एक हमारी सरकार है, जिसे राफेल जैसे गंभीर मुद्दों पर जानकारी देने का वक्त नहीं है, एक हमारी सरकार के मुखिया हैं जो अपना और अपनी सरकार का गुणगान करने के लिए लगातार गलत आंकड़े देते रहते हैं और एक हमारी सरकार के मंत्री हैं जो बगैर किसी ज़िम्मेदारी के एहसास के, बेलगाम होकर जो मुंह में आता है, बोल देते हैं। कतार में और भी हैं - कहां तक गिनाएं जब हालात यूं हों कि एक सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसी के आला अफसर ही आपस में झगड़ रहे हों।
लेकिन इस पर भी ठहर जाते, ज़रा आराम कर लेते तो गनीमत थी, लेकिन ये भी न हो सका और आखिरकार सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी वहां महिलाओं को प्रवेश न दिए जाने पर एक केंद्रीय मंत्री बोल ही पड़ीं। और ऐसा बोलीं कि जो भी नारी मुक्ति और अधिकारों पर देश-दुनिया में चल रहे आंदोलनों का हिस्सा हैं और जो महिलाएं सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सबरीमाला मंदिर में प्रवेश पाने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं वो सब शर्म से सर नीचा कर लें और अपने-अपने अभियान छोड़ कर इन मंत्री की चरण वंदना करने लगें।
केंद्रीय मंत्री (जो संयोग से महिला भी हैं) ने सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर कहा कि हालांकि वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ कुछ नहीं कह सकतीं, लेकिन “हमें मंदिर को अपवित्र करने का कोई अधिकार नहीं है...लेकिन कॉमन सेन्स ये कहता है कि क्या आप अपने माहवारी से सने सेनेटरी नैपकिन के साथ किसी दोस्त के घर में जायेंगे? नहीं जायेंगे...तो क्या इस हालत में भगवान के घर जाना (भगवान के प्रति) सम्मानजनक होगा? यही फर्क है। हमें पूजा-अर्चना करने का अधिकार है, लेकिन मंदिर को अपवित्र करने का नहीं...”
आपको ये सुन कर अचानक लगने लगेगा कि आप शायद 18वीं सदी के किसी लम्पट, अज्ञानी संत के नाम पर ठगी करने वाले पुरुष की बात सुन रहे हों! मगर अफ़सोस ये न तो 18वीं सदी है, न ही बोलने वाला पुरुष। यही हमारी बदकिस्मती है कि 21वीं सदी की महिला, उस पर मंत्री ऐसा बोल रही हैं और विडम्बना ये कि वो “यंग थिन्कर्स” (युवा विचारक) नाम के एक सम्मेलन में बोल रही थीं।
ये सरकार और इसके मंत्री वैचारिक रूप से दिवालियेपन के शिकार हैं, ये तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था, हमारे सत्तावर्ग के लोग ‘थोथा चना बाजे घना’ के साथ-साथ खुद को धर्म और नैतिकता का ठेकेदार मानने की बीमारी के शिकार हैं, ये भी वे खुद गर्व से साबित करते ही रहे हैं। लेकिन इससे पहले मंत्री वर्ग ने कभी इतनी स्पष्टता से इतनी स्त्री-विरोधी यहां तक कि सर्वोच्च अदालत विरोधी बात नहीं बोली थी। इसका श्रेय ज़ाहिर है हमारी सरकार की सबसे मुखर और वाक्-प्रलाप में सबसे कुशल मंत्री स्मृति ईरानी को ही जाना था।
जब सरकार की इतनी महत्वपूर्ण मंत्री ने माहवारी को ‘अपवित्र’ घोषित कर ही दिया है और औरतों को दोयम दर्ज़ा दे ही दिया है तो हमारे भाषण देने के शौकीन, गाहे-बगाहे आंकड़ों और ऐतिहासिक तथ्यों में गड़बड़ा जाने वाले प्रधानमंत्री को अपनी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना वापस ले लेनी चाहिए, क्योंकि महिलाएं और बच्चियां तो आपकी नज़र में ‘बराबरी’ के लायक हैं ही नहीं। फिर क्यों इस अभियान के विज्ञापन में करोड़ों खर्च किये गये और जहां-तहां जाकर प्रधान सेवक औरतों की बराबरी का गान करते रहे!
आदरणीय स्मृति ईरानी जी को पता होना चाहिए कि माहवारी का रक्त अपवित्र नहीं होता, बल्कि हिन्दू धर्म में इसे पवित्र और शुभ माना जाता है इसीलिये लाल रंग समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक है। इसीलिये हमारे यहां धरती ‘मां’ है। मंत्री जी, ये वही रक्त है जिसने आपको मां बनने का सौभाग्य दिया है। और मां के बच्चे ही मां को मंदिर में जाने से रोकें - ये कौन सी नैतिकता, कौन सी धार्मिकता कहती है?
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ये नियम-कानून पितृसत्तात्मक समाज ने अपनी सत्ता को सिद्ध करने के लिए बनाए थे और आज कोई भी पुरुष जो पढ़ा-लिखा और समझदार है, इस तरह के बेकार के अंधविश्वासों को नहीं मानता। एक 'हिंदुत्ववादी' पार्टी की सदस्य होने के नाते उन्हें इस धर्म के उन मूल सिद्धांतों को सामने लाना चाहिए था जो इसे एक प्रगतिशील और सभी परिस्थितियों के अनुकूल एक धर्म बनाता है।
लेकिन उसके लिए धर्म की थोड़ी जानकारी होना ज़रूरी है, जो अफ़सोस आजकल ज़्यादातर धर्म के ठेकेदारों के पास है ही नहीं।
स्मृति इरानी जी ने लेकिन एक बात आज सिद्ध कर दी और प्रधान सेवक को इसके लिए उनकी पीठ थपथपानी चाहिए कि वे अपनी पार्टी की अधकचरी, अतार्किक और पुरातनपंथी विचारधारा के प्रति इतनी वफादार हैं कि अपने औरत होने को भी भूल गयीं!
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