विचार

कृषि में सुधार के लिए उठाया गया पहला कदम साबित हो सकता है कृषि कानूनों की वापसी का फैसला : देवेंदर शर्मा

किसान कानूनों की वापसी का निर्णय आने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए लिया गया हो या आर्थिक कारणों से, लेकिन सच्चाई यह है कि तथाकथित सुधारों ने उन रास्तों को बाधित कर दिया है जो कृषि को पुनर्जीवित कर खेती को दोबारा एक गर्व का व्यवसाय बना सकते थे।

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प्रधानमंत्री ने अचानक सुबह नौ बजे जिस नाटकीयता के साथ सरकार द्वारा बनाए गए कृषि संबंधी दो कानूनों और एक संशोधन को वापस लेने की घोषणा की, उससे देखने वालों को लग सकता है कि अब किसानों के संकटों का अंत आ गया है। लेकिन असल में यह किसानों के संघर्ष का एक पड़ाव भर है। प्रधानमंत्री की पहल ने बदहाल खेती-किसानी को केवल जहां-का-तहां वापस खड़ा कर दिया है। सवाल है, किसानी को कारगर बनाने के लिए क्या करना होगा? प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता देविन्दर शर्मा को यह लेख। ‘सप्रेस’ के लिए इसका हिन्दी अनुवाद सौमित्र राय ने किया है।

विवादित तीन कृषि कानूनों को अचानक वापस लेने का निर्णय भारत में कृषि के भविष्य पर दोबारा सोचने और ‘सदाबहार कृषि-क्रांति’ के रूप में इसकी पुनर्रचना का ऐतिहासिक अवसर देता है। किसानों की जीत का उत्सव एक बार समाप्त हो जाने के बाद राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह लाजिमी है कि वे कृषि को आर्थिक विकास का ‘पावरहॉउस’ बनाने के लिए इसके आर्थिक ताने-बाने पर दोबारा विचार करें।

नव-उदारवादी अर्थशास्त्री इस बात पर बुक्का फाड़कर रोएंगे, लेकिन आज समय की जरूरत इस बात की है कि कृषि को मुनाफे का व्यवसाय बनाने के साथ ही, इसकी आर्थिक उपादेयता और इसे बदलते पर्यावरण के हिसाब से टिकाऊ बनाया जाए। इस समय, जबकि पूरी दुनिया अस्वास्थ्यकर और गैर-टिकाऊ खाद्य प्रणाली को बदलने के लिए उठ खड़ी हुई है, भारत के पास धरती के लोगों के लिए सुरक्षित और स्वास्थ्यकर खेती का रोडमैप उपलब्ध कराने की क्षमता है। कृषि में प्रस्तावित सुधारों को वापस लेने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देर से उठाया गया, लेकिन साहसिक निर्णय कृषि में सुधार के लिए उठाया गया पहला कदम हो सकता है।

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मैं इसे सुधारवादी इसलिए कहता हूं, क्योंकि कृषि बाजार में सुधार के तमाम प्रस्ताव सभी देशों में नाकाम रहे हैं। अमेरिका से ऑस्ट्रेलिया और चिली से फिलीपींस तक जहां देख लें, बाजार ने कृषि संबंधी मौजूदा परेशानियों में केवल इजाफा ही किया है। अगर अमेरिका, कनाडा और बाकी देशों में देखें तो बाजार ने छोटे किसानों के कर्ज को बढ़ाकर उन्हें सफलतापूर्वक खेती से बाहर निकालने और कृषि को ग्रीनहाउस गैसों का बड़ा उत्सर्जक बना दिया है। ऐसे में यह मानना कि यही बाजार भारत में कोई चमत्कार करेगा, एक भ्रांति के सिवा और कुछ नहीं है।

उत्तरी अमेरिका को देखें तो अत्यधिक निवेश, तकनीकी नवाचारों, बहुत ही उन्नत अंतरराष्ट्रीय मूल्य श्रृंखला के बावजूद पिछले 150 साल से भी अधिक समय से कृषि की आमदनी में लगातार गिरावट आ रही है। अमेरिकी कृषि विभाग ने 2018 में जोड़-घटा कर यह निष्कर्ष निकाला था कि उपभोक्ताओं के खर्च किए गए प्रत्येक डॉलर में किसानों का हिस्सा केवल 8 ‘सेंट’ यानि आठ प्रतिशत भर रह गया है और यह स्थिति किसानों को लगातार विलुप्तता की तरफ धकेल रही है।

यह जानते हुए भी कि दुनिया में सभी जगह बाजार किसानों की आय बढ़ाने में नाकाम रहा है, हमारे यहां बाजार केन्द्रित व्यवस्थाएं बनाई जा रही हैं। किसान कानूनों की वापसी का निर्णय आने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए लिया गया हो या आर्थिक कारणों से, लेकिन सच्चाई यह है कि तथाकथित सुधारों ने उन रास्तों को बाधित कर दिया है जो कृषि को पुनर्जीवित कर खेती को दोबारा एक गर्व का व्यवसाय बना सकते थे। आंदोलनकारी किसानों ने सालभर दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहकर जो जीवटता दिखाई है, उसने देश का ध्यान किसान समुदाय की दुर्दशा की तरफ खींचा है। यह समय आंदोलन के कारण उपजी नीति निर्माण की जरूरत को पूरा करने और कृषि प्रणाली को भविष्य के लिए एक स्वास्थ्यकर उद्यम के रूप में फिर से स्थापित करने का है।

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कृषि कानून को वापस लेने का निर्णय आधी लड़ाई जीतने के समान है। इसका मतलब यथास्थिति की तरफ लौटना है, जिसका मतलब है कि गंभीर कृषि संकट से जूझते किसानों के लिए अभी राहत की कोई बात नहीं है। किसानों के लिए यह निश्चित रूप से जीत का पहला दौर है, लेकिन दौड़ अभी खत्म नहीं हुई है। जब तक किसानों के जीवन-यापन के लिए जरूरी आय, मांग और आपूर्ति के लिहाज से सुनिश्चित नहीं की जाएगी, किसानों का आगे भी शोषण जारी रहेगा। कृषि से आय की गारंटी के बिना खाद्य प्रणाली में बदलाव नहीं किया जा सकता। कृषि में यही वह सुधार है, जिसका न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया में बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है।

अगर यह मानकर चलें कि किसानों को सरकार द्वारा 23 फसलों के लिए घोषित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) के मुकाबले, बाजार दर से 40 प्रतिशत कम दाम मिलता है, तो इसका मतलब है कि किसान अपनी उपज की लागत भी नहीं निकाल पा रहे हैं। जब किसान खेती का काम करता है तो उसे यह समझ नहीं आता कि दरअसल वह नुकसान की खेती कर रहा है। केवल उन स्थानों को छोड़कर, जहां गेहूं और चावल की ‘एमएसपी’ प्रणाली लागू है, देश के बाकी स्थानों पर तो किसानों को यह भी नहीं पता कि उन्हें ‘किससे’ वंचित रखा जा रहा है। इसे 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह कहते हुए स्वीकार किया गया था कि देश के 17 राज्यों में, यानी देश के लगभग आधे से अधिक हिस्से में, कृषि से औसत आमदनी केवल 20 हजार रुपए सालाना है। इतना ही नहीं, 2019 के परिस्थितिजन्य सर्वेक्षण का गुणा-भाग बताता है कि खेती से प्रतिदिन की औसत आय केवल 27 रुपए रह गई है।

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किसानों के लिए ‘एमएसपी’ को वैधानिक अधिकार बनाने का मतलब यह है कि निर्धारित कीमत से कम पर उपज की खरीद की अनुमति नहीं हो। भारतीय कृषि को वास्तव में इसी सुधार की जरूरत है। यह कृषि में दूसरा सुधारात्मक कदम है। जब किसानों के हाथ में ज्यादा पैसा होगा, तब खेती न केवल आर्थिक रूप से कारगर होगी, बल्कि देश के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) भी लंबी छलांग लगाएंगे। इससे ग्रामीण आजीविका की स्थिति मजबूत होगी और शहरों में रोजगार का दबाव कम होगा, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में मांग बढ़ने से गांवों की अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित होगी। यह समय उस दोषपूर्ण आर्थिक डिजाइन को बदलने का है, जिसे उद्योगों को बचाने के लिए कृषि का बलिदान देकर बनाया गया है। इसे उस अर्थशास्त्र में बदला जाए, जो लोगों के लिए काम करे और जिसे मानव पूंजी पर निवेश की आवश्यकता हो।

‘एमएसपी’ की गारंटी देने के बाद भी किसानों की एक बड़ी संख्या लाभ से वंचित रहेगी। ये वे छोटे और सीमांत किसान हैं, जिनके पास बाजार में बेचने के लिए ‘सरप्लस’ (अतिरिक्त) उपज तो नहीं होती, लेकिन परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके लिए ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ के तहत हकदारी में वृद्धि की जानी चाहिए।

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भारत में किसानों के आंदोलन ने, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे लंबा आंदोलन है, दुनियाभर का ध्यान खींचा है। किसानों ने उस पुराने आर्थिक सोच को सफलतापूर्वक चुनौती दी है, जो कृषि को कंगाल बनाए रखना चाहती है। यह कोई कम उपलब्धि नहीं है और अगर ईमानदारी से इसका मूल्यांकन किया जाए तो इसमें एक ‘सदाबहार क्रांति’ के बीज बोने की क्षमता मौजूद है। ‘सदाबहार क्रांति’ कृषि विज्ञानी डॉ. एमएस स्वामीनाथन का लाया हुआ शब्द है, जिसमें एक ऐसी उत्पादन प्रणाली को अपरिहार्य माना गया है, जो परंपरागत ज्ञान, उपलब्ध जैव-विविधता और खेती की उस पद्धति की बात करती है, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए।

कृषि प्रणाली को ‘रीडिजाइन’ करने, बाजार को किसानों के नजदीक लाने और एक ऐसी खाद्य वितरण प्रणाली का विकास करने की आवश्यकता है, जो परिवार को पोषण सुरक्षा उपलब्ध कराए, लेकिन इसे हासिल करना उन लोगों के बूते के बाहर है, जिन्होंने कृषि को संकट में डाल रखा है। हमें नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। इसे संभव बनाने के लिए आइए, सबसे पहले किसानों को उनके जीवन-यापन के लायक आय उपलब्ध कराने से शुरुआत करें।

(सप्रेस)

(देवेंदर शर्मा प्रख्यात कृषि विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविद् और कृषि एवं खाद्य निवेश नीति विश्लेषक हैं।)

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