भगवान ने भारत के आदमी बनाने शुरू किए (भगवान ने ही किए न?) तो उसे ख्याल आया कि अरे सबके खून का रंग एक जैसा हो गया, ये तो बहुत ही गलत हुआ। पाप हो गया मुझसे! चलो इसे सुधारते हैं। इसका अब एक ही उपाय है कि उनकी चमड़ी के रंग अलग-अलग हों वरना मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव स्थापित करना असंभव हो जाएगा। और भेदभाव स्थापित करने का कोई एक ही तरीका कारगर नहीं हो सकता। यह काम कई स्तरों पर करना होगा। ऐसा नहीं किया तो दुनिया ठीक से चलने लगेगी और ठीक से चलने लगी तो फिर मुझे पूछेगा कौन?
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तो उसने हिंदू बनाए। हिंदू बनाए तो सोचा चलो, अब मुसलमान, सिख,ईसाई वगैरह भी बना देते हैं वरना बेचारे समय -असमय एक दूसरे से लड़ने- मारने जैसा अनिवार्य काम कर नहीं पाएंगे। दुनिया थम जाएगी। कोई इन्हें सिखाना चाहेगा तो भी ये सीख नहीं पाएंगे। फिर उसे लगा कि लड़ना-मारना अपने धर्म से बाहर होगा, तो भी काम नहीं चलेगा। इन्हें अपने धर्म के अंदर भी एक नहीं होना चाहिए! इन्हें लड़ते-मरते रहना चाहिए! उसने ऊंच -नीच के लिए जातियां बना दीं। ये आपस में भी लड़ें और एक- दूसरे से भी। इससे दुनिया में मेरी पूछ बढ़ेगी। उसने विभिन्न पंथ, उपपंथ, उप उपपंथ भी बना दिए। यह काम अभी अधूरा था। लड़ाने के लिए और भी तमाम इंतजाम आवश्यक थे मगर उसे लगा कि अभी के लिए इतना पर्याप्त है।
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उसने आदमी बना दिए तो सोचा पशु- पक्षियों से अलग और ऊपर रखने के लिए इन्हें कुछ पहनना-ओढ़ना भी सिखाना होगा। थोड़ी देर बाद खयाल आया कि अरे मैं इन्हें नंगे रहने और पत्ते लपेटने के युग से आगे ले आया हूं, तो ये कपड़े लपेटे-लपेटे कब तक फिरते रहेंगे? तो उसने कुछ को कपड़े सिलना सिखाया! उन्हें कोट बनाना सिखाया तो पैंट बनाना भी सिखा दिया। कुर्ता बनाना सिखाया तो पायजामा बनाना सिखाने में भी उसने देर नहीं की। इसी तरह साड़ी बनाई तो ब्लाउज-पेटिकोट भी बनाया। शलवार बनाई तो शमीज़ भी बनाया। काली टोपी बनाई तो खाकी निक्कर बनाना भी वह नहीं भूला।
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फिर उसने सोचा कि सभी कपड़े पहनें, यह भी सिद्धांत के विरुद्ध है। कुछ नंगे, कुछ अधनंगे भी रहने चाहिए। इन नंगों-अधनंगों को भूखे-अधभूखे रहना भी सिखाना होगा। नंगे रहें और खाते- पीते रहें,यह ईश्वरीय व्यवस्था के विरुद्ध है। खाते -पीते लोगों को नंगा-अधनंगा बना दिया तो वे मेरी खटिया खड़ी कर देंगे। तो खटिया उसकी बिछी रहे,वह खटिया पर आराम से लेटा रहे, इसलिए उसने नंगों-अधनंगों को भूखा-अधभूखा भी बना दिया! विकास उसने रुकने नहीं दिया!
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मुंबई में उसने एक 27 मंजिला इमारत बना दी, ताकि उसमें पांच-सात लोग आराम के भी बाप के भी बाप के भी लकड़दादा की तरह रह सकें। एक टांग एक कमरे में,दूसरी दूसरे कमरे में, एक हाथ दाएं कमरे में तो एक हाथ बांए कमरे में रख कर। सिर इधर तो धड़ उधर रख कर बेहद आराम से सो सकें। फिर उसे न्याय की दृष्टि से यह भी उचित लगा कि जब ऐसी सुविधा है तो ऐसे इनसान भी होने चाहिए कि झोपड़ा एक हो मगर उसमें रहने वाले पच्चीस हों और ऊपर से झोपड़े तोड़ने की धमकी और उसका सख्ती से पालन भी हो। इसका उचित प्रबंध करते हुए उसे बुलडोजर निर्माण का काम याद आया। और बुलडोजर बनाया तो साहेब और बुलडोजर बाबा का निर्माण करना भी वह नहीं भूला! गांधी जी बनाए तो गोडसे बनाना भी वह नहीं भूला।
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फिर सोचा कि मैंने धरती का और विशेष रूप से भारत के लिए ये सारा इंतजाम कर दिए, बाकी आदमी खुद कर लेगा। चलो, अब स्वर्ग और नरक भी बना देता हूं वरना लोग कहेंगे जो बनाया जिंदा आदमी के लिए बनाया, मर चुके आदमी के लिए कुछ बनाया ही नहीं। इतना करके वह मंदिरों- मस्जिदों में आ गया और तमाशा देखा किया। यह तमाशा इतना मजेदार था कि वह भूल गया कि उसे स्वर्ग जाना था। यहीं वह खाता-पीता और बिगाड़ता रहा। वह चकित हुआ कि जो मैं बना और बिगाड़ नहीं सका, इस आदमी नामक जीव ने वह सब भी कर दिखाया! उसकी कल्पना शक्ति मुझसे प्रबल है। एक बार उसे रास्ते बनाना बता दो, तो फिर वह रास्तों का जाल बिछाता चला जाता है। टुकड़े करना सिखा दो तो एक -एक छिलका अलग कर देता है।
उसे आदमी पर गर्व हुआ और स्वर्ग में फिर से उसने एंट्री ले ली!
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