विचार

रेप जैसे अपराध ‘इंतकाम’ भावना से नहीं रुक सकते, ‘इंसाफ’ के लिए पुलिस और न्याय प्रक्रिया में सुधार जरूरी

न्याय और इंतकाम यानी बदले में काफी अंतर है। न्याय का दूरगामी परिणाम होता है, जबकि इंतकाम त्वरित होताहै। समाज सुधार में इसका प्रभाव इतना नहीं होता जितना न्याय का होता है। सभ्य समाज के लिए इंतकाम के बजाय न्याय प्रक्रिया की अधिक आवश्यकता है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

देश में महिलाओं के शोषण और बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। निर्भया के बाद उन्नाव, हैदराबाद तथा कई और शहरों से ऐसी वीभत्स घटनाएं सामने आ रही हैं। लेकिन इस सबसे पुलिस के रवैये और न्याय प्रक्रिया में कोई अंतर पड़ता दिखाई नहीं दे रहा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि बलात्कारियों के पास दया की अपील का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। उनकी इस बात पर सरकार और समाज को विचार कर निर्णय लेना चाहिए और आवश्यक हो तो कानून में सुधार करना चाहिए। इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया कांड के आरोपियों को ढाई वर्ष पूर्व मृत्युदंड की सजा सुना दी थी, लेकिन कानूनी प्रक्रिया और राष्ट्रपति के पास दया याचिका आदि के कारण उन्हें अब सजा दी जा रही है।

साल 2012 की 12 दिसंबर को 6 लोगों ने, जिनमें एक नाबालिग था, एक प्राइवेट बस में निर्भया के साथ पाशविक सामूहिक बलात्कार किया था। सत्रह दिन बाद 29 दिसंबर को उसकी मृत्यु हो गई थी। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक वर्ष के अंदर ही 10 सितंबर, 2013 को आरोपियों को मौत की सजा सुना दी थी। तीन जनवरी, 2014 को हाईकोर्ट ने मौत की सजा को बरकरार रखा था। सुप्रीम कोर्ट में तीन अप्रैल, 2016 को सुनवाई आरंभ हुई और 27 मार्च, 2017 को सजा को बरकरार रखा गया। निर्भया की मां आशा देवी और उनके वकील ने 13 दिसंबर, 2018 को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट से मुजरिम मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और पवन गुप्ता के खिलाफ डेथ वारंट जारी करने के लिए अपील की थी। पांचवें आरोपी ने जेल में ही आत्महत्या कर ली थी और छठा आरोपी नाबालिग था जिसका प्रकरण ‘जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड’ में चला और दोषी सिद्ध होने पर तीन वर्ष सुधार गृह में रहने के बाद आज वह स्वतंत्र घूम रहा है।

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निर्भया की तरह का ही एक कांड हैदराबाद में एक महिला चिकित्सक के साथ भी हुआ, जहां आरोपियों ने सामूहिक बलात्कार के बाद उस महिला को जलाकर मार डाला था। पुलिस ने चारों आरोपियों को गिरफ्तार कर कुछ ही दिनों में उन्हें एनकाउंटर में मार दिया। हैदराबाद पुलिस को लोगों ने कंधों पर उठा लिया था। विडंबना यह है कि रसूख वाले ऐसे ही बलात्कारी चुनाव में खड़े होते हैं और वही भीड़ उसे चुनकर विधानसभा, लोकसभा में भेजती है। जाहिर है, यह भीड़ का दोगलापन है और जिस समाज में ऐसा दोगला भीड़तंत्र होगा, वह समाज विकृतियों से भरपूर अवनति की ओर ही अग्रसर रहेगा।

हैदराबाद पुलिस की कार्रवाई पर सांसद जया बच्चन ने खुशी जाहिर करते हुए कहा था कि ‘देर आए, दुरुस्त आए।’ क्या वह जिस संविधान की शपथ लेकर सांसद बनी हैं उसके शासन में विश्वास नहीं रखतीं? बीएसपी की अध्यक्ष मायावती का भी कहना था कि पुलिस ऐसे अपराधिक तत्वों पर हैदराबाद पुलिस की तरह सख्त कार्रवाई करे तो अपराधों पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। हैदराबाद पुलिस के कृत्य का विरोध करते हुए इनसे बिलकुल भिन्न राय केंद्र में मंत्री रहीं मेनका गांधी ने दी। उनका कहना था कि इससे देश में भयानक परिपाटी आरंभ हो जाएगी। निर्भया सामूहिक बलात्कार प्रकरण के समय दिल्ली के पुलिस आयुक्त रहे नीरज कुमार ने भी खुलासा किया कि जांच के दौरान आरोपियों को मारने का ख्याल कभी उनके मन में नहीं आया, हालांकि उनपर काफी दबाव था।

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यह भी ध्यान देने की बात है कि पुलिस द्वारा एनकाउंटर में मारे जाने वाले अधिकतर अपराधी गरीब तबके से होते हैं। इनमें कोई सेंगर नहीं होता, आशाराम नहीं होता, राम रहीम नहीं होता। इतना ही नहीं, भीड़ के द्वारा मारे जाने वाले अधिकतर लोग भी गरीब ही होते हैं। पिछले कई वर्षों में बच्चे चुराने, डायन होने या गोकशी के शक में जितनी मॉब लिंचिंग हुई है उसमें अधिकतर आरोपी गरीब तबके से ही रहे हैं। न्याय और इंतकाम यानी बदले में काफी अंतर है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसए बोबडे ने हैदराबाद में हुए पुलिस एनकाउंटर के संदर्भ में कहा था कि ‘न्याय कभी बदला लेने में तबदील नहीं होना चाहिए।’

न्याय का दूरगामी परिणाम होता है, जबकि इंतकाम त्वरित होता है। समाज सुधार में इसका प्रभाव इतना नहीं होता, जितना न्याय का होता है। सभ्य समाज के लिए इंतकाम के बजाय न्याय प्रक्रिया की अधिक आवश्यकता है। लेकिन इंतकाम, जिसे छद्म न्याय भी कह सकते हैं, पीड़ित और उसके परिवार को संतुष्टि दिलाता है। इससे समाज के कुछ तबकों को भी संतुष्टि मिलती है। जाहिर है, पुलिस और न्याय व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। आज भी पुलिस की मानसिकता अंग्रेजों के समय की ही है जिसका काम लोगों में भय पैदा करना था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हैदराबाद में जिस पुलिस को लोग कंधे पर उठा रहे थे, उन पर फूलों की बरसात कर रहे थे, वही पुलिस थाने के क्षेत्राधिकार को लेकर पीड़िता के परिवार को चक्कर कटवा रही थी, केस दर्ज नहीं कर रही थी। समय पर यदि पुलिस ने कार्रवाई की होती तो शायद उस महिला की जान बच सकती थी।

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‘कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन फाउंडेशन’ के एक विश्लेषण से पता चला है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार ने 2264 करोड़ रुपये का ‘निर्भया फंड’ बनाया था जिसे सभी राज्य सरकारों को जारी किया गया था। इसमें से केवल ग्यारह प्रतिशत राशि का ही उपयोग किया गया है। सरकारों के साथ-साथ हमारी न्याय-प्रक्रिया का भी यही हाल है। बलात्कारों के मामलों में सजा का प्रतिशत बहुत ही कम है। साल 2017 में यह 31.8 प्रतिशत था। किसी तरह सजा हो भी जाए तो इसे अंजाम तक पहुंचाने में काफी समय लग जाता है। निर्भया प्रकरण में ही सजा देने में लगभग सात साल लगे। अब यह मांग भी उठी है कि यदि निर्भया जैसा वीभत्स बलात्कार कांड पुनः होता है और उसमें कोई नाबालिग शामिल है तो उसके खिलाफ भी अन्य बालिगों की भांति आईपीसी के अनुसार प्रकरण चलाया जाना चाहिए।

(सप्रेस से अशोक कुमार शरण का लेख साभार)

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