एक जमाना था जब कक्षा से चुनावी भाषणों तक में लड़कियों को ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो?’ जैसे जुमले बार-बार सुनने को मिलते थे। भला हो कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान और गीतांजलिश्री जैसी लेखिकाओं का जिन्होंने आजादी के बाद हमारे हर वर्ग, जाति और धर्म की पराधीन बदहाल रही आई महिलाओं की असलियत दिखा कर ऐसी कड़ी चोट की कि पढ़ने-लिखने वाले समझदार लोग इस भावुक और निरर्थक पंक्ति से बचने लगे। बहरहाल, सही समाजवाद गोरख पांडे के शब्दों में, ‘बबुआ धीरे-धीरे आई’।
चुनावों की मैल धोते-धोते थके देश में राज समाज में बदलाव कहां आता है, कहां रुक जाता है, यह दो सालों से टलती आ रही बहुप्रतीक्षित नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वेक्षण की रपट के रोचक ब्योरे उजागर करते हैं। यह बहुस्तरीय रपट भारत सरकार और देश के कुछ जाने-माने स्वायत्त संगठनों ने अमेरिकी सरकार और बिल एंड मेलिंडा गेट्स न्यास के सहयोग से देश भर के छह लाख 37 हजार परिवारों के सर्वेक्षण द्वारा तैयार किया है। भरोसेमंद और वैज्ञानिक आधार पर तैयार डाटा के अभाव से बहुत कुछ स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी काम जो लगातार टलता आ रहा था, उम्मीद है इन जानकारियों के बूते भारतीय परिवारों के स्वास्थ्य और सामाजिक बराबरी के क्षेत्र में कुछ भ्रम मिटाएगा।
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पहले सकारात्मक उत्साहजनक ब्योरे: हमारे यहां पुरुषों की तुलना में घटती जा रही महिलाओं की आबादी अब बराबरी के आंकड़े पर आ गई है। लगता है कि स्त्री शिक्षा और राज समाज में स्त्रियों खासकर कन्या शिशु को बचाने पर जो मुहिम चलाई गई और गर्भ लिंग परीक्षण पर कानून से कड़ी रोकथाम की गई, उससे काफी फर्क पड़ा है। दूसरे यह कि आबादी की चिंताजनक रफ्तार भी सभी संप्रदायों में पिछले दो सालों में धीमी हुई है। इसमें तमाम तरह के शक का शिकार बनाया जा रहा मुस्लिम समाज भी शामिल है।
सराहनीय है कि अधिक बच्चे जनने के लिए नाना धर्मगुरुओं के उकसावों को नजरअंदाज करते हुए बिना जबरिया नसबंदी अथवा कठोर नियमन के भारत के लोग परिवार नियोजन अपनाने लगे हैं। तीसरी बात कि विवाहिता महिलाओं में आज अनचाहे सहवास को लेकर अनिच्छा जताने की हिम्मत बढ़ी है और उनके पति भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि सहवास में पत्नी की स्वीकृति या अस्वीकृति भी उतनी ही मायने रखती है जितनी कि खुद उनकी। हम लाख कोसें लेकिन शिक्षा से मिले आत्मविश्वास, ‘मी टू’ सरीखे आंदोलनों और अदालत के कुछ अग्रगामी फैसलों ने भी महिलाओं में अपनी अस्मिता की तरफ इस नई रुझान को बलवती बनाया है।
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अब आते हैं रपट के कुछ विचलित करने वाले ब्योरों पर। पहला तो यह कि बच्चों में कुपोषण और अत्यधिक कुपोषण से उनका शारीरिक और मानसिक विकास न होने के आंकड़े काफी बढ़े हुए पाए गए। इसी के साथ महिलाओं में प्रजनन संबंधी रोगों की और अनीमिया की दरें घटी नहीं। खासकर गांवों में। शायद इसकी बड़ी वजह यह है कि पहले नोटबंदी, फिर कोविड की मार से महिलाओं को सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराने वाली खेती घाटे का सौदा बन चली है। वे बच्चों को जैसे-तैसे अपना पेट काट कर पढ़ा रही हैं लेकिन स्कूली पढ़ाई पूरी करते ही ग्रामीण युवा लगातार शहर भाग रहे हैं। इससे जहां महिलाएं और छोटे बच्चे उपेक्षित रह जाते हैं, वहीं रोजगार तलाशती युवा भीड़ की बहुतायत से शहर बेतरतीब तरह से फैलने को मजबूर हो गए हैं। अवैध बस्तियों में बुलडोजर भेज कर कुछ खास समूहों की अवैध रिहायिशें नष्ट करने के बेहूदा नाटक चंद नेताओं के वोट बैंक भर बनाते हैं और गश्ती पुलिस और इलाके के दादाओं की कमाई बढ़ जाती है।
पहले सालों साल एनएफएचएस के सर्वेक्षणों को गहराई से पढ़ते आ रहे वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और मीडिया के सीनियर सलाहकारों द्वारा सरकार को सही मशवरे मिलते थे। लेकिन आज राजधानी में ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ किस्म के चाटुकारों और कॉरपोरेट लॉबीस्ट की धूम है। अपनी राजनीतिक पक्षधरता और स्वामिभक्ति साबित कर चुकी इस जमात में राय कमोबेश यही है कि शहरीकरण और पर्यटन उद्योग को बढ़ावा, बड़े खदान, सिंचाई और बिजली उत्पादन के उपक्रमों, विशाल सड़कों के जाल बनाना जरूरी ही नहीं, अनिवार्य है।
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शीर्ष से कहा जाता है कि चीन या जापान हमारे सामने कुछ नहीं। हमारे पास तो क्या नाम भारी युवा आबादी का नायाब डिविडडें है! सरकारी विकास मुहिम का इंजन उनसे बना पढ़ा-लिखा भारतीय शहरी मध्यवर्ग सहज ही पैदा कर देगा। देश की सभी उच्च शिक्षा संस्थाएं नियमित लिखाई-पढ़ाई के अलावा शोध कार्य में इसी मुहिम का अंग बन रही हैं और स्कूलों को नए पाठ्यक्रम के तहत धर्म की घुट्टी दी जा रही है। सचाई यह है कि इधर आर्थिक तरक्की या अभिव्यक्ति की आजादी या खुशी के अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर हम लुढ़क रहे हैं।
एनएफएचएस की रपट के अनुसार, समाज में पुरुष वर्चस्व या औरतों के खिलाफ पारिवारिक हिंसा की प्रतिगामी सोच बदली है। सर्वेक्षण ने पाया है कि 44 फीसदी पुरुष और 45 फीसदी महिलाएं कुछ परंपराओं के मद्देनजर घर की औरतों को पीटना जायज मानते हैं। दूसरी चिंता की बात यह है कि औरतों को रोजगार तो मिल रहे हैं, पर वे अनियमित हैं और उनसे उनको दैनिक दिहाड़ी या मासिक तनख्वाह ही मिल रही है। पुरुषों की बेरोजगारी कम नहीं हुई लेकिन उनमें से जो नियमित रोजगार छूट जाने पर अनियमित घरेलू या निम्न स्तर के काम पकड़ रहे हैं, उनमें औरतों की तुलना में उनको बेहतर वेतन मिल रहा है।
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दरअसल, शहरी मध्यवर्ग के कई परिवार महिलाओं की आमदनी से ही मध्यवर्ग की श्रेणी में आए थे। हम सब जानते हैं कि ऐसे समय में जब खान-पान, शिक्षा आदि में कई तरह की कटौतियां करनी पड़ रही हों, खाद्य पदार्थ की कीमतों में भीषण उछाल आ जाए, तो औरतें पहली कटौती खुद पर और बेटियों के सपनों पर लागू करती हैं। ऐसे दकियानूस नेताओं की कमी नहीं जो सम्मेलनों, धर्म संसदों और मीडिया में महिलाओं को सीता मैया जैसा त्याग, पारिवारिक प्रेम और संयम धारण करने का उपदेश दे रहे हैं। उससे भी शोचनीय यह कि पति को बीबी पर हाथ उठाने का हक है मानने वाली महिलाएं भी हाथ जोड़े हर धार्मिक दहलीज पर माथा टिका रही हैं कि वे समाज के नेताओं की मर्जी मुताबिक आचरण करें।
2022 में भारतीय मध्यवर्ग का असली और औसत प्रतिनिधित्व उसका वह 90 फीसदी भाग करता है जिसकी निचली सतहें पिछले अढ़ाई दशकों में गांव से शहर में आन बसे नव साक्षर लोगों से बनी हैं। गरीबी की बाढ़ से येन-केन उबर कर यह वर्ग (नोटबंदी या जीएसटी या खराब मानसून से) फिर गरीबी रेखा तले सरकने का खतरा झेल रहा है। जो विशाल सार्वजनिक उपक्रम भारी तादाद में नौकरियां पैदा करते थे, एक-एक कर बिक रहे हैं। एकाध जगह कल तक उनको चलाने वाले बाबू लोग सेवानिवृत्त हो कर निजी क्षेत्र में फिर उनकी कमान थाम रहे हैं।
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ययातियों के इस देश में एक पढ़ा-लिखा उदार संस्कारों वाला युवा हर जगह संदिग्ध है। युवा लड़के जब पाते हैं कि वे प्रवेश परीक्षाओं में नई नौकरियों के लिए शहरी उच्च मध्यवर्ग की लड़कियों की तुलना में भी नाकाबिल साबित हो रहे हैं, तो कई बार उनके व्यवस्था के खिलाफ गुस्से के करेले पर लिंगगत रूढ़िवाद की नीम चढ़ जाती है। श्रीलंका गवाह है कि क्रांति न तो विपक्षी दलों के कहे से होती है, न सरकारों के रोकने से रुकती है।
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