सभी फासिस्ट विचारधारा का आम लक्ष्य जनता पर नेतृत्व का नियंत्रण करना है। यह देश की सामूहिक पहचान के साथ व्यक्ति की लगभग संपूर्ण पहचान के जरिये इस हद तक हासिल की जाती है जहां व्यक्ति पूरी तरह खत्म हो जाता है और उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता। एडोल्फ हिटलर ने इसे सबसे अच्छे तरीके से देश के साथ व्यक्ति की पूर्ण पहचान के तौर पर विस्तार से बताया था। उसके शब्दों में: ‘किसी व्यक्ति की कोई विवेकाधीन वसीयत या अधिकार नहीं। निजी तौर पर खुश होने का समय समाप्त हो गया है।’
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आप देखें, इसमें किसी किस्म की अस्पष्टता बिल्कुल नहीं है। लक्ष्य व्यक्तिगत इच्छा को समाप्त कर देना है और इस कठोरता को देश के उद्शदे्य में लगाना है। इस तरह की संस्कृति में सैमुअल हंटिंग्टन- जैसे सांख्यकीविद लिबरलों की तरह हर जगह जाससू लगाए जाते हैं। इस तरह का लक्ष्य किस तरह हासिल किया जा सकता है? एडोल्फ हिटलर ने अपने चापलूसों को इस बारे में विस्तार से बताया थाः ’प्रोपेगैंडा के चतुर और लगातार उपयोग के जरिये कोई स्वर्ग को नरक या पूरी तरह दयनीय जीवन को स्वर्गिक दिखा सकता है।’ अगर इस बारे में कोई संदेह हो, तो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) प्रमुख रहे विक्रम सूद की किताब ‘दि अल्टीमेट गोल’ देखें जिसमें वह बताते हैं कि जासूस किस तरह अपने स्वामियों के लिए किसी के दिमाग पर कब्जा करने के लिए मिथ और कहानी गढ़ते हैं। लोगों को समुचित प्रोपेगैंडा के साथ ऐसे व्यूह में डाल दो जो कभी समाप्त न होने वाली, खास तौर पर एकांगी, पटकथा उपलब्ध कराती है और इसमें ऐसे मोड़ होते हैं जो कभी समाप्त नहीं होते और ऐसी बातें बिल्कुल तैयार रहती हैं जैसे वह उसकी ही इच्छा हो। हर कठिनाई, हर विपदा तब तक झेल ली जाएगी जब तक आप अपने प्रोपेगैंडा की पटकथा में जनता को मानसिक तौर पर जोड़ रहोगे। जैसा कि हिटलर ने कहा भीः ‘नेतृत्व की कला... लोगों का किसी एक शत्रु के खिलाफ ध्यान टिकाए रखना है और इस बात का ध्यान रखना है कि कोई भी बात उस तरफ से ध्यान हटाने वाली नहीं हो।’ एक शत्रुनिर्धारित करो। उसे इस दुनिया की सारी बुराइयों की जड़ बताओ। उसे इस रूप में पेश करो कि वही तुम्हारे लिए कष्ट पैदा करता है और तुम्हारे अस्तित्व के लिए खतरा है। अपने अस्तित्व का लक्ष्य उसका पूर्ण खात्मा बना लो और इस पटकथा को इधर-उधर भटकने न दो। इसे एक ही शत्रु पर केंद्रित रखो।
आप ठीक से नजर डालें और कुछ दूरी से घटनाक्रम को देखें, तो भारत में इसे होते देख सकते हैं और ऐसी पटकथा यहां चल रही है।
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हिटलर के पास इसे विस्तार देने वाले के तौर पर जोसेफ गोएबल्स था जिसने देशव्यापी रेडियो के रूप में उस वक्त उपलब्ध आधुनिक टेक्नोलॉजी को समझा था। गोएबल्स ने हिटलर के विचारों को जनता तक पहुचाने के लिए 24/7 रेडियो प्रसारण का उपयोग किया। जिस तरह आज हमारे लिए सोशल मीडिया और वाट्सएप है।
गोएबल्स ने अपनी कला के बारे में खुद ही इस तरह बतायाः ‘आप काफी बड़ा झूठ बोलते हैं और इसे दोहराते रहते हैं, तो लोग आखिरकार उस पर यकीन कर लेंगे। झूठ उस समय तक ही बना रह सकता है जब तक कि सत्ता झूठ के राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य प्रभावों से जनता को बचाए रखे। इसलिए सत्ता के लिए असहमति को दबाने के लिए सभी शक्तियों का उपयोग बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सच्चाई झूठ का घातक शत्रु है और विस्तृत तौर पर, सच्चाई सत्ता का सबसे बड़ा शत्रु है।’
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लेकिन चक्रव्यूह की यह सब विस्तृत मशीनरी क्यों जरूरी है? फासिस्टों को इसकी जरूरत क्यों होती है? लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और प्राथमिक पहचानों के संदर्भ में उसकी आधारभूत संरचना में इसका जवाब है।
कल्पना करें कि आपके पास छोटा हिस्सा है जो उस तेजी से नहीं बढ़ सकता जिस तेजी से भेड़ की संख्या बढ़ती है। आपकी प्रति व्यक्ति जीडीपी दशकों से थमी हुई है जबकि दूसरे काफी आगे हैं। दूसरे देशों के बड़ लोगों की तुलना में अपना स्तर बनाए रखने के लिए अपने बड़े लोग यथासंभव क्या कर सकते हैं? एक रणनीति असमान समाज बनाना है- मतलब, आय की पिरामिड के निचले आधे हिस्से से संसाधन लेना और इसे ऊपर वालों की ओर स्थानांतरित कर देना। इस तरह की रणनीति दोहक (एक्सट्रैक्टिव) समाज बनाती है जो सीधे-साधे भेड़ को गरीब और बड़े लोगों को संपन्न बनाती है।
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कम मजदूरी और धनिकों के लिए कम दरों वाले टैक्स इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन भारत में हम अधिक मूल्य वाली मुद्रा के साथ इस रणनीति का पोषण करते हैं जो श्रम आधारित उद्योग से टैक्स को बचा ले जाता है और पूंजी को पूंजी आधारित उद्योग की ओर ले जाता है जो बदले में उच्च टैरिफ वाली दीवारों के जरिये विदेश में प्रतिद्वंद्विता से बचाता है।
हम शिक्षा महंगी कर नीचे से ऊपर बढ़ने की गति को रोकते और सीमित करते हैं। हम वर्गों को जातियों के साथ मिलने में रुकावटें खड़ी करते हैं। लव जिहाद इसका ताजा उदाहरण है। भोले- भाले भेड़ को उसके बाड़ में रखे रहने की असंख्य रणनीतियां समाज में इस कदर गहरे तक पैठी हैं कि हम जानते भी नहीं कि वे हैं भी। फासिज्म सीधे-साधे भेड़ को अपनी इच्छा के अनुरूप चलाने की दृष्टि से गुलाम बनाने के लिए आदर्श उपकरण है- उनके व्यक्तित्व को उनके देश के साथ मिलाकर ऐसा किया जाता है। यह एकाकार होना है जहां आपमें जो भी है, वह समाप्त हो जाता है- आपकी आत्मा भारत माता में समाहित हो जाती है।
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यहीं समझ में आता है कि हिटलर की रणनीति क्यों सफल रहती हैः ‘वे सरकारें कितनी सौभाग्यशाली हैं जो ऐसे लोगों पर शासन करती है जो सोच-विचार नहीं करते हैं।’ किसी भी असंतुष्ट की असहमति को नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप निबटा जा सकता है। उसने कहा भी थाः ‘सफलता के लिए पहला आवश्यक तत्व हिंसा का निरंतर और नियमित होना है।’
जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे बिल्कुल सही थे। उनका कहना था कि किसी बड़े आदमी का अस्तित्व तब ही है जब वह कुछेक गुलामों की कुछ आवश्यकताओं को पूरा करता रहे। फासिज्म उसी किस्म की नीत्सेवादी गुलामी है जिसकी जंजीरों में हमने भारत माता को कैद कर रखा है।
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