सिर्फ चंद दिनों में ही पूर्वोत्तर में बीजेपी को दोहरा झटका लगा और उसके दो भरोसेमंद सहयोगियों असम गण परिषद और नेशनल पीपुल्स फ्रंट ने उससे किनारा कर लिया। वह भी बिना किसी बड़े राजनीतिक लाभ के। एजीपी ने रिश्ता खत्म करने का ऐलान कर दिया है और एनपीपी भी बाहर के रास्ते पर है। ये सब एक महीने के अंदर हो गया, क्योंकि इससे पहले बिहार में बीजेपी की सहयोगी रही आरएलएसपी ने एनडीए से गठबंधन तोड़कर विपक्ष के महागठबंधन का दामन थाम लिया।
इसी बीच भगवा दल ने सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देकर एआईएडीएमके को भी नाराज कर दिया।
ध्यान रहे कि पूर्वोत्तर में बीजेपी की राजनीतिक जमीन क्षेत्रीय दलों के सहयोग से तैयार हुई है, और ऐसे में जरूरत थी कि बीजेपी इन दलों को संभाल कर रखती। लेकिन, इसकी भूख बढ़ती गई और वह पूर्वोत्तर में अपना साम्राज्य बढ़ाने की जुगत लगाने लगी।
नागरकिता संशोधन बिल ने एजीपी को नाराज किया और उसने यह कहकर एनडीए से किनाराकशी कर ली कि यह 15 अगस्त 1985 को हुए असम समझौते का उल्लंघन है। असम में नेशनल सिटीज़न रजिस्टर इसी समझौते के आधार पर बनाया जा रहा है।
समझौते के तहत तय हुआ था कि 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए हुए किसी भी बाहरी को भारतीय नागरिकता नहीं दी जाएगी। दरअसल एजीपी और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने 1980 में इसे लेकर एक बड़ा आंदोलन किया था। लेकिन एजीपी का मानना है कि नागिरकता संशोधन बिल इन सारी कोशिशों को नाकाम कर देगा, क्योंकि नए बिल के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के लोगों को भारतीय नागरिकता मिल जाएगा, हां इसमें मुसलमानों, यहूदियों और बहाइयों को यह अधिकार नहीं मिलेगा।
ऐसा नहीं है कि एजीपी ने अचानक खुद को एनडीए से अलग कर लिया है। वह काफी समय से बीजेपी को संकेतों में चेता रही थी, लेकिन बीजेपी ने अपने अंहकार में उसकी चेतावनी को अनसुना कर दिया। एजीपी का मानना है कि नागरिकता कानून से देश में सीमापार से घुसपैठ को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन बीजेपी के इरादे कुछ और हैं। वह लोकसभा चुनाव से पहले बंगला बोलने वाले असमिया हिंदुओं को रिझाना चाहती है। वैसे बीजेपी की इस योजना में बजाहिर तो कोई बुराई नजर नहीं आती। बीजेपी की सोच है कि देश के हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समाज के लोग इस बिल का स्वागत करेंगे।
लेकिन बीजेपी की इस योजना और इरादों को हिंदू वर्चस्व वाली असम गण परिषद ने ही झटका दे दिया है। वहीं ईसाई वर्चस्व वाले मेघालय की एनपीपी ने इस बिल का विरोध करते हुए आंखें तरेरी हैं।
इस सबसे ऐसा लगता है कि संघ परिवार गणितीय समीकरणों में कमजोर है। वास्तविकता यह है कि असम में करीब आधी आबादी (48.38 फीसदी) असमिया बोलती है और करीब एक तिहाई आबादी (30 फीसदी) ही बांग्ला बोलती है। यह भी हकीकत है कि बांग्ला बोलने वाली इस आबादी में मुसलमानों की ठीकठाक तादाद है, और कम से कम बांग्ला बोलने वाली आबादी का यह हिस्सा तो बिल के साथ नहीं हो सकता।
तो क्या माना जाए कि बांग्ला बोलने वाले अल्पसंख्यक असमिया हिंदुओं के लिए बीजेपी ने जल्दबाज़ी में यह कदम उठाया है। सच्चाई यह है कि असम के हिंदू बंगाली भी इस बिल से खुश नहीं हैं, क्योंकि एनआरसी से उनके नाम भी गायब हो गए हैं।
बीजेपी नेतृत्व को लगता है कि पश्चिम बंगाल में बंगाली, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों के हिंदू उसे सिर्फ आधार पर वोट दे देंगे कि उसने बंग्लादेशी, पाकिस्तानी और दूसरे देशों के हिंदुओं को नागरिकता देने का फैसला किया, लेकिन यह उसका भ्रम भर है और कुछ नहीं।
बीजेपी को नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र, गुजरात और दूसरे राज्यों में रहने वाले यूपी-बिहार के हिंदुओं के साथ शिवसेना, एमएनएस और बीजेपी के लोगों ने क्या सुलूक किया था, तो वे पड़ोसी देशों से आने वाले हिंदू, ईसाई और दूसरे धर्म के लोगों के साथ क्या करेंगे।
दूसरा बीजेपी की इस कवायद के आर्थिक पहलुओं की समीक्षा भी तो होनी है, ऐसे में नागरिकता कानून के बहाने वोट बटोरने की कोशिशें नाकाम ही होती नजर आ रही हैं।
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