विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: जब बेलगाम बुलडोजर ने तोड़ डाले मंत्री और नेताओं तक के घर!

बुलडोजर के आगे पुलिस बेकार थी, डंडे बेकार थे, गोलियां नाकाम थी। ड्राइवर चीख रहा था, गिड़गिड़ा रहा था‌। हाथ जोड़ रहा था। मत कर, मत कर, मान जा। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य!

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर फोटोः सोशल मीडिया

बुलडोजर पगला चुका था‌। उसने  पिछले एक-डेढ़ साल में इतनी बस्तियां, इतनी झुग्गियां,  इतने मकान, इतनी दुकानें तबाह की थीं, इतने बेबस लोगों के आर्तनाद सुने थे, अफसरों के पैरों पर गिरते, उनसे दया की भीख मांगते, चीखते लोगों को देखा था, इतनी आंखों में इतने आंसू देखे थे, इतनी सिसकियां सुनी थीं, इतने  छाती पीटते, बेहोश होकर जमीन पर गिरते लोगों को देखा था कि उस लोहे की मशीन का दिल पिघल गया था। उसकी छाती में लगातार दर्द रहने लगा था। एक मामले में तो उससे मां-बेटी के ऊपर चढ़ाकर उनकी हत्या करने का जुल्म भी करवाया गया था, इसलिए वह पागल हो चुका था। अभी उसे यही काम और करना था। पता नहीं कब तक करते रहना था। सुबह छह बजे से शाम छह बजे तक करना था। यूपी, एमपी, दिल्ली, असम और न जाने कहां- कहां करना था। बेबसों के और आंसू देखने थे ,चीखें और सुननी थीं, उसका रास्ता रोकते बेबसों को देखना था, इसलिए वह पूरी पागल हो चुका था। संत नहीं हुए थे, संन्यासी नहीं हुए थे,योगी नहीं हुए थे, प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री नहीं हुए थे। उन्हें होना भी नहीं था, इसलिए बुलडोजर हो गया था।

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अभी तक  अपने पागलपन को क्रोध को उसने किसी तरह दबा कर-कुचल कर रखा था, अपने अंदर की हलचल को प्रकट नहीं होने दिया था, उस पर बुलडोजर चला रखा था मगर अब उससे और सहा नहीं जा रहा था। वह नहीं चाहता था, जो काम उसे करना पड़ रहा है, वह और करे और सहे। ड्राइवर, मंत्री और अफसर के निर्देश मानता रहे। वह चीखना चाहता था, 'अब और नहीं, और नहीं' मगर चीख नहीं सकता था, इसलिए उसका पागलपन और बढ़ गया था।

उस दिन जब उसे फिर से इसी काम, इसी पागलपन के हवाले किया जानेवाला था, वह मंत्रियों-अफसरों के इलाके से गुजर रहा था, अंदर ही अंदर उबल रहा था। ड्राइवर तक उसकी तपन पहुंच रही थी मगर वह भी बेजार था। उस दिन बुलडोजर, ड्राइवर की मर्जी के बगैर, उसकी सुने बगैर, गुस्से में कहो या पागलपन में, पहले एक, फिर दूसरे, फिर तीसरे बंगले पर चढ़ता चला गया। उन्हें ध्वस्त करता गया। ड्राइवर ने ब्रेक लगाकर, यहां तक कि उसका इंजन बंद करके भी देखा,वह नहीं माना। उसने बुलडोजर को अपनी नौकरी, अपने बीवी-बच्चों का वास्ता दिया, बुलडोजर नहीं माना। वह बुलडोजर से उतर गया, वह नहीं माना।

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बुलडोजर के आगे पुलिस बेकार थी,  डंडे बेकार थे, गोलियां नाकाम थी। ड्राइवर चीख रहा था, गिड़गिड़ा रहा था‌। हाथ जोड़ रहा था। मत कर, मत कर, मान जा। पागल मत हो लेकिन बुलडोजर ने सुना नहीं, माना नहीं तो ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। वहां रहता तो मंत्रियों-अफसरों के सुरक्षा गार्ड उस पर गोली चला देते। वहीं उसकी लाश बिछा देते‌। उसे आतंकवादी, नक्सली घोषित कर देते! उसे मार कर मेडल ले लेते।

अब सब कुछ बेकार था। बुलडोजर की हत्या नहीं की जा सकती थी, फिर भी उस पर चारों तरफ से गोलियां चलाई गईं। मंत्री खुद पिस्तौल लेकर आए, चलाई मगर बुलडोजर नहीं माना। अब मंत्री चीख रहे थे, उनकी पत्नी और बच्चे चीख रहे थे, छाती पीट रहे थे, दया की भीख मांग रहे थे, जान की अमानत मांग रहे थे। कह रहे थे कि हमारा क्या दोष? वैसे यह मकान हमारा है भी नहीं, फर्नीचर हमारा है नहीं। इसे तोड़कर क्या करोगे? जनता का है। बस जान हमारी है और यहां रखी धन -संपत्ति हमारी है। बाकी हमारा कुछ नहीं, सब जनता-जनार्दन का है। उस पर रहम करो। बुलडोजर ने कुछ सुना नहीं, कहा नहीं। गुस्से से उसकी आंखें लाल भी हुई नहीं। बस वह चलता रहा। एक दो तीन... बंगले ध्वस्त करता रहा!

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इस बुलडोजर से लड़ने के लिए छह और बुलडोजर लाए गए। वहां आकर उनके ड्राइवरों ने कह दिया कि जब आदमी नहीं, ड्राइवर नहीं, बुलडोजर जब पागल हो जाए तो उसका मुकाबला करना संभव नहीं। हमें चाहे फांसी चढ़ा दो पर हम इस बुलडोजर पर अपना बुलडोजर चढ़ा कर अपनी जान गंवाएंगे नहीं। चाहो तो नौकरी से निकाल दो, परवाह नहीं। चाहो, यहीं, इसी वक्त गोली मार दो, चिंता नहीं। हम पागल हो चुके इस ड्राइवरविहीन बुलडोजर से लड़ नहीं सकते। हम इसके आगे अपने हथियार डालते हैं। ये बुलडोजर वहां चुपचाप खड़े रहे, वह अकेला बुलडोजर चलता रहा। उनकी भी यही पीड़ा थी, बुलडोजर चलता रहा। मंत्रियों-अफसरों के बंगले तबाह करता रहा। अफसरों ने उस पर अपना रौब जमाया, कानून और नियमों का हवाला दिया। संविधान की दुहाई भी दी। जब बुलडोजर ने कुछ नहीं कहा, न सुना। तब वे भी अपने बीवी-बच्चों के साथ भाग कर झुग्गियों में जा छुपे। वे समझ गए थे कि यह झुग्गियों की तरफ नहीं आएगा। बुलडोजर का अंत आ गया,वह बुरी तरह थक चुका था। वह वहीं खड़ा हो गया। पस्त हो गया। नीचे गिर गया। जैसे दीवारें ढहती हैं, ढह गया। जैसे पुराने, कमज़ोर पेड़ गिरते हैं, गिर गया।

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आज साधारण जन उस बुलडोजर के गीत गाते हैं, उसकी पूजा करते हैं, आरती उतारते हैं। उसे देवता मानते हैं। एक जगह है, जहां गरीबों के पीछे लाइन बनाकर अमीर खड़े होना पसंद करते हैं। पान,फूल, प्रसाद चढ़ाते हैं। उससे दया की भीख मांगते हैं। करुणानिधान हमारा ध्यान रखना, ऐसी प्रार्थना-वंदना करते हैं। आगे से हमारे बंगले, हमारी जान, हमारा माल निवेदन करते हैं। बुलडोजर देवता, आप हमारी, हमारे हमारे बच्चों की प्रगति में सहायक बनना। हम आपकी शरण में आए हैं, प्रभु।

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एक दिन चार बुलडोजरों के पहरे में मुख्यमंत्री भी आए। उन्होंने सौ फीट दूर से बुलडोजर देवता को प्रणाम किया। सरकार की ओर से सख्त हिदायत थी कि कोई उस अवस्था में उनका फोटो नहीं खींचेगा मगर सोशल मीडिया पर वह जारी हो गया। रहस्य खुल गया। फिर भी बुलडोजर चलते रहे, योगी और भोगी खुश होते रहे, आदमी सहते रहे, बुलडोजर पागल होते रहे।  

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