विचार

कोरोना के कहर से अचानक सोते-सोते उठ बैठा सार्क, क्या पीएम मोदी की नई पहल से बदलेगा दक्षिण एशिया का माहौल?

कुछ हफ्ते पहले तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना वायरस को खतरा मान ही नहीं रहे थे और अब उन्होंने अपने यहां इमर्जेंसी की घोषणा कर दी है। स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ एलन मस्क को लगता है कि कोविड-19 पर बहस बेकार की बात है। बहरहाल दुनिया भर में अफरा-तफरी है और हर घंटे परिस्थितियां बदल रही हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

प्राकृतिक आपदाएं जब आती हैं, तब राजनीतिक सीमाएं टूटती हैं। ऐसा सुनामी के समय देखा गया, अक्सर आने वाले समुद्री तूफानों का भी यही अनुभव है और अब कोरोना वायरस का भी यही संदेश है। कुछ हफ्ते पहले तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे खतरा मान ही नहीं रहे थे और अब उन्होंने अपने यहां इमर्जेंसी लगाने की घोषणा की है। स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ एलन मस्क को लगता है कि कोविड-19 पर बहस बेकार की बात है। इसे लेकर अनावश्यक भय फैलाना अच्छा नहीं। उन्होंने ट्वीट किया, “भय बुद्धि का नाश कर देता है (फियर इज द माइंड-किलर)।” बहरहाल दुनिया भर में अफरा-तफरी है और हर घंटे परिस्थितियां बदल रही हैं।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

बुधवार 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने कोविड-19 के प्रसार को पैंडेमिक या विश्वमारी घोषित किया है। इसे पैंडेमिक घोषित करते हुए डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस एडेनॉम गैब्रेसस ने कहा कि इस शब्द का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। बीमारियों के बड़े स्तर पर प्रसार को लेकर अंग्रेजी के दो शब्द प्रयुक्त होते हैं, एपिडेमिक और पैंडेमिक। हिंदी में दोनों के लिए महामारी शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। एपिडेमिक के लिए महामारी और पैंडेमिक के लिए विश्वमारी और देशांतरगामी महामारी शब्द भी तकनीकी शब्दावली में हैं, ताकि दोनों के फर्क को बताया जा सके। यह घोषणा बीमारी की भयावहता से ज्यादा उसके प्रसार क्षेत्र को बताती है।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

डब्लूएचओ ने पिछली बार साल 2009 में एच1एन1 के प्रसार को पैंडेमिक घोषित किया था। एबोला वायरस को, जिसके कारण पश्चिमी अफ्रीका में हजारों मौतें हो चुकी हैं, पैंडेमिक नहीं माना गया। मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (2012) मर्स और एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (2002) सार्स जैसी बीमारियां क्रमशः 27 और 26 देशों में फैलीं, पर उन्हें पैंडेमिक घोषित नहीं किया गया, क्योंकि उनका प्रसार जल्द रोक लिया गया।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

सार्क का जागना

डब्लूएचओ की घोषणा का एक उद्देश्य यह भी है कि दुनिया की सरकारें अब जागें और इसकी रोकथाम के लिए प्रयत्नशील हों। कदम उठाए भी जा रहे हैं। इस बीच अजब-गजब बातें हुई हैं। दक्षिण एशिया में सहयोग के लिए गठित सार्क अचानक सोते-सोते उठ बैठा और उसके सदस्य देशों का एक आभासी (वर्च्युअल) शिखर सम्मेलन हो गया, जो कोरोना वायरस पर ही केंद्रित था। यह एक सकारात्मक गतिविधि है, जो आत्यंतिक नकारात्मकता के शिकार दक्षिण एशिया के लिए सुखद संदेश है। इस सम्मेलन में पारस्परिक सहयोग की बातें कही गईं, फिर भी पाकिस्तानी प्रतिनिधि कश्मीर का उल्लेख करने से नहीं चूका। हालांकि उनकी बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया, पर इतना तो रेखांकित हुआ ही कि दक्षिण एशिया में पारस्परिक सहयोग कितना मुश्किल है।

जनवरी 2001 में गुजरात में आए भूकंप के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने राहत सामग्री से लदा एक विमान अहमदाबाद भेजा था। उसमें टेंट और कम्बल वगैरह थे। सहायता से ज्यादा उसे सद्भाव का प्रतीक माना गया। यह सद्भाव आगे बढ़ता, उसके पहले ही उस साल भारतीय संसद पर हमला हुआ और न्यूयॉर्क में 9/11 की घटना हुई। इसके बाद अक्तूबर 2005 में कश्मीर में आए भूकंप के बाद भारत ने 25 टन राहत सामग्री पाकिस्तान भेजी।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

उस दौरान ऐसे मौके भी आए जब भारतीय सेना ने उस पार फंसे पाकिस्तानी सैनिकों की मदद के लिए नियंत्रण रेखा को पार किया। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में 26 नवम्बर 2008 तक दोनों देशों के बीच सद्भाव और सहयोग की भावना पैदा हो रही थी। दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते बेहतर बनाने के प्रयास होने लगे। अक्टूबर 2014 में भारतीय मौसम दफ्तर ने समुद्री तूफान नीलोफर के बारे में पाकिस्तान को समय से जानकारी देकर भारी नुकसान से बचाया था। साल 2005 के बाद से भारतीय वैज्ञानिक अपने पड़ोसी देशों के वैज्ञानिकों को मौसम की भविष्यवाणियों से जुड़ा प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

जड़ता को तोड़े कौन?

दक्षिण एशिया की जड़ता को तोड़ने की कोशिश नब्बे के दशक में इंद्र कुमार गुजराल ने की थी, जिसे हम ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ कहते हैं। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे बढ़ाने की कोशिश की थी, पर दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा कि दक्षिण एशिया की गाड़ी अपनी जगह अटकी रह गई। मोदी सरकार ने 2014 में शुरुआत पड़ोस के आठ शासनाध्यक्षों के स्वागत के साथ की थी। पर दक्षिण एशिया में सहयोग का उत्साहवर्धक माहौल नहीं बना।

नवम्बर, 2014 में काठमांडू के दक्षेस शिखर सम्मेलन में पहली ठोकर लगी। उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल संपर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके लिए तैयार थे। दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर उस दिशा में भी कुछ हो नहीं पाया।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

काठमांडू के बाद दक्षेस का अगला शिखर सम्मेलन नवम्बर, 2016 में पाकिस्तान में होना था। भारत, बांग्लादेश और कुछ अन्य देशों के बहिष्कार के कारण वह शिखर सम्मेलन नहीं हो पाया और उसके बाद से सार्क की गाड़ी जहां की तहां रुकी पड़ी है। काठमांडू में 18वें दक्षेस शिखर सम्मेलन में मोदी ने कहा था, “दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा, दक्षेस के मंच पर नहीं तो किसी दूसरे मंच से सही।” यानी कि ज्यादातर परियोजनाओं में दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा।

इसके बाद भारतीय राजनय में बदलाव आया। ‘माइनस पाकिस्तान’ अवधारणा बनी। दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने शुरू हुए। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत अपने पड़ोसी देशों की तुलना में अपेक्षाकृत आगे है। काठमांडू में भारत ने एक उपग्रह सार्क के सदस्य देशों को उपहार में देने की पेशकश की। यह कहा गया कि इसका पूरा खर्च भारत उठाएगा। यह उपग्रह दूरसंचार और प्रसारण अनुप्रयोगों अर्थात टेलीविजन, डायरेक्ट-टू-होम, वीसैट, टेली-शिक्षा, टेली-मेडिसिन और आपदा प्रबंधन के क्षेत्रों में मददगार होगा। इस उपग्रह का प्रक्षेपण हुआ, यह काम भी कर रहा है, पर पाकिस्तान इसमें शामिल नहीं हुआ। पिछले साल पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निष्क्रिय होने के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट अपने उच्चतम स्तर पर है।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

एक मौका और

इतनी कड़वाहट के बीच कोरोना वायरस-जनित आपदा ने इस क्षेत्र में सहयोग का एक मौका पैदा किया है। क्या इस क्षेत्र में सहयोग और सद्भाव का माहौल बनेगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13 मार्च को सार्क देशों से अपील की थी कि हमें मिलकर काम करना चाहिए। इसकी पहल के रूप में उन्होंने शासनाध्यक्षों के बीच एक वीडियो कांफ्रेंस का सुझाव दिया। अचानक हुई इस पेशकश पर पाकिस्तान की ओर से फौरन कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, पर बाद में कहा गया कि प्रधानमंत्री इमरान खान के स्वास्थ्य संबंधी विशेष सलाहकार डॉक्टर ज़फ़र मिर्ज़ा इसमें शामिल होंगे।

इस आभासी सम्मेलन की दो बातों पर फौरन ध्यान जाता है। इसमें नरेंद्र मोदी के अलावा श्रीलंका के राष्ट्रपति गौतबाया राजपक्षे, मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहीम मोहम्मद सोलिह, नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली, भूटान के प्रधानमंत्री लोटे शेरिंग, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी शामिल हुए। नेपाल के प्रधानमंत्री ने तो खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें हिस्सा लिया, पर पाकिस्तान ने अपने एक जूनियर प्रतिनिधि को भेजना उचित समझा। इससे पाकिस्तान की राजनीतिक दृष्टि का पता लगता है।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने बीमारी से लड़ने के बाबत अपने सुझावों के साथ-साथ यह भी कहा कि कोरोना वायरस के खतरे से निपटने के लिए जम्मू कश्मीर में सभी तरह की पाबंदियों को हटा लेना चाहिए। यह एक राजनीतिक वक्तव्य है। उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि वायरस से लड़ने के लिए सार्क देशों को चीन से प्रेरणा लेनी चाहिए। इस बयान के पीछे भी राजनीतिक दृष्टि झलकती है। संभव है कि इससे उन्हें पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति में मदद मिले, पर यह बात बेमौका कही गई है।

बीमारी से लड़ने की यह मुहिम इस इलाके में राजनीतिक रिश्तों को बेहतर बना सके, तो इसे उपलब्धि माना जाएगा। सार्क देशों की संयुक्त रणनीति दूसरे क्षेत्रों में सहयोग का माहौल भी तैयार कर सकती है, बशर्ते इस क्षेत्र के देश बनाना चाहें। सन 2014 के बाद से सार्क का शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है। क्यों नहीं हुआ? इसके जवाब में तमाम सवाल छिपे हैं।

Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST

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Published: 16 Mar 2020, 7:59 PM IST