विचार

मासूमों की मौत से मोदी सरकार के आयुष्मान भारत की खुली पोल, हेल्थ पर खर्च नहीं बढ़ा तो ‘मुजफ्फरपुर’ होता रहेगा

दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का महज 1.2 फीसदी खर्च करता है, जो श्रीलंका, मालद्वीप जैसे देशों से भी कम है। सरकार प्रति व्यक्ति रोजाना महज तीन रुपये जन स्वास्थ्य पर खर्च करती है यानी एक हजार 108 रुपये सालाना।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

बिहार के मुजफ्फरपुर में एक्यूट इन्सेफिलाइटिस सिंड्रोम (एईएस- चमकी बुखार) बीमारी से पिछले एक महीने में करीब डेढ़ सौ बच्चों की अकाल मौत ने देश के खोखले और जर्जर जन स्वास्थ्य सेवा तंत्र को फिर से उजागर कर दिया है। हाल यह है कि मुजफ्फरपुर के सबसे बड़े अस्पताल श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में न पर्याप्त बिस्तरों की व्यवस्था है, और न ही पंखे हैं। पीने के पानी का अभाव है और शौचालय गंध से भभक रहे हैं। डॉक्टरों की कमी की समस्या पुरानी है और खर्चों के लिए फंड का स्थायी संकट है।

इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आयुष्मान भारत के दावों की हकीकत भी सामने आ जाती है। इस योजना में पांच लाख रुपये की राशि में जांच, दवा और अस्पताल में भर्ती का खर्च शामिल है। दावा है कि इससे मुफ्त इलाज तय है। ऐसे में, यह सवाल उठना वाजिब है कि ऐसी योजना का क्या लाभ है जो बच्चों को बीमारियों से बचाने में लाचार हो।

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जानकार मानते हैं कि आयुष्मान योजना में प्राथमिक चिकित्सा पर ध्यान नहीं दिया गया है जो इस योजना के सफल होने की पहली शर्त है। इसलिए प्राथमिक स्वास्थ्य के मजबूत होने से ही आयुष्मान भारत का पूरा लाभ इसके लाभार्थियों को मिल पाएगा। आयुष्मान भारत के 80 फीसदी लाभार्थी ग्रामीण भारत में निवास करते हैं जहां बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं बेहद लचर हैं और ग्रामीण निजी अस्पतालों के हाथों लुटने पर मजबूर हैं। बीजेपी के 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में और अब 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को जन सुलभ बनाने के लंबे-चैड़े वायदे किए तो गए हैं, पर जमीन पर ग्रामीण जन स्वास्थ्य सेवाओं में लेशमात्र भी अंतर नहीं आया है।

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नाकारा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं

स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2017 तक देश में एक लाख 56 हजार 231 स्वास्थ्य उपक्रेंद, 25 हजार 650 प्राथमिक चिकित्सा केंद्र और 5 हजार 624 सामुदायिक चिकित्सा केंद्र हैं। स्वास्थ्य उपकेंद्रों में कोई चिकित्सा नहीं होती है। ग्रामीण इलाज के लिए फौरी तौर पर इन्हीं चिकित्सा केंद्रों पर जाते हैं, पर इनका हाल बहुत खस्ता है। मजबूरन ग्रामीणों को शहरों में इलाज के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं और वे अपनी जेब से इलाज कराने को विवश हैं।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में तकरीबन 26 फीसदी डॉक्टरों की कमी है। इनमें सबसे ज्यादा बिहार में 64, मध्य प्रदेश में 58, झारखंड में 49 और छत्तीसगढ़ में 45 फीसदी डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं, जबकि केरल में 6 और तमिलनाडु और पंजाब में 8 फीसदी डॉक्टरों के पद रिक्त हैं। इन सभी राज्यों में गैर भाजपाई दल सत्ता में हैं।

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ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी है। मार्च 2107 तक यहां तकरीबन एक लाख स्वास्थ्य कर्मियों के पद खाली थे। इनमें झारखंड में 75, बिहार में 50 राजस्थान में 47 और हरियाणा में 43 फीसदी नर्सों के पद खाली पड़े थे। इन सभी राज्यों में बीजेपी की सत्ता है या हाल तक थी। पर कोढ़ में खाज यह है कि देश की स्वास्थ्य सेवाएं डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी से जूझ रही हैं, उनमें भी 54 फीसदी लोग योग्य नहीं हैं। इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ पब्लिक हेल्थ और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, 24 फीसदी एलोपैथिक चिकित्सक, 21 फीसदी आयुष चिकित्सक, 45 फिजियोथेरेपी कर्मी और 48 फीसदी नर्सिंग कर्मी और 62 फीसदी फार्मेस्टि योग्य नहीं हैं। यह बहुत भयावह स्थिति है।

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बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों के भारी अभाव के कारण डॉक्टर और बीमारों तथा उनके तीमारदारों के बीच अविश्वास की खाई बढ़ती जा रही है जिसका नतीजा है अस्पतालों में बढ़ती मारपीट की घटनाएं। तमाम सरकारी और गैरसरकारी रिपोर्टों से जाहिर है कि भारत में जन स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय अवस्था का कारण है उस पर काम का ज्यादा बोझ। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जो मानक तय किए हैं, उसके हिसाब से भारत बहुत पीछे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। पर देश में औसतन 11 हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है, यानी देश में तकरीबन छह लाख डॉक्टरों की कमी है। इस प्रकार नर्सिंग स्टाफ के लिए तय मानकों के हिसाब से देश में 20 लाख नर्सों की फौरी कमी है।

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इलाज के लिए कर्ज लेने को मजबूर

दुनिया की सबसे बड़ी छठी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.2 फीसदी ही खर्च करता है जो श्रीलंका, मालद्वीप जैसे देशों से भी कम है। सरकार प्रति व्यक्ति रोजाना महज तीन रुपये जन स्वास्थ्य पर खर्च करती है यानी एक हजार 108 रुपये सालाना। यह रकम तकरीबन 16 डॉलर बैठती है। स्विटजरलैंड में यह खर्च 6,944 डॉलर, अमेरिका में 4802 डॉलर, ब्रिटेन में 3500 पौंड है। जीडीपी अनुपात में बात करें तो स्वीडन में 9.2, फ्रांस में 8.7, ब्रिटेन में 7.9, कनाडा 7.7 फीसदी जीडीपी का स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। अमेरिका में यह खर्च 18 फीसदी है। स्वास्थ्य सेवाओं पर औसत वैश्विक खर्च 6 फीसदी है।

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देश में स्वास्थ्य पर कम खर्च का नतीजा है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दशा दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। नतीजन आम भारतीय अपनी जेब से इलाज कराने को मजबूर है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल( 2018) के अनुसार इलाज कराने के लिए देश में हर चौथे परिवार को या तो उधार लेना पड़ता है या अपनी संपदा बेचकर चिकित्सा खर्चों का भुगतान करना पड़ता है। नतीजन हर साल तकरीबन 7 फीसदी भारतीय गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं जिन्हें आयुष्मान भारत योजना का लाभ भी नहीं मिल सकता है। 23 फीसदी लोग पैसे के अभाव में इलाज ही नहीं करा पाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल स्वास्थ्य खर्च का तकरीबन 68 फीसदी खर्च लोग खुद वहन करते हैं जबकि विश्व में यह औसत महज 18 फीसदी है। जन स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जब तक खर्च नहीं बढ़ाएगी, तब तक लोग निजी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए विवश रहेंगे।

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सभी दल चुनावी घोषणा पत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने और जन सुलभ कराने के वादे करते हैं। लेकिन उन्हें पूरा करने की कोई दिलचस्पी उनमें नहीं है, क्योंकि स्वास्थ्य कभी भारतीय चुनाव में मुद्दा नहीं बन पाया है। इलाज के अभाव में अकाल मौतें भी चुनावों को प्रभावित नहीं कर पाती हैं। मौजूदा समय में भी प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में देश की स्वास्थ्य सेवाओं का जिक्र बेहद कम होता है। चमकी बुखार से 150 से अधिक बच्चों की अकाल मौत पर वह मौन साधे हुए हैं। यह सरकार की प्राथमिकता दर्शाने के लिए पर्याप्त है।

जनस्वास्थ्य सेवाएं मोदी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में नहीं हैं। साल 2025 तक स्वास्थ्य खर्चों को जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का वायदा मोदी सरकार ने किया है जो मौजूदा जीडीपी से 4.25 लाख करोड़ रुपये बैठता है। 2019-20 के अंतरिम बजट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को 61 हजार 398 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, यानी 2025 तक स्वास्थ्य खर्चों को जीडीपी के 2.5 फीसदी खर्च के लिए मोदी सरकार को हर साल तकरीबन औसतन 70 हजार करोड़ रुपये इस मद में ज्यादा डालने होंगे। 5 जुलाई को पेश होने वाले मोदी सरकार के बजट में स्वास्थ्य के लिए कितने पैसे आवंटित किए जाते हैं,, इससे सरकार की नीति और नीयत का अंदाज हो जाएगा।

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