निधन के 58 साल बाद भी जवाहरलाल नेहरू को रोजाना आखिर क्यों निशाना बनाया जा रहा है? कश्मीर से लेकर निर्गुट सम्मेलन, धर्मनिरपेक्षता से लेकर वैज्ञानिक सोच और योजना आयोग से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाने, हर बात के लिए उनकी आलोचना की जाती है। अफसोस है कि यह सब ऐसे समय किया जा रहा है जब अपने ऊपर लगने वाले बेबुनियाद और आपत्तिजनक आरोपों का जवाब देने या भारत के बारे में अपने नजरिये के बारे में बताने के लिए वह हमारे बीच नहीं हैं। सच तो यह है कि यह मुख्यतः नेहरू की ही दृष्टि थी जिसने ‘भारत के विचार’ को आकार दिया।
आज के राजनीतिक रूप से दूषित और ध्रुवीकृत माहौल में प्रधानमंत्री के तौर पर पंडित नेहरू के महत्व के बारे में लिखना प्रासंगिक है और जरूरी भी। महाराष्ट्र हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश नरेन्द्र चपलगांवकर ने यह महत्वपूर्ण काम किया और अर्थव्यवस्था से विज्ञान और संस्कृति से लेकर संघीय राजनीति तक विभिन्न क्षेत्रों में नेहरू की भूमिका पर किताब लिखी। यह पुस्तक मराठी में है और जल्द ही इसका अंग्रेजी में अनुवाद होने जा रहा है। इस किताब में नेहरू पर किए जाने वाले तमाम हमलों के तथ्यपरक जवाब हैं।
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अच्छा है कि यह किताब पहले मराठी में आई क्योंकि पंडित नेहरू के खिलाफ जहर बुझे अभियान का केन्द्र तो नागपुर, यानी महाराष्ट्र ही रहा है। नागपुर में प्रशिक्षित एक संघ पदाधिकारी का लेख केरल में प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया कि गांधीजी की हत्या तो केवल आधा काम था। बाकी आधा काम नेहरू को मारने का था जो रह गया!
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू पर हमले ज्यादा तीखे हो गए। इसकी जड़ में आरएसएस है। 1925 में स्थापना के समय से ही आरएसएस पहले गांधीजी का और बाद में नेहरू का विरोधी रहा है। संघ की कमान ब्राह्मणों के हाथ में रही। मीडिया से लेकर न्यायपालिका, पुलिस मशीनरी से लेकर शीर्ष नौकरशाही और शैक्षणिक संस्थानों से लेकर शिक्षाविदों तक- तमाम महत्वपूर्ण संस्थानों और सरकारी एजेंसियों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। 1930 के दशक में इस समुदाय में गांधी-विरोधी और नेहरू-विरोधी वायरस घोल दिया गया। मोदी शासन ने मीडिया, खासकर सोशल मीडिया के जरिये इस वायरस के संक्रमण को बड़े पैमाने पर फैलाया।
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आरएसएस के संस्थापक और विचारक डॉ. बी. एस. मुंजे की 1931 में मुसोलिनी से लंबी बातचीत हुई थी। वह संघ की संरचना तैयार करने के बारे में फासीवादी तानाशाह से राय मशविरा कर रहे थे। संयोग है कि लगभग उसी समय पंडित नेहरू ने रोम में रहते हुए मुसोलिनी से मिलने का निमंत्रण दो-दो बार ठुकरा दिया था। नेहरू ने साफ कहा था कि वह किसी फासीवादी शासक से हाथ नहीं मिला सकते।
इससे पहले नेहरू 1927 में सोवियत संघ गए थे और उसकी पंचवर्षीय योजनाओं का उन पर खासा असर पड़ा था। 1936 में कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में नेहरू पार्टी के शीर्ष नेता बनकर उभरे। इस अधिवेशन के लिए उन्होंने औद्योगिक मजदूरों और किसानों को लामबंद किया था। तभी आरएसएस का कट्टर समाजवाद-विरोधी तबका सतर्क हो गया और उसी के बाद से नेहरू आरएसएस के निशाने पर आ गए।
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आरएसएस का लगभग पूरा नेतृत्व और ज्यादातर कार्यकर्ता मुख्यतः महाराष्ट्र के मध्यवर्गीय ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग से आते हैं। हैरानी नहीं कि नाथूराम गोडसे भी इसी वर्ग-समुदाय से था। मराठी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का दिमाग नेहरू विरोध के जहर से भरा हुआ है। इसलिए, जरूरी था कि इस वर्ग के सामने नेहरू को पूरी निष्पक्षता और ऐतिहासिक सटीकता के साथ पेश किया जाए। न्यायमूर्ति चपलगांवकर की किताब यही काम करती है।
तीस और चालीस के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन ने तमाम मजबूत राजनीतिक विचारधाराओं को जन्म दिया- समाजवादी, कम्युनिस्ट, उदारवादी (वामपंथी और दक्षिणपंथी)। इन नई राजनीतिक धाराओं ने आरएसएस और हिन्दू महासभा द्वारा प्रचारित हिन्दुत्व के प्रसार को रोक दिया। लेकिन वह वायरस बच गया और इन प्रतिगामी ताकतों ने उसे पोषित किया। गांधीजी की हत्या के बाद खास तौर पर महाराष्ट्र की उच्च जातियों ने जिस तरह खुशियां मनाईं, उससे पता चलता है कि नफरत के उस वायरस के संक्रमण ने लोगों के दिमाग को किस तरह जकड़ रखा था।
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नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद अन्य विचारधारा वाले भी नेहरू के विरोधी हो गए। वामपंथी भी पीछे नहीं रहे। कुछ सांप्रदायिक कम्युनिस्टों का मानना था कि नेहरू पूंजीवाद का एजेंडा पूरा कर रहे हैं। राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों के लिए नेहरू बड़ी पूंजी और कुलीन वर्ग के साथ मिल गए थे और पिछड़ी जातियों और वर्गों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। बुद्धिजीवियों और मीडिया का अमेरिका परस्त मजबूत धड़ा मानता था कि नेहरू सोवियत संघ की ओर झुके हुए हैं और तथाकथित गुटनिरपेक्षता एक दिखावा है। कृषक लॉबी जिसमें मुख्य रूप से अमीर किसान थे, ने तर्क दिया कि नेहरू किसान विरोधी और उद्योग समर्थक थे।
इन सभी, खासकर मध्यम वर्ग के शिक्षित-उच्च जाति वालों ने नेहरू-विरोधी राजनीति के लिए पर्याप्त आधार बना लिया था। बेशक उनमें से ज्यादातर ने नेहरू को खलनायक या राष्ट्रीय भावना के दुश्मन के तौर पर नहीं देखा लेकिन उन्होंने नेहरू के नेतृत्व से खुद को अलग जरूर कर लिया।
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हालांकि कला और संस्कृति की दुनिया ने नेहरू को एक आधुनिकतावादी प्रतीक के रूप में देखा। दिलीप कुमार, राज कपूर, के. ए. अब्बास, इंडियन पीपुल्स थिएटर (इप्टा), कन्ना या एमएफ हुसैन जैसे प्रमुख चित्रकारों से लेकर कुमार गंधर्व जैसे शास्त्रीय गायकों, सितारवादक पंडित रविशंकर से लेकर अमृता प्रीतम जैसे लेखकों या इरफान हबीब या रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों को नेहरूवादी कहा जा सकता है।
लेकिन धीरे-धीरे नेहरूवादी चमक मिटने लगी, खासकर जब से उदारवादी अर्थव्यवस्था में नया मध्य वर्ग तैयार हुआ। विचारधारा की जगह प्रौद्योगिकी ने ले ली, व्यक्तिवाद ने सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक न्याय के मानदंडों को बदल दिया, कैरियरवाद ने आदर्शवाद को परे धकेल दिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बहस ने सामाजिक संवाद को बदल दिया तो सोशल मीडिया ने सामाजिक चेतना पर कब्जा कर लिया। ऐसी दुनिया में नेहरू के अनुयायियों के लिए प्रगतिशील राष्ट्रवाद वाले सबसे जीवंत, उदार विश्व दृष्टिकोण के रूप में नेहरूवाद की जगह को बचाए रखना मुश्किल था।
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अब व्यावहारिक विदेश नीति के नाम पर भारत गैर-सैद्धांतिक नजरिया अपना रहा है। वह अमेरिका की अधीनस्थ भूमिका में है, भले ‘स्वतंत्र’ होने का नाटक करते हुए रूस का समर्थन करता है। वह विकासशील देशों का नेता भी नहीं रहा।
गैर-सैद्धांतिक विदेश नीति की तरह, भारत अब पाखंडी उदार अर्थव्यवस्था को अपना रहा है। खुली अर्थव्यवस्था का मुखौटा पहनकर दिग्गज कॉरपोरेट के बताए रास्ते पर चल रहा है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग बर्बादी का सामना कर रहे हैं। ‘मुफ्तखोरी’ पर हमले के नाम पर पूरे कल्याणकारी ढांचे को खत्म किया जा रहा है। एकाधिकार वाली पूंजी पूरी अर्थव्यवस्था को निगल रही है और खेती-किसानी को तबाह कर रही है।
याद रखना होगा कि नेहरू पर हमला सिर्फ उनके व्यक्तित्व या चरित्र पर हमला नहीं। यह हमला स्वतंत्रता आंदोलन और उसके मूल्यों पर है। इसलिए कांग्रेस के साथ राजनीतिक या चुनावी मतभेद चाहे जो भी हों, अंतरराष्ट्रीयता, मानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को खतरे का एहसास होना चाहिए। बड़े सोचे-समझे तरीके से धार्मिक-नवउदारवादी फासीवाद को पाला-पोसा जा रहा है। यह स्वतंत्रता आंदोलन से कम महत्वपूर्ण संघर्ष नहीं।
(कुमार केतकर पूर्व संपादक और कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य हैं)
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