दो मुस्लिम युवकों, मुहम्मद रियाज़ अंसारी और गौस मुहम्मद, ने 28 जून 2022 को कन्हैयालाल नाम के एक दर्जी की राजस्थान के उदयपुर में अत्यंत निर्ममता से हत्या कर दी। उन्होंने अपनी इस कुत्सित हरकत का वीडियो बनाया और उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया। करीब दो हफ्ते पहले एक टीवी बहस के दौरान नुपूर शर्मा ने पैगम्बर मुहम्मद के बारे में कुछ टिप्पणियां की थीं। ये टिप्पणियां अनुचित और अनावश्यक थीं। इन टिप्पणियों की निंदा हुई। परन्तु इस मामले ने तब जोर पकड़ा जब खाड़ी के कुछ इस्लामिक देशों ने इनका विरोध किया।
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कन्हैयालाल की बर्बर हत्या की सभी क्षेत्रों में घोर निंदा हुई। निंदा करने वालों में उदारवादी समूह और मुस्लिम संगठन शामिल थे। सभी मुस्लिम संगठनों के कहा कि यह हत्या गैर-इस्लामिक है। कुछ ने हत्यारों को पथभ्रष्ट बताया। नुपूर शर्मा का समर्थन करते हुए कुछ पोस्ट लिखने को हत्यारे युवकों ने ईशनिंदा माना और यह भी तय कर लिया कि ईशनिंदा की सजा देना उनका काम है। ईशनिंदा सम्बन्धी कानूनों की किसी भी प्रजातंत्र, बल्कि किसी भी सभ्य देश, में कोई जगह नहीं है, फिर चाहे अधिसंख्यक निवासियों का धर्म चाहे जो हो।
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कुछ वर्ष पूर्व एक मुस्लिम मजदूर अफराजुल की भी इतनी ही भयावह तरीके से शम्भूलाल रेगर नामक एक व्यक्ति ने हत्या की थी। रेगर कुछ ऐसी सोशल मीडिया पोस्ट्स से आक्रोशित था जिनमें यह आरोप लगाया गया था कि मुस्लिम युवक 'लव जिहाद' कर रहे हैं। जहाँ कुछ संगठनों और समूहों ने इस घटना की घोर निंदा की थी वहीं कुछ अन्यों ने रेगर की इस क्रूरता की प्रशंसा की और उसके परिवार के लिए और उसका मुकदमा लड़ने के लिए धन भी इकठ्ठा किया। अखलाक, जुनैद, रखबर खान और कई अन्यों की लिंचिंग भी इतनी ही क्रूर थी।
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अगर कोई दूसरा गलत काम कर रहा है तो हम भी गलत काम कर सकते हैं या करना चाहिए, यह सोच गलत है। किसी भी धर्म के नाम पर हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हिंसा न केवल अधार्मिक है वरन हमारे संवैधानिक मूल्यों के भी खिलाफ है। जिन लोगों ने अफराजुल की हत्या की या करीब सौ लोगों की लिंचिंग की, उन्हें 'फ्रिंज एलिमेंट्स' (अतिवादी सोच वाले लोग) बताया जाता है। वहीं कन्हैयालाल और कश्मीरी पंडितों के हत्या के लिए मदरसों में दी जानी शिक्षा को दोषी बताया जाता है। केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान बहुत चिंतित हैं कि मदरसों में लड़कों के दिमाग में जिहादी इस्लाम का ज़हर भरा जा रहा है। उनके और अन्य कई लोगों के अनुसार, यही ज़हर उदयपुर जैसी घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है।
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दरअसल, अफराजुल की हत्या और अनेक अन्यों की लिंचिंग के लिए वह विचारधारा ज़िम्मेदार है जो मुसलमानों को हिन्दुओं के लिए खतरा और हिन्दुओं को मुसलमानों से पीड़ित बताती है। यह विचारधारा महात्मा गाँधी पर भी मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का आरोप लगाती रही है। यह विचारधारा हिंदुत्व की विचारधारा है। इसके विपरीत, गाँधी और अधिकांश हिन्दुओं का हिन्दू धर्म समावेशी है और सभी भारतीयों को अपने 'कुटुंब' का हिस्सा मानता है। उनका हिन्दू धर्म 'वसुधैव कुटुम्बकम' में विश्वास रखता है।
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जहाँ तक जिहादी इस्लाम और मदरसों के बीच रिश्ते का सम्बन्ध है, उस पर गहन चिंतन की ज़रुरत है। मदरसे बहुत लम्बे समय से अस्तित्व में है परन्तु जिहादी इस्लाम का इतिहास 9/11, 2001 से शुरू होता है। जिहादी इस्लाम, दरअसल, इस्लाम के नाम पर राजनीति का दूसरा नाम है। हमें इसके उदय की पृष्ठभूमि को समझना होगा। जिहादी सोच को युवकों के दिमाग में भरने का काम पाकिस्तान में स्थित कुछ मदरसों में किया गया था। यह अमरीका की योजना थी। इसके तहत युवकों को इस्लाम के नाम पर राजनीति को आगे ले जाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था।
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शीत युद्ध के दौर में दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने के लिए अमरीका और रूस में स्पर्धा चल रही थी। इस स्पर्धा का एक उद्देश्य पश्चिम एशिया के कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा जमाना भी था। अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अमरीका ने इस्लाम के वहाबी संस्करण को चुना, जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान में मुजाहिदीनों और तालिबान को प्रशिक्षित करने के लिए किया गया। इन्हीं से अलकायदा और आईसिस जन्में। महमूद ममदानी ने अपनी पुस्तक 'गुड मुस्लिम बैड मुस्लिम' में बताया है कि अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना पर हमले करने के लिए लड़ाकों को तैयार करने पर 800 करोड़ डॉलर खर्च किये और इन गिरोहों को 7,000 टन हथियार और असलाह उपलब्ध करवाए। सोवियत सेनाओं की हार के बाद इन तत्वों ने कश्मीर में घुसपैठ कर ली और कश्मीर मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण कर दिया। उन्होंने पंडितों पर हमले किये और ऐसे हालात निर्मित कर दिए जिनके चलते पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी और वे अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। ये तत्व उन सभी मुसलमानों के भी खिलाफ थे जो भारत के पक्ष में थे और ऐसे मुसलमानों की जान लेने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। उनमें से कई को घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
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इस्लाम के वहाबी संस्करण में जिहाद का अर्थ है काफिरों को मारना। यह संस्करण सऊदी अरब से उधार लिया गया और उसे और कट्टर स्वरुप देकर कुछ पाकिस्तानी मदरसों में उसे पढाना शुरू किया गया। इसका परिणाम सबके सामने है। काफिर शब्द का असली अर्थ है वह व्यक्ति जो सच को छुपाता है। इस शब्द को तोड़-मरोड़ कर उसे इस्लाम में आस्था न रखने वाले का अर्थ दे दिया गया। इस तरह, जिहाद, जो बेहतरी के लिए कोशिश का नाम है, को काफिरों की हत्या करने का पर्यायवाची बना दिया गया।
इस संपूर्ण घटनाक्रम का जायजा आप हिलेरी क्लिंटन के इस 1.35 मिनट के वीडियो में ले सकते हैं (https://www.youtube.com/watch?v=XY-BWScpdZw)। इससे पता चलता है कि अमरीका ने विभिन्न जिहादी समूहों की किस तरह मदद की। ये समूह अब पूरी दुनिया के लिए एक मुसीबत बन गए हैं।
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यह दिलचस्प है कि जिहादी आतंकवाद मुख्यतः पश्चिम एशिया तक सीमित है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम-बहुल राष्ट्रों में इसका अस्तित्व नहीं है। भारत को भी इस आतंकवाद के कारण भारी नुकसान उठाना पड़ा है, विशेषकर 26/11 2008 के आतंकी हमले के रूप में। यह भी सही है कि जिहादी आतंकवाद भस्मासुर की तरह है। पाकिस्तान भी इसका शिकार है। पाकिस्तान में करीब 75,000 लोग आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं। पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भी आतंकी हमले का शिकार हुईं थीं।
यह सही है कि भारतीय मदरसों के पाठ्यक्रम में कई कमियां हैं। परन्तु वे आतंकवाद की नर्सरी नहीं हैं। आज जहाँ भारत के मुसलमानों का एक बड़ा तबका भय और असुरक्षा की भाव से पीड़ित है वहीं रियाज़ अंसारी और गौस मुहम्मद जैसे लोग भी हैं जिनकी हरकतें भारतीय मुसलमानों पर एक काला धब्बा हैं। उनकी हरकतें कुरान के भी खिलाफ हैं जो कहती है कि एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या, पूरी मानवता की हत्या के समान है (कुरान 5:32)।
शम्भूलाल रैगर और इन दोनों वहशी मुस्लिम युवकों में कोई फर्क नहीं है। ये सभी अपने-अपने धर्मों के नाम पर कुत्सित अपराधों को अंजाम दे रहे हैं।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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