सबका साथ एक भ्रामक जुमला है या फिर एक सफेद झूठ। झूठ ही ज्यादा है क्योंकि बीजेपी जानबूझकर बहिष्करण अपनाती है और इसे संस्थागत रूप दे दिया गया है। बीजेपी का कोई भी सांसद या विधायक मुस्लिम नहीं है, फिर भी यब सबका साथ का नारा लगाती है। इसके मंत्री ऐसे लोगों का माला पहनाकर स्वागत करते हैं जो अल्पसंख्यकों की लिंचिंग के दोषी हैं, लेकिन नारा सबका साथ ही है। आखिर किसे बेवकूफ बना रही है पार्टी?
जाहिर तौर पर किसी को नहीं, लेकिन यह फिर भी इस नारे का इस्तेमाल करती है, क्योंकि यह ईमानदार नहीं है। एक समय यह जुमला सुनने में अच्छा लगता था। शायद उस समय पार्टी को यह कहने में संकोच हो रहा था या समय सही नहीं था कि असल में उसकी मंशा क्या है। हम इसका कोई भी कारण निकालें, लेकिन तय बात यह है कि असत्य नारा है, क्योंकि आंकड़े तो झूठ नहीं बोलते।
बेटी बचाओ का नारा उन लोगों के मुंह से अच्छा नहीं लगता जो जानते-बूझते और सोच-समझकर राजनीतिक लाभ के लिए सजायाफ्ता बलात्कारियों को मुक्त करते हैं। बेटी बचाओ तब भी एक जुमला ही दिखता है जब खेल के क्षेत्र में देश का नाम रोशन करने वाली हमारी राष्ट्रीय नायिकाओं को शोषण करने वाले बीजेपी सांसद के खिलाफ कार्यवाही की मांग को लेकर धरने पर बैठना पड़ता है।
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इस सांसद के खिलाफ पार्टी कोई कदम उठाने से शायद इसलिए कतरा रही है क्योंकि इसे पूरे मामले में राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद दिखती है। शायद यही कारण है कि वह खिलाड़ियों की तरफ से आंखें मूंदे हुए है, और एक तरह से बेटियों के शोषण को बढ़ावा ही दे रही है। फिर भी यह बेटी बचाओ का नारा लगाती है, लेकिन अदालत में इस बात पर चुप रहती है कि आखिर उसने बलात्कारियों को क्यों रिहा कर दिया। जाहिर है, यह ईमानदारी से अपना असली चेहरा दिखाने में करता रही है।
कितने लोकतांत्रिक देश होंगे जहां यह राजनीतिक लफ्फाजी देश की वास्तविकता से अलग है? कोई वास्तव में इसके बारे में सोच भी नहीं सकता है। बेशक पाखंड और झूठ सभी राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा हैं और यही कारण है कि बहुत से लोग खुद को इससे दूर ही रखते हैं। लेकिन इस स्तर की झूठी धर्मपरायणता और पुण्य का सभी को नजर आ रहा है। इस मामले में हम अकेले ही ऐसे देश हैं शायद। इसीलिए हमें इसके बारे में बात करनी होगी।
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सबसे रोचक और उल्लेखनीय तो यह है कि एक राजनीतिक दल ये सब कर सकता है और यह भी मान सकता है कि वह इस सबसे बचकर निकल जाएगा, लेकिन यही सत्ता का अहंकार है और इस बार जो भ्रम है वह वास्तविक है। एक तरफ जनसंचार माध्यम है जो इसके अहंकार को गर्त में जाकर भी प्रसारित-प्रचारित कर रहे हैं, और सरकार के पिछलग्गू या चीयरलीडर के रूप में देखे जाने पर खुश है कि उन्हें असली सरकारी प्रोपेगेंडा मशीनरी नहीं समझा जा रहा है। ऐसे में उनसे हम किसी ईमानदार सर्वेक्षण या आकलन की उम्मीद नहीं कर सकते।
इन्हीं में कुछ चुनिंदा मशहूर हस्तियां भी शामिल हैं जिनमें फिल्म स्टार्स, संगीतकार और क्रिकेटर्स तक हैं। और ये सब तब भी नहीं उठते हैं जब वे खुद भी प्रताड़ित या शोषित नहीं किए जाते हैं। ये सभी बोलने में बेहद भयभीत हैं और उन्हें अपनी उस शोहरत-दौलत की चिंता है जो उन्होंने अपनी प्रसिद्धि से हासिल की है। और इसलिए बाहरी रूप से कोई बड़ी असहमति, आधिकारिक और लोकप्रिय आवाज यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है कि जिसे दिन का उजाला बताया जा रहा है, दरअसल वह रात का अंधेरा है।
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और दूसरी तरफ नेताओं के बचाव में ऐसे लोग कतार लगाए खड़े हैं जो सार्वजनिक रूप उन बातों का विरोध करते हैं जो एकदम प्रकट और स्पष्ट है और वे इसे शायद सच भी मानते हैं। ये सब उन नेताओं के साथ खासतौर से है जिन्होंने मान लिया है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही ही होता है। वे इसके सबूत भी चाहते हैं और ऐसा करने वालों की कमी भी नहीं है।
अगर कोई नेता महामारी की दूसरी भयावह लहर में भी विशाल रैलियां करता है तो उसके साथी और मुंहलगे यह साबित करने में जुट जाते हैं कि इन रैलियों से कोविड नहीं फैलता है। ध्यान होगा कि महामारी की दूसरी लहर से ठीक पहले बीजेपी ने बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर घोषित किया था कि प्रधानमंत्री ने कोविड महामारी को परास्त कर दिया है। हालांकि बाद में इसने अपनी वेबसाइट से इस प्रस्ताव को हटा दिया।
जब बीजेपी की राजनीति के मूल स्तंभ के रूप में धार्मिक कट्टरता का पर्दाफाश होता है, तो वह दिखाने लगती है कि अधिकारों के वितरण में पार्टी अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं करती है (जैसेकि ऐसा करना संभव भी हो, और जैसे कि कभी किसी ने उन पर ऐसा करने का आरोप लगाया हो), लेकिन फिलहाल हम इसे अलग रख देते हैं)।
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यदि करोड़ों लोग बेरोजगारी और आधे-अधूरे वेतन का अनुभव कर रहे हैं और दैनिक रूप से ये सब सामने आ रहा है तो वे आंकड़ों में ऐसी हेराफेरी करेंगे और दिखाएंगे कि ऐसा नहीं है और भारत वास्तव में न केवल अमृतकाल में प्रवेश कर रहा है, बल्कि पहले से ही इसमें पहुंच चुका है। सरकार के अपने आंकड़े ही बताते हैं कि गरीबी बढ़ रही है और भोजन समेत तमाम वस्तुओं की खपत में कमी आ रही है, लेकिन 2012 से 2018 के बीच आई इस कमी को सरकार नकार रही है, क्योंकि ऐसा करना ही उसके लिए सहूलियत की बात है। असली आंकड़े क्या हैं और क्या उनकी जांच-पड़ताल होनी चाहिए, इसके लिए आंकड़े सामने न रखने का कोई औचित्य भी नहीं बताया जाता।
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हमें यही मान लेना चाहिए कि जो आंकड़े जुटाए गए हैं, वे इतने खराब है कि सरकार खुद भी उन्हें सामने नहीं रख सकती है। सरकार के ही आंकड़े हैं कि महामारी से पहले ही 2019 में बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी, इन आंकड़ों को खारिज कर दिया गया गया था और जैसे ही चुनाव खत्म हुए इन आंकड़ों को बिना बदलाव या किसी बयान के जारी कर दिया गया। राजा के आसपास जो लोग हैं और जो उनके कान भरते रहते हं, उनकी नैतिकता इसी से स्पष्ट हो जाती है। सत्ता में बैठे लोग, महिलाओं समेत, हकीकत से मुंह छिपाए बैठे हैं और वे सत्यनिष्ठा के बजाए राजा के प्रति वफादारी को चुनते हैं।
ऐसी स्थिति में जो कुछ कहा जा रहा है उस पर विश्वास करना आसान हो जाता है, हालांकि सबूत अलग ही तस्वीर पेश करते हैं। ये सब बिल्कुल गांधी जी के उन तीन बंदरों की क्रियाओं का एक प्रकार है कि कोई बुराई मत देखो, कोई सच मत बोलो और कोई आलोचना मत सुनो। फिर भी नारा जारी है: बेटी बचाओ और सबका साथ।
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