भी नहीं है। 2016-2017 के दौरान भी सरकार के अनुरोध पर आईआईटी दिल्ली ने देसी गाय से संबंधित एक बड़ा सम्मेलन किया था, जिसमें देश भर से सैकड़ों वैज्ञानिकों को इकट्ठा किया गया पर इस सम्मेलन के निष्कर्ष का पता इसमें हिस्सा लेने वाले वैज्ञानिकों को भी नहीं बताया गया और न ही दोबारा इन लोगों से संपर्क किया गया। दूसरी तरफ देश के विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों में गाय के नाम पर तमाम अनुसंधान किए जा रहे हैं, पर उसमें क्या किया जा रहा है, किसी को नहीं मालूम।
इस योजना का पहला विषय है- देसी गाय की विशेषता। डी एस टी को शायद यह नहीं मालूम कि हरेक प्रजाति की अपनी विशेषताएं होती हैं और विशेषताओं का संबंध केवल देसी गाय से ही नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि देसी गाय किसे कहा गया है, इसे कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया है। ऐसा भी नहीं है कि केवल देसी गाय ही दूध देती हो, देश में बकरी, ऊंट, भेंड़ के साथ-साथ अन्य कई मवेशियों के दूध का इस्तेमाल भी किया जाता है। सरकार हमेशा गांधी जी के सपने की बात करती है, गांधी जी भी बकरी का दूध पीते थे।
दूसरा विषय है, देसी गाय के उत्पादों का स्वास्थ्य और चिकित्सा में उपयोग। इसमें डी एस टी ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि वह पौराणिक कथाओं और लोक मान्यताओं को ही विज्ञान समझ बैठा है। यह भी स्पष्ट है कि जितने वैद्य उपचार के नाम पर लोगों को बहका रहे हैं, उसका वैज्ञानिक आधार नहीं है, और ऐसे वैद्य चिकित्सा के नाम पर लोगों को केवल बेवकूफ बना रहे हैं। डी एस टी के अनुसार चरक और सुश्रुत ने गाय के मूत्र से कैंसर, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, सोरियोसिस और हार्ट अटैक जैसे रोगों का इलाज खोज लिया था। यह बात दूसरी है कि उस समय ये सभी रोग ज्ञात ही नहीं थे।
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तीसरा विषय है, गाय के उत्पादों का कृषि में उपयोग। यह एक सामान्य विषय है जो हमारा ग्रामीण समाज बहुत अच्छी तरह समझता है। चौथा विषय भी सभी जानते हं- गाय के उत्पादों से पोषण और खाने वाले उत्पाद। पांचवा और अंतिम विषय- यूटिलिटी आइटम्स जैसे फर्श साफ करने का पदार्थ, शैंपू इत्यादि।
इस योजना का अवैज्ञानिक स्तर पूरी भाषा में स्पष्ट दिखता है, प्रयोजन भी और साथ ही डी एस टी शोध के बाद किस तरह के परिणाम चाहता है, यह भी भाषा में स्पष्ट है। जगह-जगह सामाजिक मान्यताओं और ऐसा माना जाता है लिखा गया है, कहीं कोई ठोस जानकारी नहीं है। यही नहीं इसके अनुसार देसी गाय के गुणों से प्रभावित होकर इनकी मांग ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील में बहुत ज्यादा है।
दूसरी तरफ तथ्य यह है कि हाल में ही देसी गाय के संवर्द्धन के लिए मोदी सरकार ने ब्राजील से वहां के सांड के वीर्य का बड़े पैमाने पर आयात किया है। देश में देसी गायों की संख्या और प्रजातियों में लगातार कमी हो रही है और अपेक्षाकृत कम दूध देने के कारण इनकी मांग भी कम है। ऐसी योजनाओं से देश के वैज्ञानिक संस्थाओं और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता खत्म होने लगती है।
पर, मोदी सरकार को अपने गाय के पीछे छिपे एजेंडे को पूरा करना है, चाहे विज्ञान चमत्कार या जादू-टोने के दर्जे तक पहुंच जाए और अब तो प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान भी सरकार के इस प्रयास में भागीदारी निभा रहे हैं।
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