भारत में 53.2 करोड़ से ज्यादा वाट्सएप यूजर हैं (जुलाई 2022 का आंकड़ा) जो कुल आबादी का 40% है। इनमें से भी ज्यादातर किसी-न-किसी वाट्सएप ग्रुप से जुड़े हैं और इनमें भी ज्यादातर कई-कई ग्रुप से जुड़े होते हैं। यह कहना शायद गलत न हो कि देश सामाजिक और राजनीतिक रूप से अनगिनत वाट्सएप ग्रुप में बंटा हुआ है जो अब हमारे समाज से लेकर राजनीति तक के लिए ईंट-गारे का काम करते हैं। इन समूहों की विविधता हैरान करने वाली है। इनमें विभिन्न तरह के लोग शामिल हैं जो विभिन्न तरह की गतिविधियों से जुड़े हैं- आरडब्लूए, व्यावसायिक संस्थाएं, राजनीतिक दल ब्लॉगर, सिविल सेवा (सेवारत और सेवानिवृत्त- दोनों), योग, ट्रेकर्स, सिविल सोसाइटी, पारिवारिक समूह वगैरह-वगैरह।
ये वाट्सएप ग्रुप समाचार और विचारों के आदान-प्रदान के लिए बेजोड़ माध्यम हैं और यही समस्या भी है। 2014 में जब से दक्षिणपंथी ताकतों ने दबदबा बनाना शुरू किया है, एक राष्ट्र के रूप में हम विचारधारा, राजनीतिक वफादारी, धार्मिक झुकाव, समावेशिता और सहिष्णुता के स्तर के मामले में जितने विभाजित आज हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे। सच पूछें तो इस विभाजन की झलक वाट्सएप समूहों में मिलनी ही थी लेकिन इसके साथ इस तरह का जहर फैलेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। अब स्थिति यह है कि वाट्सएप ग्रुप हमारे सामने बड़ा नैतिक सवाल खड़े कर रहे हैं।
हिन्दुत्व के धागे और ‘सर्वोच्च नेता’ के प्रति निर्विवाद भक्ति से बंधे दक्षिणपंथी तत्व इन वाट्सएप समूहों के सबसे आक्रामक घटक हैं और इन्हें बीजेपी के आईटी सेल, चापलूस मीडिया, फेक न्यूज और ‘सर्वशक्तिमान’ सरकार की ओर से मदद मिलती है जो इन ‘भक्तों’ को रोजाना नए-नए हथियार मुहैया कराते हैं। ज्यादातर वाट्सएप समूहों पर इन तत्वों का कब्जा हो चुका है।
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यह अधिक उदारवादी तत्वों और आए दिन गालियों की बौछार सहने वाले ‘सेकुलरों’ के लिए बड़ी समस्या पैदा करते हैं जो केवल दावों के बजाय सबूतों के आधार पर बात करना पसंद करते हैं, आंकड़ों पर यकीन करते हैं और बकवास नहीं करते, इतिहास की इज्जत करते हैं और उसे बदलने या फिर से लिखने का पक्ष नहीं लेते, इस नजरिये को स्वीकार नहीं करते कि बीजेपी और राष्ट्र एक दूसरे के पर्याय हैं, जो हमारे मौजूदा संविधान से खुश हैं और नहीं चाहते कि इसे नुकसान पहुंचाया जाए, मानते हैं कि भारत की ताकत इसकी विविधता में है, न कि थोपी गई एकरूपता में, जो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच जानबूझकर पैदा किए गए भेदभाव से नफरत करते हैं (चाहे ऐसा सरकार करे या विपक्षी दल), जो अर्थव्यवस्था पर चंद लोगों के कब्जे का विरोध करते हैं, जो मानते हैं कि मौलिक अधिकार किसी भी उदार लोकतंत्र की आधारशिला हैं और यह नहीं मानते कि इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की जरूरत है।
लेकिन आम तौर पर उन्हें ‘बहुसंख्यक वफादारों’ द्वारा चीख-चिल्लाकर चुप करा दिया जाता है- चाहे चर्चा का मुद्दा गाजा, कनाडा, कश्मीर, हिजाब, सीएए, मदरसा, एमएसपी, ईवीएम, पक्षपातपूर्ण गवर्नर, संघवाद, इलेक्टोरल बॉण्ड, हजारों लोगों को जमानत देने से इनकार, बुलडोजर न्याय, पेगासस, अडानी या अरुंधति रॉय हों। ट्रोल करने वाले जहर-बुझी भाषा, गाली-गलौज से लेकर निजी हमले तक उतर आते हैं। यही कारण है कि उदार लोगों को सोचना पड़ता है कि वे इन राजनीतिक रूप से अशिक्षित और नैतिक रूप से दिवालिया तत्वों की बकवास को सहें या समूह छोड़ दें? यह ऐसा सवाल है जो हममें से कई लोगों को पिछले दस सालों में कभी-न-कभी खुद से पूछना पड़ा है। ज्यादातर लोग या तो इन हमलों के आगे चुप हो जाते हैं या इन भगवा भक्तों के साथ तर्क करने की कोशिश करते हैं। लेकिन इससे उन मूल्यों की रक्षा नहीं होती जिनके प्रति ये प्रतिबद्ध होते हैं।
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याद रखें, आक्रामकता और डराने-धमकाने के खिलाफ चुप्पी कोई विकल्प नहीं और न ही यह हमारे मूल्यों का वाजिब बचाव है, बल्कि एक तरह से यह परोक्ष मिलीभगत है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था: ‘अंततः हम अपने दुश्मनों की नफरत को नहीं बल्कि अपने दोस्तों की चुप्पी को याद रखेंगे।’ चुप्पी केवल उत्पीड़कों के हौसले को बुलंद करती है। इन गुंडों के साथ तर्क-वितर्क का भी फायदा नहीं क्योंकि उनके दिमाग की खिड़कियां कसकर बंद होती हैं जहां रोशनी नहीं जाती। सूअरों के साथ कुश्ती करना भी कोई विकल्प नहीं क्योंकि वे आपको कीचड़ में घसीट लेंगे और कीचड़ के ‘खेल’ में अपने बेहतर अनुभव की बदौलत वे आपको शिकस्त दे देंगे। इन समूहों के सदस्य के रूप में बने रहना केवल उनके एडमिन को खुले दिमाग और निष्पक्षता, बौद्धिक समावेशिता का दिखावा करने का मौका देता है, जबकि हकीकत में इन समूहों का इस्तेमाल नफरत, इस्लामोफोबिया और फासीवादी विचारों को बढ़ावा देने वाले संदेशों को फैलाने के लिए किया जा रहा है।
यहां समस्या केवल मतभिन्नता की नहीं। नीतियों पर मतभेद हो सकते हैं- चाहे बात अर्थव्यवस्था, व्यापार, शिक्षा पाठ्यक्रम, जलवायु परिवर्तन, आरक्षण और क्रीमी लेयर, रक्षा रणनीति की हो या हमारी रोजमर्रा की जिंदगी और शासन के ताने-बाने की। सच्चाई तो यह है कि विचारों और बहस की विविधता एक स्वस्थ समाज की निशानी है लेकिन सभ्यता और लोकतंत्र के मूलभूत मूल्यों-बहुलवाद, धार्मिक सहिष्णुता, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की आजादी, दबे-कुचले लोगों के लिए सकारात्मक कार्रवाई, संविधान के प्रति सम्मान आदि के बारे में दो राय नहीं हो सकती। ये मूल्य संघर्ष, मार-काट और तकलीफ की सहस्राब्दियों के बाद निकले हैं और मानवता के मूल तत्व हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। इन पर न तो किसी तरह का समझौता होना चाहिए और न ही मोल-तोल। वे अब सभ्यता की मूल संरचना हैं और उनके साथ छेड़छाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती, खासकर भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टी को।
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यहां बुनियादी नैतिकता का भी बड़ा मुद्दा शामिल है: क्या हमें ऐसे लोगों के साथ जुड़ाव जारी रखना चाहिए जो इन मौलिक तत्वों के खिलाफ हैं और जिनके जहरीले सिद्धांत हमारे मूल्यों के बिल्कुल खिलाफ हैं। क्या हमें अपनी चुप्पी या हल्के से विरोध के साथ इन सबको चुपचाप स्वीकार करके उनके संदेशों में भागीदार बन जाना चाहिए? या हमें इन समूहों को छोड़ देना चाहिए, चाहे वे मित्र हों या रिश्तेदार? इन मुश्किल सवालों पर कुछ बुद्धिमानी भरे मार्गदर्शन के लिए हम लेखिका और ऐक्टिविस्ट इजेओमा ओलुओ के इन शब्दों पर गौर कर सकते हैंः ‘हम वैसे लोगों को दोस्त नहीं हो सकते जो सक्रिय रूप से उत्पीड़न और नफरत का समर्थन करते हैं। दोस्ती के लिए एक निश्चित स्तर की ईमानदारी की जरूरत होती है।’ या फिर, अमेरिकी टॉक शो होस्ट जॉन स्टीवर्ट के उद्गार को याद कर सकते हैंः ‘अगर आप किसी कट्टरपंथी के दोस्त हैं, तो आप भी कट्टरपंथी हैं।’
अगर आप अपराधी के सहयोगी हैं तो आप भी अपराधी हैं, यह कानून का एक स्वीकृत सिद्धांत है। ऐसे समूहों को छोड़ देना एक सही कदम है। यह साफ करता है कि आप कहां खड़े हैं, ऐसा करना आपकी अंतरात्मा की आवाज के अनुकूल है और आपको जहरीले रिश्तों में घुटते रहने से आजाद करता है।
इस पर जरूर सोचना चाहिए।
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