विचार

आकार पटेल का लेख: लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के 3 महीने बाद भी भक्त नहीं सह पा रहे हैं हकीकत

लोकसभा चुनाव नतीजे आए करीब 4 महीने बीत चुके हैं, लेकिन भक्त अभी तक इन्हें नहीं पचा पा रहे हैं। इस तरह वे प्रधानमंत्री के उस रास्ते में ही अवरोध खड़े कर रहे हैं जिस पर वे अब आगे बढ़ चुके हैं।

सोशल मीडिया और पीएम मोदी
सोशल मीडिया और पीएम मोदी 

आप जैसे बहुत से लोगों की तरह मैं भी उस तरह की सोशल मीडिया सामग्री से दूर ही रहता हूं जो दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर या भक्तों द्वारा जारी की जाती है। लेकिन इस लेख में हम उन्हें दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर ही कहेंगे।

आप में से कई लोगों की तरह मैंने भी सोशल मीडिया पर उन लोगों द्वारा बनाई गई सामग्री से परहेज किया है जिन्हें ‘दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर’ कहा जाता है, जो आम बोलचाल की भाषा में ‘भक्त’  के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन इस कॉलम में उन्हें ‘दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर’ ही कहा जाएगा। वैसे तो 2014 के बाद के दौर में ऐसा करने का कोई अवसर नहीं था, क्योंकि देश में ऐसी सरकार थी जो खुद ही अपना ढोल पीटती है, तो ऐसे में हम समूहगान या कोरस करने वालों को क्यों सुनें?

लेकिन 4 जून को भारतीय जनता पार्टी के हाथों से बहुमत फिसलने के बाद, मुझे लगा कि मुझे प्रधानमंत्री के सबसे समर्पित संदेशवाहकों पर बात करनी चाहिए। पिछले हफ़्ते का काफी समय ऐसी सामग्री देखने में बीता और इस पर क्या विचार उभरे वह आगे लिख रहा हूं।

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सबसे पहले तो यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि इन लोगों में प्रमुख हस्तियों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं हैं, कई गुमनाम हैं और उनमें से सबसे सक्रिय लोगों की सामग्री को भी उतना नहीं देखा जाता जितना रवीश कुमार और ध्रुव राठी जैसे लोगों के कार्यक्रमों और सामग्री को देखा जाता है। मुझे लगता है कि इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि ये लोग मूल रूप से सरकार के दावों (इसके प्रदर्शन और डिलीवरी जैसी चीज़ों) को ही दोहराते हैं और इसलिए उनके आधार दर्शक भी सीमित हैं। आखिर कोई दूसरे स्त्रोत से आने वाली चाटुकारिता भरी सामग्री को क्यों देखेगा? दूसरी बात यह है कि वे या तो हमेशा गुस्से में होते हैं या दुखी दिखाई देते हैं। इस तरह इनकी बनाई सामग्री देखने लायक नहीं रह जाती।

दूसरी और यह दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सितंबर शुरु होने के बावजूद ये लोग अभी 4 जून को आए लोकसभा चुनाव के नतीजों पर ही अपनी निराशा जता रहे हैं। इनकी जगह कोई और पार्टी होती या उसके समर्थक होते तो सरकार में वापसी पर खुश होते। लेकिन दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर या भक्तों को तो ऐसा मालिक चाहिए जिसका सत्ता पर पूर्ण प्रभुत्व हो, जोकि 240 सीटों से उसे या आगे कहें तो उन्हें नहीं मिल सकता। वे नतीजों से चकित हैं और कारण नहीं खोज पा रहे हैं ‘न्यू इंडिया’ और बाकी दावे रातोंरात लुप्त हो गए।

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तीसरी बात यह है कि दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर को लगता है कि विपक्ष की सोशल मीडिया टीमों की साजिशों के कारण ही बीजेपी को बहुमत से हाथ धोना पड़ा। खास तौर पर दो बातें जो फर्जी खबरों के तौर पर फैलाई गईं, वे थीं कि बीजेपी आरक्षण खत्म कर देगी और संविधान में बदलाव करेगी। वैसे यह भी अद्भुत बात है कि भक्तों को लगता है कि मीडिया नैरेटिव से मतदान के तौर-तरीकों में बदलाव आया है। उनको लगता है कि अगर इस ‘फर्जी खबर’ पर बीजेपी की तरफ से सटीक प्रतिक्रिया होती तो वह फिर से 300 सीटें या अगर उससे ज्यादा नहीं, जीत सकती थी।

यह ध्यान देने वाली बात है कि ये सारे लोग खुद आरक्षण विरोधी हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे शहरी उच्च जाति या वर्ग के लोग हैं जो अपने वर्ग हितों की रक्षा कर रहे हैं। ऐसा नहीं लगता कि वे इस तथ्य से वाकिफ हैं कि उनके यानी मोदी के भक्तों के आरक्षण के खिलाफ गुस्से में बोलने से मतदाताओं पर कोई असर पड़ेगा।

इन भक्तों की भावनाएं अमित मालवीय नाम के व्यक्ति पर भी केंद्रित हैं, जो जाहिर तौर पर बीजेपी का सोशल मीडिया चलाता है, लेकिन मैं यह नहीं समझ पाया कि वे उससे क्यों नाराज हैं।

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चौथी बात यह है कि भक्तों को महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बीजेपी द्वारा पार्टी में लाए गए दलबदलुओं से नफरत है। यहां हमें उनसे सहमत होना होगा कि इससे बीजेपी को इससे नुकसान हुआ है, हालांकि उनकी भावना भ्रष्टाचार की अस्वीकृति के साथ-साथ वैचारिक शुद्धता की इच्छा से भी प्रेरित है।

यह बात दूसरे पहलू से जुड़ी है, जो बीजेपी द्वारा समावेशिता और धर्मनिरपेक्षता की किसी भी बात से उनकी नफरत को जाहिर करती है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि बीजेपी को आरएसएस की जरूरत नहीं है, बीजेपी भगवा का पर्याय नहीं है और 'सबका साथ' का पालन करती है। भक्तों को यह बात अच्छी नहीं लगी।

पांचवीं बात यह है कि मोदी सरकार ने नतीजों के बाद से जितने भी यू-टर्न लिए हैं, उससे दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर यानी भक्त व्यक्तिगत रूप से अपमानित महसूस कर रहे हैं। उन्होंने इस तथ्य को कभी माना ही नहीं कि ऊपर से नीचे की तरफ बहती विचारधारा वाली सरकार का एक दशक समाप्त हो चुका है और प्रधानमंत्री को काम करने का एक नया तरीका खोजना होगा। ये भक्त वक्फ बिल और लेटरल एंट्री जैसे मामलों पर खासतौर से गुस्से में हैं।

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छठी बात यह है कि उनके बीच मोदी की छवि पहले जैसी ही बरकरार है। शायद वे इस झटके को इस तरह देखते हैं कि ये सब जल्द ही गुजर जाएगा, क्योंकि उनके द्वारा तैयार सामग्री को घंटों तक देखने के बाद भी प्रधानमंत्री या उनके कामकाज के तरीके की आलोचना नहीं मिलती है। इन भक्तों के लिए रोज़गार या महंगाई जैसे वास्तविक मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनके लिए तो यही काफी है कि मोदी के पास शासन करने की अद्भुत क्षमता है। राजनीति और मीडिया पर कॉर्पोरेट कब्ज़ा और बीजेपी के अंदर भाई-भतीजावाद भी भक्तों को पसंद नहीं आता है।

शायद भक्तों की हैरानी का एक कारण है कि चुनावी नतीजों से मतदाताओं ने मोदी को अस्वीकार कर दिया है, एक दशक के उनके प्रदर्शन और भविष्य के लिए उनकी गारंटी पर मतदाताओं ने ध्यान नहीं दिया।

सातवीं और आखिरी बात यह है कि ये दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर या भक्त अब भी काफी उग्र हैं। और ऐसा केवल उनके विचारों के कारण नहीं बल्कि उनके शब्दों के कारण भी है। अल्पसंख्यकों, हाशिए पर पड़े समुदायों आदि के लिए वे जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह घिनौनी है। उनका विश्वदृष्टिकोण अंधकारमय है जिसमें मध्यम मार्ग, समझौता या संयम की जगह नहीं है।

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मैं इस बात से निराश हूं कि दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर या भक्तों का विचार आधार कितना उथला है। बौद्धिक रूप से, यह अवरुद्ध है और दर्शकों या श्रोताओं (या पाठक) के लिए इसमें कुछ भी विशेष रूप से उपयोगी नहीं है। इनके विचार प्रधानमंत्री को समर्थन नहीं दे सकते और न ही दे पाएंगे, क्योंकि वह तो समावेशन के नए मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। दरअसल दक्षिणपंथी इन्फ्लुएंसर या भक्त प्रधानमंत्री की परेशानियों को और बढ़ा देंगे, क्योंकि वह कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि उनके भक्त एक बीते हुए युग में ही जी रहे हैं।

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