क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि मई, 2014 के बाद से 'देशद्रोहियों' की तादाद अचानक बहुत बढ़ गई है? कहां से आ गए इतने सारे 'देशद्रोही'? विदेश से तो आ नहीं सकते? मेरे आसपास मुसलमान थोक के भाव से 'देशद्रोही' हो चुके हैं! दो-चार-दस ऐसे होंगे, जो संदिग्ध 'देशभक्तों' की श्रेणी में होंगे! सरकार की नीतियों-कार्यक्रमों के विरोधी, सब 'देशद्रोही' हैं! कम्युनिस्ट 'देशद्रोही', कांग्रेस देशद्रोही- और भी सब विपक्षी दल 'देशद्रोही'! किसानों को न जाने क्या सूझी, वे भी 'देशद्रोही' 'खालिस्तानी' वगैरह बन बैठे हैं। अनाज भी उगा रहे हैं, 'देशद्रोह' भी कर रहे हैं! शाहीनबाग की औरतें पहले किसी गिनती में नहीं थीं। अचानक वे 'भड़कावे' में आ गईं और अपने साथ देश के तमाम इलाकों की औरतों को नागरिकता विधेयक का विरोध करना कर प्रेरित कर देशद्रोही होने का तमगा दिलवा दिया! जेएनयू, एएमयू, जामिया और न जाने किन -किन विश्वविद्यालयों के छात्र और अध्यापक भी 'देशद्रोही' हैं! सारे आंदोलनकारी और दलित घोषित-अघोषित 'देशद्रोही' हैं। अधिकतर कवि, लेखक, पेंटर, स्टेंडिंग कामेडियन, व्यंग्यकार भी इसी श्रेणी में हैं। कुछेक एंकरों को छोड़ कर अधिकतर पत्रकार भी इसी राह पर हैं। कुछ नीतीश कुमार हैं। जो 'देशद्रोही' से 'देशभक्त' हुए, फिर 'देशद्रोही' हुए। फिर से 'देशभक्त' हुए। फिलहाल 'देशद्रोही' हैं। कुछ केजरीवाल जी की तरह हैं। मन-प्राण से 'देशभक्त' हैं। फ़र्क इतना सा है कि जब 'असली देशभक्त' हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं, तब वे सुंदर कांड का पाठ करने लगते हैं। उसे भी तुलसीदास जी ने लिखा, इसे भी उन्होंने लिखा। फिर भी 'असली देशभक्त', उन्हें 'देशभक्त' मानने को तैयार नहीं और वे अपने को 'देशद्रोही' मानने को राजी नहीं! बीच में झूल रहे हैं। न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम वाला हाल है। दिल्ली के उपराज्यपाल जी रोज उन्हें 'देशद्रोहियों' के पाले में धकेलते रहते हैं, वे फिर जोर लगाकर 'देशभक्तों' के पाले में आ जाते हैं। झूलते-झूलते बेचारों का सिर घूमने लगा है मगर उपराज्यपाल जी को दया नहीं आ रही है!
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कुछ पहले जहां थे, अब भी वहीं हैं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, उन्होंने जरा भी 'प्रोग्रेस' नहीं की। वे पहले भी 'देशभक्त' थे , अब भी वही हैं। पहले छुपे हुए थे, अब खुल्लम खुल्ला हैं।कुछ 'देशद्रोही' थे, अब भी 'देशद्रोही' हैं। कुछ भोले थे, शरीफ़ थे। उन्होंने कोई बेईमानी नहीं की, कोई 'देशद्रोह' नहीं किया। जो किया, यह सोचकर किया कि संविधान और कानून के मुताबिक कर रहे हैं। वे समय की गति को पहचान नहीं पाए कि 'देशभक्ति' की धारणा पूरी तरह बदल चुकी है। जो नरेन्द्र मोदी चाहते हैं, वही संविधान है, वही कानून है, वही 'देशभक्ति' है। अब वे 'देशद्रोहियों' की पक्की सूची में हैं। वे औचक धर लिए गए देशद्रोही हैं! उनका करियर भी गया, 'देशभक्ति' भी गई और ऊपर से नौकरी पर खतरे की तलवार लटक गई!
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और किसी 'देशद्रोही' का उल्लेख यहां भूलवश रह गया हो तो वे क्षमा करें। मेरी मंशा इस 'गौरव' से किसी को वंचित करने की नहीं है। मैं खुद इस सम्मान से विभूषित हूं। मैं तो चाहता हूं, 2024 तक देश की पूरी जनता 'देशद्रोही' हो जाए और 'देशभक्त' मोदी जी और शाह जी ही रह जाएं। तब हम सब 'देशभक्ति-देशद्रोह' के इस चक्कर से मुक्त हो सकेंगे! मैं आपकी तरह, मई, 2014 से पहले, न 'देशभक्त', न 'देशद्रोही' कुछ नहीं था, आम नागरिक था! अब दोहरा दायित्व संभाल रहा हूं। अब जो था, वह भी हूं और 'देशद्रोही' भी हूं!
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इतने सारे 'देशद्रोही' हो चुके हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि 'देशभक्तों' से देश खाली हो चुका है।सच यह है कि देश, 'देशभक्तों' से ठसाठस भर चुका है! हिलने-डुलने तक की जगह नहीं बची!छत पर भी वही हैं, फर्श पर भी वही! इतने 'देशभक्त' हैं कि उनकी पहचान का संकट पैदा हो गया है! उन्हें केसरिया या काली टोपी पहननी या एक के ऊपर दूसरी पहननी पड़ रही है, डंडा लेना पड़ रहा है, त्रिशूल धारण करना पड़ रहा है, छुरा चमकाना पड़ रहा है, मुसलमानों को घड़ी-घड़ी धमकाना पड़ रहा है, उनसे जयश्री राम बुलवाना पड़ रहा है, फ्रिज में पड़ा मांस, गोमांस है, इसकी पहचान करनी पड़ रही है। बलात्कारियों के समर्थन में आना पड़ रहा है, तिरंगा यात्रा निकालनी पड़ रही है! आज भी कुछ न कुछ निरंतर करना पड़ रहा है, तब जाकर उनकी पहचान बनी है। कहने का अर्थ यह है कि 'देशद्रोही' होने से ज्यादा देशभक्त होना कठिन है! इधर कोई कंपीटिशन नहीं है, उधर कंपीटिशन ही कंपीटिशन है। बार-बार साबित करना पड़ता है कि मैं आज भी 'देशभक्त' हूं! इस परेशानी को देखकर अनेक आलसी लोग घोषित 'देशभक्त' नहीं बनना चाहते! देशभक्तों को वोट दिया और नमस्ते। उन्होंने सोचा, भाड़ में जाए। अपन तो अपना करियर बनाओ! करियर ही 'देशभक्ति' है। कुछ ने सोचा कि करियर और 'देशभक्ति' साथ -साथ चलना चाहिए! 'देशभक्ति' है तो करियर है वरना बाबाजी का ठुल्लू है।
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