बताते हैं पहले बिल्लियां (इसमें बिल्लों को भी शामिल समझें) सौ या नौ सौ चूहे खाने के बाद हज जाती थीं। भले ही कोई इस कारण उनकी हंसी उड़ाए कि 'मैडम को अब सूझी है-हज जाने की!अब लगा डर खुदा का!' बिल्लियां तो बिल्लियां होती हैं! वे हंसी उड़ाए जाने की परवाह नहीं करतीं!
वैसे पहले के जमाने थे भी और। किस बिल्ली ने कितने चूहे खाए, उनकी गिनती रखी है या नहीं, खा कर वह हज गई है या नहीं, इसकी कोई चिंता नहीं करता था। कोई यह पूछने नहीं आता था कि क्यों री, तूने अभी तक कितने चूहे खाए? हज गई कि नहीं गई? कब जाएगी? जाना जरूर।कम से कम 900 चूहे तो तू खा चुकी होगी! अब चली जा! पाप का बोझ अपने सिर पर रखकर अपना अगला जनम मत बिगाड़। ऊपरवाले से डर। तू नहीं गई तो हम, तेरी वो गत बनाएंगी कि तू जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी याद रखेगी!
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कहने का मतलब यह कि कितने ही चूहे खाओ, हज जाने की अनिवार्यता नहीं थी! कहते हैं कुछ बिल्लियों ने चूहे खाना कभी नहीं छोड़ा। कुछ ने तो बताते हैं,1800 से कम चूहे नहीं खाए होंगे मगर एक बार भी हज नहीं गईं! इतनी बहादुर होती थीं, तब की बिल्लियां! हो सकता है,तब कुछ बिल्लियां मंदिर भी चली जाती होंगी। किसी ने उन्हें वहां जाने से रोका-टोका हो, प्राचीन ग्रंथों से ऐसी कोई उल्लेख नहीं मिलता! कोई पूछता भी होगा कि क्यों री, इधर तू बहुत समय से दिखी नहीं, हज गई थी क्या? सौ चूहे खाकर गई थी या नौ सौ? तो बिल्ली की जैसी इच्छा होती होगी,जैसी परिस्थिति, जैसा मूड होता होगा, वैसा जवाब दे देती होगी। आगे कोई पूछताछ, कोई जासूसी नहीं करता होगा। छापा नहीं पड़ता होगा! उसका सामाजिक बहिष्कार नहीं होता होगा!उसे कोई धर्म विरोधी, राष्ट्रविरोधी नहीं बताता होगा। उल्लेख मिलता है कि कुछ बिल्लियां यह कहने से भी गुरेज नहीं करती थीं कि मैं कहीं नहीं गई और कहीं जाऊंगी भी नहीं! आज तक मैं चूहों के पास ही चुपचाप,दबे पांव गई हूं और वहीं जाती रहूंगी! वही मेरा मंदिर है, वही मेरी मस्जिद! वही मेरा काबा है, वही मेरी कर्बला!
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अब लेकिन जमाना काफी बदल गया है। जमाना हिंदुत्व का आ गया है। अब बिल्लियां हज जाने की ख्वाब में भी नहीं सोचतीं, मंदिर जाने की ही सोचती हैं। एक तो हज ठहरा बहुत दूर। ऊपर से देश के बाहर है। पासपोर्ट-वीजा का चक्कर। फिर वहां जाने पर बिल्ली होकर भी हिंदू- मुसलमान होने का रगड़ा कौन झेले ये सब? पता नहीं, कब कौन इस मसले पर उसे जम कर रगड़ दे! उसकी नागरिकता संदिग्ध बना दे! हज से वह वापस आए तो सरकार उसे पाकिस्तान की बार्डर पर जाकर छोड़ दे!
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कहे कि तेरा वतन उधर, पाकिस्तान में है, वहां जा! उधर जाए तो उधर की गोली खाए। पलट कर इधर आए तो इधर की गोली भी अटेंशन की मुद्रा में तैयार! वैसे भी हिंदू-भारत को अब बिल्लियों की खास दरकार नहीं ! हिंदुस्तानी चूहे अब समझदार हो चुके हैं। वे समझ चुके हैं कि पेट भरने के लिए किसी भक्त के घर में घुसना भी अब सुरक्षित नहीं ! वहां भी पिंजरा होगा या आटे में मिला जहर! इसके विपरीत करणी माता का मंदिर हो या भगवान जगन्नाथ का, वहां न केवल झेड सुरक्षा है बल्कि खाने को माल ही माल है। वहां मरने का कारण भूख नहीं हो सकता, मोटापा, शुगर, ब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक आदि हो सकता है! मौत बिस्तर पर होगी, शानदार होगी,यह भी तय है! जीते जी, न चाहते हुए भी भगवान के भजन कान में पड़ते रहेंगे।इस कारण मरने के बाद स्वर्ग की गारंटी भी है! यह जीवन भी मजे में काटो,अगला भी! इस कारण चूहे अब किसी तरह अपने को बचते- बचाते इन मंदिरों तक पहुंचने का प्लान बनाते हैं। वहां किसी वजह से पहुंच नहीं पातै तो रास्ते में कोई और मंदिर ढूंढ लेते हैं। मंदिर की लक्ष्मण रेखा पार न करो तो फिर मंदिर कोई हो, मजे ही मजे हैं। घी ही घी है, शक्कर ही शक्कर है!
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इन परिस्थितियों में बिल्लियों के लिए भारत एक ऐसी जगह बन चुकी है कि यहां से हज गए तो फिर इंडियन पासपोर्ट होने पर भी जबरन पाकिस्तान भेजा जा सकता है यानी गोली खाना पड़ सकती है!गोली का कोई धर्म नहीं होता मगर चलानेवाले का धर्म भी होता है और देश भी। इसलिए चूहे तो चूहे, बिल्लियां भी अब समझदार हो चुकी हैं। इतनी हिंदू हो चुकी हैं कि उन्हें भूख से मरना पसंद है मगर गोली से नहीं! पाकिस्तानी रेंजरों की गोली से तो बिल्कुल नहीं। राष्ट्रवादी गोलियों की बात और है! उसमें मातृभूमि में स्वाभिमान के साथ मरने का 'गौरव' है! है या नहीं है?
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