केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने न जाने कितनी बार दावा किया है कि लंबे अरसे से सरदार पटेल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस-जैसे तमाम नेताओं की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है। ऐसी ही बात उन्होंने 16 अक्तूबर को अंडमान यात्रा के दौरान भी कही। लेकिन इन बातों में दूर-दूर तक कोई सच्चाई नहीं।
स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले रहे नेताओं के आपस में बड़े ही मधुर संबंध थे और यह बात बिल्कुल तय है कि वे एक-दूसरे की भूमिका को कमतर करके पेश नहीं करते थे। आजादी की लड़ाई में दूसरे की भूमिका को कम करके बताने का चलन तो अमित शाह की पार्टी और उसके पितृ संगठन आरएसएस ने शुरू किया है। लेकिन इस चलन को एक अलग ही स्तर तक ले जाने का श्रेय निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी-शाह की जोड़ी को जाना चाहिए जो इसे ही अपना सबसे बड़ा काम मानते हैं।
लेखकों और इतिहासकारों को ऐतिहासिक घटनाओं को दर्ज करने और जैसा उन्होंने देखा-समझा, वैसी व्याख्या करने की स्वतंत्रता के मामले में भारत का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। अंग्रेजों के समय भी लेखकों और पत्रकारों को खासी आजादी हासिल थी और यहां तक कि विदेशी प्रेस के लिए भी गांधी, नेहरू, पटेल और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों का साक्षात्कार करने पर कोई रोकटोक नहीं थी और इन नेताओं और उनके विचारों को अखबारों में पर्याप्त जगह मिलती थी। इसलिए हर नेता की भूमिका का अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इतिहासकारों द्वारा स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन किया गया और उन पर किसी भी नेता को नीचा दिखाने का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
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यह तो मोदी और अमित शाह जैसे लोग हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन के हमारे नेताओं की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया, खास तौर पर सरदार पटेल को बड़ा बताने के लिए नकारात्मक प्रचार का सहारा लिया। जाने-माने संवैधानिक विशेषज्ञ ए. जी. नूरानी के अनुसार, ‘सरदार पटेल की प्रशंसा जब भी की जाती है, उन्हें नेहरू के खिलाफ खड़ा किया जाता है। पटेल की प्रशंसा हमेशा नेहरू की तीखी आलोचना के साथ जोड़कर की जाती है।’ पटेल को हमेशा एक ऐसे पीड़ित के तौर पर पेश किया जाता है जिसकी हिफाजत करने की जरूरत है। सीडब्ल्यूसी में इस आशय के कथित बयान जो भारत में कश्मीर के एकीकरण के लिए सरदार पटेल के बजाय नेहरू को श्रेय देता है, पर भाजपा प्रवक्ता का यह कहना कि वह कांग्रेस के इस झूठ का पर्दाफाश करेंगे, सरदार पटेल की उनकी अवांछित ‘सेवा’ का नवीनतम उदाहरण है। भाजपा-आरएसएस के मुताबिक, पटेल को कभी भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस प्रवृत्ति ने पटेल के जीवन और कार्य के किसी भी गंभीर मूल्यांकन को हतोत्साहित किया है। पटेल के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है। इस आलेख का खाका खींचते वक्त मुझे यह देखकर निराशा हुई कि लौह पुरुष पर गंभीर शोधकर्ताओं के लिए बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। उदाहरण के लिए, विकिपीडिया के संदर्भ खंड में मुझे उनकी जीवनी पर केवल तीन या चार किताबों का जिक्र मिला। इसके अलावा गौर करने वाली बात यह भी है कि विकिपीडिया पर दिए गए 156 संदर्भों में से 55 तो अकेले राजमोहन गांधी की सरदार पटेल पर लिखी जीवनी से हैं। ऑनलाइन पुस्तकालय साइटों पर भी उनके पत्राचारों के अलावा बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। सरदार पटेल निश्चित ही इससे कहीं ज्यादा के हकदार थे और उन पर और ज्यादा किताबें होनी चाहिए थीं।
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सरदार पटेल ने राजे-रजवाड़ों को आजादी बाद के भारत में शामिल करने में बड़ी ही अहम भूमिका निभाई लेकिन अकेले उन्हें ही इसका सारा श्रेय नहीं दिया जा सकता। उनके तेज-तर्रार सेक्रेटरी वी.पी. मेनन और तब के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटेन को भी इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। वी पी मेनन ने अपनी संवैधानिक-वैधानिक विशेषज्ञता से एकीकरण की पटकथा लिखी तो माउंटबेटेन ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ रजवाड़ों को इसके लिए राजी किया। मेनन ने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ इन्टीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स’ में लिखा है कि उन्होंने सरदार पटेल को दिए वादे को कैसे पूरा किया और कैसे भारत में राजे-रजवाड़ों को शामिल करने का काम पूरा हो सका।
लॉर्ड माउंटबेटन ने मेनन के नाम का प्रस्ताव एक प्रांत के गवर्नर के लिए किया था लेकिन सरदार पटेल के आग्रह पर उन्हें नवगठित मंत्रालय मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स में सचिव का पद संभालने की पेशकश की गई। इस विभाग का मंत्री सरदार पटेल को बनाया गया था। मेनन ने पुस्तक में अपने और सरदार के बीच की एक दिलचस्प बातचीत दर्ज की है जिससे पता चलता है कि उन दोनों का रिश्ता कितना परिपक्व और सौहार्दपूर्ण था और जब बात राष्ट्रहित की हो तो सरदार पटेल सामने वाले की बात को किस तरह सहजता के साथ मान लेते थे!
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मेनन लिखते हैं, 'मैंने उन्हें याद दिलाया कि 21 अगस्त, 1946 को उनसे पहली बार मिलने के बाद ही मैंने यह तय कर लिया था कि सभी महत्वपूर्ण संवैधानिक घटनाक्रमों पर उनसे (पटेल से) सलाह-मशविरा करने की हर संभव कोशिश करूंगा और मैंने विशेष रूप से इसका उल्लेख किया कि यह उनका प्रबल समर्थन ही था कि सत्ता का हस्तांतरण संभव हो सका। हम वास्तव में अच्छी तरह एक-दूसरे को समझते थे और जब भी कोई मतभेद उभरता, सौहार्दपूर्ण तरीके से चर्चा कर उसे हल कर लेते। उस समय विकट स्थिति थी और मैंने सरदार से सलाह-मशविरा किया और कहा कि गवर्नर जनरल को जो भी सलाह मैं देने जा रहा हूं, उसकी अंतिम जिम्मेदारी मेरी होगी। अब जबकि हमें मंत्री और सचिव के रूप में काम करना था, मुझे पूरा यकीन नहीं था कि हम एक साथ कितनी दूर चल पाएंगे। इस पर सरदार ने कहा कि यह तो सवाल ही नहीं उठता और मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए। जब मैंने कहा कि ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस नेताओं को सिविल सेवा के लोगों पर उतना भरोसा नहीं है तो उन्होंने जवाब दिया कि मेरे डर निराधार हैं। उन्होंने यह भी कहा कि इसके पहले सिविल सेवा के लोगों के प्रति नेताओं का जो भी रुख रहा हो, उन्हें भरोसा है कि आगे हर कोई मिलजुल कर काम करेगा। वह कैबिनेट और सिविल सेवा के अफसरों के बीच सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने का हर संभव प्रयास करेंगे और उन्होंने अपनी बात रखी भी। (द स्टोरीऑफ दि इन्टीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स, पृष्ठ 93)
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अगर हम किसी को दोषरहित बताते हैं तो ऐसा कहना आधारभूत मानवीय स्वभाव के विपरीत है। लौहपुरुष वल्लभ भाई पटेल भी इसके अपवाद नहीं थे। स्पष्ट-सी बात है कि आरएसएस और अन्य उग्रवादी समूहों का आकलन करने में उनसे गलती हो गई। नेहरू ने कई मौकों पर आरएसएस के प्रति आगाह किया था। महात्मा गांधी की हत्या से महज 25 दिन पहले 05 जनवरी, 1948 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने कहा थाः ‘हालिया वाकयों में आरएसएस की अहम भूमिका रही है और कुछ बड़ी ही भयानक घटनाओं में उसके हाथ के सबूत मिले हैं। उनके नेता दावा तो करते हैं कि आरएसएस राजनीतिक संगठन नहीं है लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि उनकी नीतियां और कामकाज राजनीतिक, सांप्रदायिक और हिंसक गतिविधियां पर टिकी हैं। उन पर लगाम लगाना होगा और हमें उनके पाक-साफ कामकाज की वजह से गुमराह नहीं होना है क्योंकि यह उनकी नीतियों से बिल्कुल अलग है।’
काश, सरदार पटेल आरएसएस के ‘पाक-साफ व्यवहार’ का असली चेहरा देख पाते और उसके साथ पेश आने में उतने ही कठोर होते!
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